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अहंकार छोड़ अपने आईने में झांकिए, काफी अफ्रीकी देश भी आप से आगे निकल गए हैं

अफ्रीका के ज़्यादातर देश भारत से बेहतर हो गए हैं और हम हैं कि कुशासन, पहचान को लेकर घटिया किस्म की राजनीति, भ्रष्टाचार, झूठे अहंकार, आत्म-प्रशंसा, खोखली जीत के जश्न में खोए हैं और अपनी छवि खराब कर रहे हैं.

चित्रण: सोहम सेन/ दिप्रिंट

नाम में क्या रखा है? कोविड-19 को हम कोई भी नाम दे दें, वह हमें बीमार करके अस्पताल में भर्ती करवाएगा और जान भी ले सकता है. इसलिए, दुनिया में अगर कहीं कोई इसे वायरस के सबसे नये और कुख्यात रूप बी-1.617 को ‘इंडियन’ नाम से पुकार रहा है तो हमारी लंगोट क्यों ढीली होने लगती है? अब, इस लंगोट शब्द का इस्तेमाल करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि न तो इसे अश्लील कहा जा सकता है, न इसके साथ कोई सियासी मतलब जोड़ा जा सकता है.

लेकिन समय बदल गया है भाई! चीनियों ने इस वायरस का नाम चीन या वुहान के नाम पर रखने का दुस्साहस करने वाले पर हमला करके नया कायदा तय कर दिया है. लगभग पूरी दुनिया ने और खासकर डब्लूएचओ ने वही किया, जो चीन ने करने को कहा.

हम, भारत के लोग अपने तुनुकमिज़ाज पड़ोसी की नकल में अपने संवेदनशील राष्ट्रवाद से प्रेरणा ले रहे हैं.

इस बीच, डब्लूएचओ झगड़ा सुलझाने की कोशिश कर रहा है. अब वह वायरस के नये रूपों का नाम रखने के लिए ग्रीक वर्णमाला का सहारा ले रहा है. लेकिन यह कहना मुश्किल है कि इससे भारत की या दूसरों की आहत भावनाएं शांत होंगी या नहीं.

इस बीच, डब्लूएचओ के सामने अपनी चुनौतियां हैं. लूसियाना के डेमोक्रेट से रिपब्लिकन सीनेटर बने जॉन नीली केनेडी अपनी अतिरंजित और रंगीनमिजाज हाजिरजवाबी के लिए मशहूर हैं लेकिन सीनेट की सुनवाई के दौरान उन्होंने डॉ. एंथनी फौची से जो सवाल पूछा वह डब्लूएचओ की आज जो इज्जत और हैसियत हो गई है उसका बेहतर खाका खींचता है. उनका सवाल था— ‘अगर आपने शी जिनपिंग को अपने हाथ में पकड़कर उलटा लटका दिया और ज़ोर से झकझोर दिया, तो क्या आपको नहीं लगता कि उनकी जेब से डब्लूएचओ गिर पड़ेगा?’ मुमकिन है कि अगले कुछ सप्ताह में डब्लूएचओ को भारत जैसे शोर मचाने वाले राष्ट्रवादियों के मुंह में लॉलीपॉप ठूंसते रहने की जगह, अपने कामकाज को लेकर कुछ गंभीर चिंताओं के बारे में जवाब देना पड़े.

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अगर आप पतली चमड़ी वाले भारतीय राष्ट्रवादी हैं, जैसे कि हममें से अधिकतर लोग हैं, तो हमारे सामने कठिन सवाल खड़े हैं. मैं सिर्फ सबको आईना दिखाने की कोशिश कर रहा हूं. वास्तव में यह वाहन में लगा पीछे देखने वाला आईना है, जिस पर यह चेतावनी लिखी रहती है— ‘इस आईने में चीजें वास्तव में जितनी दूर हैं उससे कम दूरी पर दिखती हैं.’ आइए, देखें कि यह कैसे होता है.


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दक्षिण एशियाई मामलों के प्रख्यात अमेरिकी विशेषज्ञ और रणनीति के विद्वान स्टीफन कोहेन से बात करने वालों को यह जरूर याद होगा कि वे बार-बार कहा करते थे—कभी भी तीसरी दुनिया या सुपरपावर जैसे शब्दों का प्रयोग मत कीजिए. उनका तर्क था कि ये सब जरूरत से बड़े, व्यापक किस्म के ठप्पे हैं. ये विश्लेषण करने, बारीकियों और जटिलताओं को समझने की ओर से हमारे दिमाग को बंद कर देते हैं. लेकिन पूरी दुनिया तो उनकी शिष्य नहीं है, इसलिए ये जुमले चल गए. हमने देखा है कि किस तरह कई देश तीसरी दुनिया के खांचे से बाहर निकलने और सुपरपावर बनने की महत्वाकांक्षा रखने में गर्व महसूस करते रहे हैं.

