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बदहाल शहरों की कीमत क्या अब मूंगे के पहाड़ों को चुकानी पड़ेगी?

भारत के बड़े शहर बदहाल हो रहे हैं, वे विशाल झोंपड़पट्टियों में तब्दील होते जा रहे हैं, और जब उन्हें सुधारने की कोशिश की जाती है तो ‘कोरल’ यानी मूँगे की चट्टानें आड़े आने लगती हैं जैसा कि मुंबई में हुआ.

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सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

हमारे शहर सर्वग्रासी हैं. अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के सबसे प्रदूषित 20 में से 15 शहर भारत में हैं. जिस तेजी से हमारा शहरीकरण और हमारी बदहाली हो रही है उससे तो यही लगता है कि जल्दी ही 30 में से 25 सबसे प्रदूषित शहर हमारे यहां ही होंगे और यह संख्या बढ़ती ही जाएगी.

हमारे शहरों में ट्रैफिक रेंगती है. मुंबई में इसकी रफ्तार 8 किमी प्रति घंटा है, बेंगलुरू में तो और भी लस्त-पस्त है. मैं तो कहूंगा कि गूगल मैप का नाम ‘वाटरलू’ कर देना चाहिए. बेशक यह उसका अपना ‘वाटरलू’ होगा.

हैदराबाद का हाल थोड़ा बेहतर होगा. कोलकाता थोड़ा सुधर रहा होगा, जो कि इसके आर्थिक पतन की देन होगी. दिल्ली को मुंबई या बेंगलुरू बनने में थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन काम जारी है, खासकर अगर आप इसके दो ‘डाउनटाउन’ गुरुग्राम या नोएडा की ओर जा रहे हों तो यह समझ में आ जाएगा. इन विशाल महानगरों दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरू-हैदराबाद को मिला दें तो इनमें कुल 9 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं. समझने के लिए उदाहरण दिया जा सकता है कि फिलहाल जिस न्यूजीलैंड को नया उदारवादी स्वर्गलोक माना जा रहा है, जिसने जैसिंडा आर्डेन और केन विलियमसन सरीखी हस्तियां दी हैं, उस चमत्कारी देश की आबादी का यह 20 गुना और लक्ज़मबर्ग की आबादी का 150 गुना है.


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मैं यूरोप के इस छोटे-से नगीने का नाम क्यों ले रहा हूं, यह जल्दी ही बताऊंगा. फिलहाल इतना कहना काफी है कि भारत के तेजी से फैलते शहरों में मानवता का समुद्र समाया हुआ है. मैं मैकिनसे इंस्टीट्यूट समेत कई संस्थाओं के अध्ययनों की रिपोर्ट को उदधृत कर सकता हूं लेकिन अब कोई भी इस बात का खंडन नहीं करता कि अगले पांच वर्षों में— जी हां, सिर्फ पांच वर्षों में— भारत के शहरों में अमेरिका की पूरी आबादी के बराबर आबादी रह रही होगी.
मुंबई की 60 से 80 फीसदी आबादी झोपड़पट्टियों (स्लमों) या स्लम जैसी जगहों में रहती है. उदारवादी लेखन के लिए ये ‘गरीब, बदहाल मगर प्यारे और दया के पात्र’ फिल्मों के शानदार सेट अथवा कहानी के बढ़िया प्लॉट जरूर नज़र आते हैं. लेकिन यहां जरा न्यूजीलैंड के बारे में फिर से सोचिए. हमारी जो कॉमर्शियल राजधानी है वह इस देश की आबादी की ढाई गुना आबादी को अपने यहां ऐसे हालात में रख रही है जिन्हें मनुष्य के रहने के काबिल नहीं माना जा सकता. कोलकाता का हाल इससे कोई बेहतर नहीं है, और बेंगलुरू इस दिशा में तेजी से बढ़ रहा है. भारत का कोई भी शहर, चाहे वह सरकार नियोजित कल्पनालोक चंडीगढ़ क्यों न हो, स्लम से मुक्त नहीं है.

मुंबई में जो स्लम है, वह दिल्ली में अनधिकृत या अवैध कॉलोनी है. इनमें जीवन मुंबई के स्लम के जीवन जैसा हीन भले न हो मगर उससे बेहतर भी नहीं है. जो भी हो, केन विलियमसन के देश की आबादी की दोगुना आबादी हमारी राष्ट्रीय राजधानी में ‘अवैध’ के तौर पर रह रही है. हमारे सरकारी अस्पताल, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कॉलेज, सब सड़ रहे हैं, सबमें भीड़भाड़ है, और उनका स्तर उप-सहारा अफ्रीका में इनके स्तर के बराबर है. इन कॉलेजों में दाखिले के लिए हार्वर्ड वाले नंबर चाहिए. जरा दिल्ली के आला ‘पब्लिक’ कॉलेजों की कट-ऑफ लिस्ट देख लीजिए.

