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गाज़ा से पाकिस्तान तक उथल-पुथल के बीच सियासी इस्लाम मजबूत और कमज़ोर दोनों, आपकी नज़र की मर्ज़ी

यहां ज़िक्र उस इस्लाम का नहीं जो एक आस्था है, बल्कि उस सियासी इस्लाम का है जहां आस्था मुल्क का मज़हब है और एक राष्ट्र को परिभाषित करता है और/ या उसके ज्यादातर अनिर्वाचित नेताओं को सत्ता में बनाए रखता है.

चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट
चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट

एक पल के लिए भूल जाइए कि गाज़ा में कितनी तबाही मची है, लाल सागर क्षेत्र में क्या उथल-पुथल हो रही है और ईरान-पाकिस्तान आपस में दोस्ताना पप्पी-झप्पी करने के बाद अब किस तरह एक-दूसरे को बमों से जवाब दे रहे हैं. अब यह आपके नज़रिए पर निर्भर करता है कि आप वैश्विक सियासी इस्लाम को आज अपनी सबसे मजबूत स्थिति में देखते हैं या सबसे कमज़ोर स्थिति में.

साफ कहा जाए तो यहां बात उस इस्लाम की नहीं की जा रही है जो एक आस्था है, बल्कि बात सियासी इस्लाम के बारे में की जा रही है, जहां आस्था मुल्क का मज़हब है और वह एक राष्ट्र को परिभाषित करती है और/ या उसके ज्यादातर अनिर्वाचित नेताओं को सत्ता में बनाए रखती है और उसकी रणनीतिक प्रतिक्रियाओं को निर्धारित करती है.

भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया और दूसरे कई देशों के मुस्लिम समुदाय और उसके नेता इनमें शामिल नहीं हैं. सऊदी अरब, यूएई, कतर और खाड़ी के देश, ईरान, पाकिस्तान, तुर्किए और एशिया, अफ्रीका के कई देश ऐसे हैं जो सियासी इस्लाम की उस मजबूत दुनिया में शामिल हैं जिनकी हम यहां चर्चा कर रहे हैं.

इनके अलावा कई ऐसे किरदार हैं जो किसी देश के नागरिक नहीं हैं. उनमें से हूती और हिज़्बुल्लाह जैसे कुछ गिरोह हैं जो असली मुल्कों के हथियारिन के मुकाबले ज्यादा बड़े अस्लहे का दिखावा करते हैं.

वास्तव में ये दोनों गिरोह हथियारबंद हाथों, मिसाइलों, ड्रोनों, और टैंकों के (हूतियों के पास) मामले में कई यूरोपीय देशों से भी बड़े हैं. अल-कायदा और आईएस, पाकिस्तान के ज़्यादातर सुन्नियों (सभी धाराओं, सलाफी, बरेलवी, देवबंदी), लश्करों और जैशों आदि, साथ में ईरान के सबसे ताज़ा निशाने पर आए जैश-अल-आदी जैसे गिरोहों के घातक टुकड़ों को भी इनमें जोड़ लें.

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मुल्कों के और मुल्क विहीन किरदारों के इस व्यापक समूह को, जिन्हें इस्लाम के नाम पर शासित किया जाता है और जो मुल्कों की सीमाओं से पार जाकर भी अपना असर रखता है, हम सियासी इस्लाम की दुनिया के रूप में परिभाषित करते हैं.


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इस ताकत ने आज पूरी दुनिया को जिस तरह चुनौती दी है और उसे अस्थिर किया है वैसा इतिहास में अब तक नहीं हुआ था. 1973 की योम किप्पुर लड़ाई के बाद तेल संकट हुआ, खाड़ी में दो लड़ाइयां हुईं, 9/11 कांड, अल-कायदा, आईएस और कई इंतिफादा हुए. इनमें से हर एक अपने भौगोलिक, रणनीतिक दायरे में सीमित रहा, और इस कारण हिंसा भी सीमित रही, लेकिन आज जो उथल-पुथल हो रही है वो विश्वव्यापी है.

प्रतिबंधों से प्रभावित ईरान जिस तरह एक क्षेत्रीय और कट्टरपंथी ताकत के रूप में उभरा है वह मुख्य रूप से गौर करने वाली बात है. उसका प्रभाव क्षेत्र अब मध्य-पूर्व से भी आगे फैल रहा है. रूस अपने ड्रोनों, गोला-बारूद, सस्ती मिसाइलों को बाहर भेजने के लिए उसकी मान-मनौवल करता है. हमास, हिज़्बुल्लाह, हूती उसके भाड़े के सैनिक हैं जो मुल्कनुमा ताकत रखते हैं.