हम भी ऐसे देशों में शामिल हैं. और इसकी अच्छी-ख़ासी वजह भी है. 1990 से 2000 के बीच तीन दशकों में हमने 30 करोड़ लोगों को घोर गरीबी से बाहर निकाला. हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गई. हम दुनिया के ‘बैक-ऑफिस’ बन गए, विदेशी मुद्रा का विशाल भंडार हमने बना लिया, जिसका मूल्य तब समझ में आएगा जब हम इस बात पर गौर करेंगे कि किस घटना के कारण आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई. 1991 में हमारे भुगतान असंतुलन के चलते ऐसा संकट पैदा हो गया कि हमें कर्ज भुगतान से न चूकने के लिए अपने भंडार से सोना तक निकालना पड़ गया. भारतीय मूल के लोग शानदार ग्लोबल कोरपोरेशन्स चला रहे हैं, अमेरिका के उप-राष्ट्रपति से लेकर ब्रिटेन के वित्त तथा गृह मंत्री और पुर्तगाल के प्रधानमंत्री जैसे अहम पदों पर बैठे हैं.

दुनिया में भारत का कद ऊंचा हुआ है, यह एक हकीकत है और इसके प्रमाण संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा से भी कहीं ठोस संकेतकों से मिलते हैं. रणनीतिक लिहाज से हमारे बढ़ते वजन का अंदाजा ‘क्वाड’ जैसे संगठन की हमारी सदस्यता, जी-7 में हमें विशेष मेहमान बनाए जाने और अन्य कई बातों कारणों से मिलता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया भर में अपने समकालीन नेताओं में लोकप्रिय और सम्मानित हैं.

यहां पर आकर एक चेतावनी देने की जरूरत लग रही है— ओ रायसीना की पहाड़ी! हमें एक समस्या महसूस हो रही है!
सुपरपावर देशों और तीसरी दुनिया के अलावा एक भौगोलिक क्षेत्र है, जिसका राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक महत्व है, और वह है उप-सहारा अफ्रीका. दुनिया में सबसे बदतरीन की मिसाल देनी हो तो उसे इस नाम से पुकारा जाता है. मसलन यह कि उस देश के संकेतक तो उप-सहारा अफ्रीका के संकेतकों से भी बदतर हैं.

कभी-कभी यह भारत के अहम सामाजिक संकेतकों के बारे में भी कहा गया है. लेकिन हमारे पास वैश्विक स्तर पर कामयाबियों के अलावा अपनी विश्व स्तरीय कंपनियों की कहानियां भी सुनाने को रही हैं. हमारा देश दुनिया के सबसे महान धर्मों—हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन—की जन्मभूमि है. हमारे पास प्राचीन ग्रंथ हैं, इतिहास है, नैतिक वर्चस्व का दावा है. हम अगर कुछ संकेतकों में कहीं पिछड़ रहे हैं तो महज इसलिए आप हमारी तुलना उप-सहारा अफ्रीका से कैसे कर सकते हैं?
कोविड महामारी के दौरान भारत को केन्या से दी गई ‘सहायता’ को लेकर इस सप्ताह के शुरू में सोशल मीडिया पर छोटा-सा बवंडर उठा तब मुझे इलहाम हुआ. केन्या ने कॉफी, चाय, मूंगफली के रूप में कुल 12 टन की छोटी-सी सहायता भेजी थी.

सोशल मीडिया पर एक खेमा इसलिए नाराज था कि कोई देश लगभग सुपरपावर बन चुके देश को इतनी मामूली कैसे सहायता भेज रहा है (याद कीजिए, जिमी कार्टर द्वारा भेजी गई 50 करोड़ डॉलर की सहायता पर जनरल ज़िया-उल-हक़ की क्या प्रतिक्रिया थी)— औकात जानते नहीं अपनी? दूसरी, ज्यादा मुखर नाराजगी कुछ इस तरह की थी— #शुक्रिया मोदी जी, भारत की आपने वह हालत कर दी कि उसे सहायता के रूप में चाय, कॉफी, मूंगफली लेनी पड़ रही है.
लेकिन दोनों खेमों में एक ही तरह की भावना दिखी— केन्या एक अफ्रीकी देश है, वह भी उप-सहारा अफ्रीका का. यह सब भेज कर भारत की हैसियत इतनी नीची कैसे की जा सकती है? अफ्रीका तो सहायता देने वाला नहीं बल्कि हमेशा सहायता लेने वाला महादेश रहा है!