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सवाल उठ सकता है कि अगर हमारे शहर इतने खराब हाल में हैं तो फिर लाखों लोग अपने बेहतर गांवों को छोड़कर शहरों की ओर क्यों भाग रहे हैं? क्योंकि गांव भी बदहाल हैं. हवा को छोड़ दें तो वहां की बाकी सभी चीज़ें शहरों से भी बदतर हैं.

भारत दुनिया की पांचवीं या तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भले बन गया हो, शहरों के प्रति हमारी सोच अभी भी इस गांधीवादी आंबेडबर से प्रभावित है कि शहर बुरे होते हैं, गांव पवित्र होते हैं. हम किसी संदर्भ में पढ़ चुके हैं कि गांधी ने जब यह कहा था कि भारत तो गांवों में बसता है तो आंबेडकर ने उनसे पूछा था कि क्या भारत को हमेशा के लिए गांवों में ही बसे रहना चाहिए? केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक ग्रामीण विकास मंत्रालय भी होता आया है. लेकिन आज़ादी के करीब पांच दशक बाद तक शहरी विकास का कोई पूर्ण मंत्रालय नहीं था. कोई ‘वर्क्स ऐंड हाउसिंग’ जैसा विभाग होता था. ‘भारत गांवों में बसता है’ वाला रूमानी खयाल अभी भी कायम है. इसका बुरा नतीजा भारतीय शहरों और उनके गरीब निवासियों को भुगतना पड़ा है, जबकि गांवों को कोई फायदा नहीं मिला है, वरना करोड़ों लोग गांवों से पलायन नहीं करते.

यहां तक कि राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के कार्यकाल में भी इस पुरातन खयाल को ‘पुरा’ (गांवों में शहरी सुविधाएं पहुंचाना) नामक विचार से मजबूती दी गई. उनके इस ‘पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन’ पर सामने में तो सबने तालियां बजाईं मगर किनारे हट कर शंकाएं प्रकट करने लगे थे.

सबसे पहली बात यह है कि भारतीय गांव में शहरी स्तर का बुनियादी ढांचा बनाने की अर्थव्यवस्था नहीं है. विशेष बात यह है कि राजनीतिक तबका गांव के लोगों से पानी, बिजली या दूसरी सुविधाओं के लिए शुल्क तय करने को राजी नहीं है. और, जब हमारे शहरों का ही हाल बुरा है तब भला किन शहरी सुविधाओं की बात की जा रही थी? इस सोच ने गहरा और दूरगामी नुकसान पहुंचाया. चूंकि हम शहरों को बुरा और गांवों को अच्छा बताते हैं इसलिए भारतीय शहरों की कोई योजना नहीं बनाई जाती. वे अपनेआप जन्म लेते हैं, विशाल आकार ले लेते हैं और स्वयंभू स्लम बन जाते हैं, जिनमें ‘सिस्टम’ को मनमर्जी चलाने वाले बिल्डरों, ‘दुस्साहसी’ रियल एस्टेट उद्यमियों और माफिया के बनाए ‘द्वीप’ जगह-जगह उभर आते हैं. इसलिए हमारे शहर बुनियादी ढांचे के बिना बढ़ते जाते हैं.


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इस ढांचे का खयाल आम तौर पर तीन पीढ़ी के बाद आता है. तब लाखों लोगों के लिए पानी, सड़क, बिजली, रेल, मेट्रो की जरूरत पड़ने लगती है. तब जमीन के अंदर जगह बनाई जाती है, आसमान को घेरा जाता है, समुद्र को बांधा जाता है. फिर भी लाखों कारों-बाइकों को पार्किंग के लिए फुटपाथों और सार्वजनिक स्थानों को घेरना पड़ता है. कहीं-कहीं तो पूरी सड़क ही घेर ली जाती है. इसका नुकसान सिर्फ गरीबों को ही नहीं झेलना पड़ता. मिसाल चाहिए तो जरा मुंबई की फ़ैन्सी वर्ली-पार्ले विकास पर नज़र डाल लीजिए.

पिछले दो दशकों में खासकर पुरानी कपड़ा मिलों की जमीन पर ढेरों फ़ैन्सी अपार्टमेंट और बिजनेस टावर खड़े कर दिए गए हैं. सबने पानी से लेकर पार्किंग और सुरक्षा तक तमाम बुनियादी सुविधाएं खुद बना ली हैं. ये सब आसपास की उन पुरानी गरीब बस्तियों के बीच बन गई हैं, जिनमें वैसी आरामदेह सुविधाएं नहीं हैं. इससे पड़ोस में विषमता का माहौल बना है, जो कि केवल आर्थिक विषमता का ही नहीं है; जबकि सरकार और शहर को अपने सभी निवासियों के लिए समान तरह की व्यवस्था करनी चाहिए.