ईरान का सितारा मुख्यतः इसलिए बुलंद हो रहा है कि सियासी इस्लाम की यह दुनिया दशकों से नेता और सत्ता विहीन रही है. 9/11 के हमले अल-कायदा और आईएस ने इसे कमज़ोर किया क्योंकि इन्होंने अमेरिका को सैन्य कार्रवाई करने का रणनीतिक और नैतिक आधार दे दिया.

अल-कायदा और आईएस, दोनों ने अपनी बुलंदी के दौर में इस नेतृत्व को हासिल करने की कोशिश की मगर नाकाम रहे. ‘अरब स्प्रिंग’ (अरब क्रांति) का पश्चिमी ताकतों और उदारवादी खेमों ने शुरू में स्वागत किया और यह क्रांति इसी तूफान के बीच मजबूत हुई.

तानाशाही से निर्वाचित लोकतंत्र की ओर बढ़ने का विचार बेहद आकर्षक था. मगर मुस्लिम भाईचारा या इस जैसी चीज़ एक के बाद दूसरे मुल्क में निर्वाचित होने लगी तो पश्चिम का उदारवादी उत्साह काफूर हो गया. इसका नतीजा यह हुआ कि तानाशाही की वापसी का ‘इस्तकबाल’ किया गया; मिस्र और लगभग ट्यूनिशिया में पुराना दौर लौट आया, सीरिया और लीबिया में खंडित राष्ट्र-राज्य स्थापित हुआ और यूरोप में शरण लेने वालों की बाढ़ आ गई.

इसी के समानांतर अफ्रीका में भी ऐसी काफी अस्थिरता फैली, लेकिन पश्चिमी ताकत इतनी थक चुकी थी कि बराक ओबामा कज़्ज़ाफी को खत्म करवाने, लीबिया को तोड़ने और कई ऐसी मुहिमों के बाद नेपथ्य से नेतृत्व करने की बात करने लगे थे.

इस सबने राष्ट्रीय, रणनीतिक और नैतिक सत्ता के मामले में एक बड़ा शून्य पैदा कर दिया. ईरान ने इस शून्य में कदम रख दिया. उसके नागरिकता विहीन भाड़े के सैनिक सियासी इस्लाम के इस समूह के ज़्यादातर मुल्कों की सेनाओं से भी बड़े हैं.

हम सब 1960 वाले दशक में फिलिस्तीन के पक्ष में दिए गए नारे ‘नदी से समुद्र तक’ से परिचित हैं. यह नारा फिलिस्तीनीयों में जोश पैदा करता है, तो इज़रायलियों को गुस्से से भर देता है. आज की भू-राजनीति के हिसाब से यह नारा कुछ इस तरह का हो सकता है — ‘भूमध् यसागर से लाल सागर होते हुए अरब सागर तक’… आदि.

आज की ठोस हकीकत यह है कि अमेरिका के नेतृत्व में तमाम पश्चिमी देश, भारत समेत तमाम मित्र देशों के अलग-अलग तरह के समर्थन के बावजूद अपने सबसे महत्वपूर्ण समुद्र मार्गों को मुक्त नहीं रख पा रहे हैं. यह तब है जबकि वे इंडो-पैसिफिक और दक्षिण चीन सागर को मुक्त रखने का दिखावा कर रहे हैं. इन विविध मगर एकजुट इस्लामी चुनौतियों की मजबूती ने बड़ी ताकतों की सेनाओं की सीमाओं को उजागर कर दिया है.

दूसरी ताकतें भी उभर रही हैं. उनमें कतर प्रमुख है, जो हमेशा से ‘ढुलमुल’ मुल्क रहा है और इसे या उसे समर्थन देने का दिखावा करता रहा है मगर मुख्यतः अपने मतलब से काम करता रहा है. यह उल्लेखनीय इसलिए है कि यह अमेरिका के लिए ही नहीं बल्कि ईरान, हमास, और इसके साथ इज़रायलियों के लिए भी अपरिहार्य है. मिस्र के नेता सीसी ने भी नया तीर खोज लिया है, जिन्होंने आला अमेरिकी राजनयिकों को इंतज़ार करवा दिया (क्योंकि उनके बिना गाज़ा से आगे जाने वाला रफाह क्रॉसिंग खुल नहीं सकता) और अपनी परिभाषा वाला चुनाव जीत गए जबकि अमेरिका कोई शिकायत नहीं कर पाया.