इसने मुझे दुनिया के उस भाग का सामाजिक-आर्थिक जायजा लेने के काम में लगा दिया, जिसे तीसरी दुनिया से नीचे या एकदम अंतिम पायदान पर माना जाता है. लेकिन आंकड़े मेरे लिए, हमारे प्राइम टाइम एंकरों की भाषा में कहें तो, वाकई चौंकाऊ थे, जिन्होंने यूट्यूब के मेरे दैनिक शो ‘#कट द क्लटर अराउंड आउट’ की एक कड़ी के लिए सामग्री जुटा दिए.
उस महादेश के बारे में हमारे मन में जो ’भूखा-नंगा’ वाली छवि बनी है उसके विपरीत, 20 अफ्रीकी देश ऐसे हैं जिनकी प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा भारत के इस आंकड़े से कहीं बेहतर है. और इनमें से अधिकतर देश उप-सहारा क्षेत्र के ही हैं. जी नहीं, यह बहाना नहीं चलेगा कि ‘अरे, इन छोटी आबादी वाले देशों से हमारी तुलना मत कीजिए’. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश (आइएमएफ) के आंकड़े (आप विश्व बैंक या सीआइए के आंकड़े चुन लीजिए) यही दिखाते हैं कि हमसे ज्यादा अमीर 20 अफ्रीकी देशों की कुल आबादी 68 करोड़ है. कुल 128 करोड़ की आबादी वाले अफ्रीकी महादेश का कुल जीडीपी 2.6 ट्रिलियन डॉलर के बराबर है. भारत का 3 ट्रिलियन डॉलर के बराबर है, लेकिन आबादी उससे कुछ करोड़ ज्यादा भी है.


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एक कदम और आगे बढ़ें. आइएमएफ ने 2021 के लिए 195 देशों के प्रति व्यक्ति जीडीपी के आंकड़े का जो अनुमान लगाया है उस पर गौर कीजिए. इस साल भारत कुछ पायदान नीचे गिर कर 144वें स्थान पर है जबकि घाना, कोंगो, आइवरी कोस्ट और मोरक्को उसके ऊपर हैं. दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, और द्वीप देश मॉरिशस तथा सेशेल्स समेत बोत्सवाना (84) और गबों (80) तो कहीं और ऊपर हैं. अगर बिहार एक देश होता तो वह 195 में से 184वें स्थान पर होता— नाइगर, इरिट्रिया, अफगानिस्तान, सिएरा लिओनी, सोमालिया, और दो और देशों से ठीक ऊपर. अब बताइए, क्या आबादी वाला आपका बहाना चलेगा? बिहार की आबादी तो 185 से 195 नंबर वाले देशों की कुल आबादी से ज्यादा है.
यह सब पढ़कर आपका सप्ताहांत खराब होता है तो इसके लिए मैं माफी चाहता हूं. उत्तर प्रदेश अगर एक देश होता तो वह 172वें नंबर पर होता और माली की बराबरी कर रहा होता. तंजानिया और टोगो उससे ऊपर होते. और यूपी की आबादी 172 से 195 तक के नंबर वाले सभी देशों की कुल आबादी से ज्यादा होगी. यूपी-बिहार मिलकर यह तय करते हैं कि भारत पर कौन राज करेगा, लेकिन इन दोनों राज्यों में घोर गरीबी में जी रही कुल आबादी उप-सहारा अफ्रीका की कुल आबादी से ज्यादा ही होगी. अधिकतर सामाजिक संकेतकों के लिहाज से ये दोनों राज्य कुशासन में रह रहे गरीबों का क्षेत्र है.

इस सबसे दो निष्कर्ष निकलते हैं. एक यह कि ‘अश्वेत महादेश’ के साथ, ‘उप-सहारा अफ्रीका से भी बदतर’ एक बेहद नस्लवादी और अन्यायपूर्ण क्षेत्र मौजूद है. दूसरा यह कि भारत को दुनिया आज जिस नज़र से देख रही है, उसके चलते इस देश के एक हिस्से के लिए इसी तरह की कोई गाली बोली जा सकती है. हमारी महान नदियों में बहते और उनके किनारे दफन किए गए शवों की तस्वीरें महान भारतीय हृदय-प्रदेश की स्थायी ध्वस्त छवि बनकर रह जा सकती हैं. क्या हो अगर कल को कोई किसी की यह कहकर तुलना करने लगे कि उसके मानव संकेतक भारतीय-गंगा क्षेत्र के मैदानी इलाके के संकेतकों से भी बुरे हैं? क्या यह यह तो बी-1.617 वायरस को ‘भारतीय वायरस’ कहने से भी बुरा नहीं है?

गाड़ी में पीछे देखने वाले आईने में यही तस्वीर बनती है, जो हकीकत से कहीं ज्यादा करीब की तस्वीर है. कुशासन, पहचान को लेकर घटिया किस्म की राजनीति, भ्रष्टाचार, झूठे अहंकार, आत्म-प्रशंसा, खोखली जीत के जश्न हमारी छवि को इस कदर खराब कर रहे हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर पा रहे. बाहर की दुनिया बड़ी बेरहम, बड़ी क्रूर है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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