या आप गुरुग्राम की आलीशान इमारतों में चले जाइए. ये सब अपने विशाल सेप्टिक टैंकों, डीजल के भंडारों के ऊपर तैर रही हैं. इसकी पहली वजह यह है कि किसी ने भारत में आर्थिक सुधारों के बाद उभरे विकसित इलाकों के लिए सीवर बिछाने की जहमत नहीं उठाई, और दूसरी वजह यह है कि सरकारी व्यवस्थाओं पर किसी को भरोसा नहीं है. क्या आप जानना चाहते हैं कि यह सब कितना बेतुका है?

आपको कुछ साल पहले मारुति कारखाने में हुए श्रमिक आंदोलन की याद तो होगी ही. तब मजदूर संघों और कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने कई कामगारों को मार डाला है और उनके शवों को गटर और सीवरों में फेंक दिया है. तब मुख्यमंत्री ने बड़े भरोसे से बयान दिया था कि यह आरोप झूठा है क्योंकि गुड़गांव में कभी सीवर डाली ही नहीं गई.

इस सप्ताह के इस स्तम्भ के लिए उकसावा बॉम्बे हाईकोर्ट के इस आदेश ने दिया, जिसने लंबे समय से अटकी मुंबई की कोस्टल रोड प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी है. मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंदरजोग और न्यायाधीश एन.एम. जामदार द्वारा लिखा 219 पेज का यह आदेश इतना बढ़िया और सरल तरीके से लिखा गया है कि ऐसा आदेश मैंने अरसे बाद पढ़ा. जजों ने बड़ी बुद्धिमत्ता से कहा है कि पर्यावरण और विकास में कोई टकराव नहीं है लेकिन संतुलन बनाने और कानून का पालन करने की जरूरत है. उन्होंने प्रोजेक्ट को व्यावहारिकता या पर्यावरण के लिहाज से नहीं बल्कि तकनीकी कारणों से खारिज किया है.

उनका कहना है कि प्रोजेक्ट को सड़क के नाम पर मंजूरी दी गई थी. लेकिन इसके लिए समुद्र के 90 हेक्टेअर (फुटबॉल के 40 मैदानों के बराबर) क्षेत्र को भी हथियाया जाएगा. इसलिए यह एक बिल्डिंग प्रोजेक्ट है, भले ही कब्जे में लिये गए क्षेत्र पर पार्क, साइकिल और जॉगिंग के ट्रैक और बस की पार्किंग की जगह बनाई जाएगी. इसलिए सरकार फिर से इसे शहर विकास प्रोजेक्ट के तौर पर मंजूर करवाए. अब आप सामाजिक कार्यकर्ताओं की खुशी पर नाराज भले हों, वे जीत गए हैं. कोर्ट के फैसले को ध्यान से पढ़ें तो आपको रोना आएगा. मैं इसके लिए कानून को दोषी नहीं ठहराऊंगा. मैं केवल एक बात सामने लाना चाहता हूं कि प्रोजेक्ट को वन्यजीव से जुड़ी मंजूरी भी लेनी होगी.

अर्जी देने वालों ने कहा कि इस प्रोजेक्ट के कारण समुद्र तट पर स्थित मूंगे की चट्टानें (कोरल) नष्ट होंगी. कोर्ट में ऐसी अध्ययन रिपोर्ट पेश की गई है कि हाजी आली और वर्ली में समुद्र में मूंगे की चट्टानें पाई गई हैं— क्रमशः 0.251 और 0.11 वर्गमीटर की. यानी कुल चार वर्गमीटर की. ‘खूबसूरत कोरल’ बनाम ‘बदसूरत मनुष्य’ की बहस में कूदने के खतरों से मैं वाकिफ हूं, लेकिन यह क्या बला है!


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हकीकत यह है कि प्रोजेक्ट लागू होगी. बस यही होगा कि इसमें एक साल की देरी होगी या हज़ार करोड़ का खर्च बढ़ जाएगा. मैं कह नहीं सकता कि कोरल बचेंगे या नहीं, हालांकि मुझे इसकी उम्मीद है. क्योंकि झोपड़पट्टियों और चालों में रहने वाले लोग इंतज़ार कर सकते हैं. तब तक सामाजिक कार्यकर्ता जीत की खुशी मना सकते हैं.

यह बादलों में बने ‘कोरल कल्पनालोक’ में रहने जैसा है. या याद कीजिए कि दिल्ली में मेट्रो और बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा देने के पक्ष में क्या-क्या तर्क दिए गए, कि लक्जमबर्ग में ऐसा किया गया है. हकीकत यह है कि लक्जमबर्ग की आबादी दिल्ली की आबादी की मात्र 3 प्रतिशत यानी 5 लाख है और उसकी प्रति व्यक्ति आय 1.1 लाख डॉलर है यानी भारत में इस आय की पांच गुना. जब तक ‘हमारा लक्जमबर्ग’ और ‘कोरल के चार फुट तो 2 करोड़ लोगों से बेहतर हैं’ जैसी कपोल कल्पनाएं कायम रहेंगी, हमारे शहर सड़ते रहेंगे. और लाखों लोग उनसे भी ज्यादा सड़े गांवों से भाग कर इनमें आते रहेंगे.

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