यह सब मिलकर इतनी बड़ी चुनौती बन जाती है जितनी बड़ी चुनौती का सामना पश्चिमी ताकतों ने शीतयुद्ध वाले दौर के बाद से अब तक नहीं किया था.


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तब हम यह जवाबी तर्क कैसे गढ़ सकते हैं कि सियासी इस्लाम की यह दुनिया अपनी सबसे कमज़ोर हालत में है? पहली बात यह है कि ये लड़ाइयां और ये उथल-पुथल चाहे जितनी लंबी चलें, इन्हें खत्म होना ही है और ‘इस्लामी’ समूह की जीत नहीं होने वाली. इसके पास विध्वंसक हथियार भले हों, उसमें जीत हासिल करने वाली एकजुटता नहीं है. ईरान और उसके भाड़े के सैनिकों की जीत की संभावना खारिज हो जाती है, तब इस इस्लामी दुनिया में केवल खाड़ी के देश और तुर्किए बच जाते हैं वे पहले के मुकाबले कमज़ोर हुए हैं और उनमें यह तय करने की क्षमता नहीं है कि वे गाज़ा के सवाल पर किसका साथ दें इसलिए वे अमेरिकी प्यादे की तरह हमला कर बैठते हैं.

एर्दोगन ने तुर्किए को एशिया से ज्यादा पूर्वी यूरोप में ‘मेगा कतर’ की तरह सौदा करने और तोड़ने वाले की तरह प्रस्तुत कर दिया है जबकि उसके पास न तेल है और न गैस. अब वे भारतीय उप-महादेश में अपना प्रभाव फैलाने की कोशिश में हैं, जिससे उनकी महत्वाकांक्षाओं की सीमा स्पष्ट हो जाती है.

इसलिए, इस दुनिया में वास्तव में न जीती जाने वाली लड़ाई इसके ही अपने दो इस्लामी मुल्कों के बीच है. ईरान-पाकिस्तान के बीच की यह आतिशबाज़ी केवल सबसे ताज़ा तमाशा है.

ज़िया-उल-हक के बाद जम्हूरियत ने आधुनिक और पढ़े-लिखे छोटे-से कुलीन वर्ग वाले पाकिस्तान को इस्लामीकरण से अलग होने का और खुद को इंडोनेशिया की तरह नया रूप देने या बांग्लादेश से सबक सीखने का मौका दिया था, लेकिन इसने खुद को एक अनूठा कीमिया बना डाला, जो मूलतः इस्लामी मुल्क वाला है. वैश्विक दबदबा कायम करने की जो होड़ चल रही है उसमें इसे पराजितों में ही गिनिए.

और अंत में उस जमात की बात जिसके बारे में हम कम ही बात करते हैं. दुनिया भर के मुसलमानों में स्थायी शांति से जी रहे अधिकतर मुसलमान इस समूह के बाहर के मुल्कों के हैं — मलेशिया, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और भारत के. इनमें से पहले दो देश इस्लामी राष्ट्र हैं, लेकिन वे उग्रपंथी इस्लाम से परहेज करते हैं. इन देशों और ऐसे दूसरे देशों में कुल मिलाकर करीब एक अरब मुसलमान रहते हैं. मालदीव ने पूर्ण इस्लामीकरण करके इस जमात से खुद को अभी-अभी अलग कर लिया है.

इन देशों में आस्था का तुलनात्मक रूप से नगण्य राजनीतिकरण इनके लिए वरदान है. यही वजह है कि यह एक अविश्वसनीय विरोधाभास ही लगता है कि अमेरिका जबकि मिस्र के मामले में पलक तक नहीं झपकाता, खाड़ी के तानशाहों को पसंद करता है और पाकिस्तान में चुनाव को अपनी तरह से तोड़ने-मरोड़ने वाली फौज को शाबाशी देता है, मगर जिस एक चीज़ से उसके पेट में दर्द होने लगता है वह है बांग्लादेश में हुआ दोषपूर्ण चुनाव, जबकि 90 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस मुल्क ने खुद को इस्लामी गणतंत्र नहीं घोषित किया है.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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