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राष्ट्रीय शिक्षा नीति मसौदा पुरातनपंथी नहीं पर शक है कि इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा

इस दस्तावेज के सुझावों को देखें तो पिछले पांच वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार इसके विपरीत दिशा में चली है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर | मनीषा मोंडल, दिप्रिंट

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2019) का मसौदा मैंने पढ़ना शुरू किया तब मन में शंका थी. ये दस्तावेज तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावेड़कर के आदेश पर तैयार हुआ है. स्मृति ईरानी के आदेश पर एक मसौदा इससे पहले भी तैयार हुआ था लेकिन मंत्रालय ने उसे खारिज कर दिया था. मसौदे को तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष कोई शिक्षाविद नहीं बल्कि अंतरिक्ष-विज्ञानी के. कस्तूरीरंगन हैं. शिक्षा नीति के बाबत जानकारी के लिए मैं जिन ख्यातनाम विद्वानों का लिखा-बोला देखते-सुनते आया हूं, उनमें से कोई भी इस समिति में शामिल नहीं था. और, फिर 2018 के दिसंबर में रिपोर्ट के सौंपे जाने के बाद से उसे जिसे तरह ढंक-छिपाकर रखा गया था, उससे भी मेरे मन में शंका उठ रही थी.

मेरे मन में चार बड़े डर थे. एक डर ये था कि बीजेपी के शासन में शिक्षा नीति भगवाकरण के अजेंडे का ही एक प्रतिबिम्ब होगी, लग रहा था कि शिक्षानीति हिन्दूकरण और सांप्रदायिक सोच में दीक्षित करने की वैसी ही बेबाक कोशिश साबित होगी जिसकी बानगी हमें दीनानाथ बत्रा सरीखों की बातों से मिलती रही है. दूसरे, मन में ये डर भी समाया था कि सरकार कहीं शिक्षा के क्षेत्र से अपने हाथ एकदम ही न खींच ले, कहीं निजीकरण के नाम पर हर जगह घटिया दर्जे की शिक्षा की दुकानें खोलने-चलाने का रास्ता न खुल जाये. तीसरा डर था कि कहीं शिक्षा-नीति, शिक्षा के वृहत्तर लक्ष्यों की अनदेखी करते हुए तकनीकशाही वाला संकीर्ण और उपयोगितावादी नजरिया न अपना ले. और मन में चौथा डर ये समाया था कि हो सकता है कि शिक्षा नीति में शिक्षा विषयक समतामूलक सोच की अनदेखी हो, मुस्लिम और अन्य वंचित वर्ग शिक्षा के मामले में फिलहाल जिस घाटे की हालत में है, उस पर शिक्षा नीति के दस्तावेज में ध्यान न दिया जाय.


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लेकिन चार सौ सतहत्तर पन्ने के दस्तावेज को पढ़ने के बाद मुझे अचरज भरी खुशी हुई कि मेरे मन में समाया कोई भी डर सच न निकला. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे (डीएनईपी) से निकलती पहली अच्छी खबर तो यही है कि ये दस्तावेज पुरानतनपंथी सोच की टेक पर बना कोई षड़यंत्रकारी ‘व्याकरण’ नहीं है. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा पहले के दो शिक्षा नीति विषयक रिपोर्ट, उच्च शिक्षा पर बनी यशपाल समिति की रिपोर्ट, शिक्षकों की शिक्षा पर केंद्रित जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या फ्रेमवर्क और नेशनल अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन पॉलिसी, 2013 को बुनियाद बनाते हुए तैयार किया गया है. ये अलग बात है कि मसौदे में इस तथ्य को स्वीकार करने में संकोच से काम लिया गया है.

मसौदे में शायद ही कहीं ऐसी कोई बात दर्ज हो जिसे ‘भगवाकरण’ का नाम दिया जा सके. बेशक, मसौदे में जहां संवैधानिक मूल्यों की बात कही गई है वहां ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द के प्रयोग से बचा गया है (इसकी जगह ‘विविधता’ शब्द के प्रयोग को वरीयता दी गई है) और जगह-जगह नालंदा और तक्षशिला जैसे शब्दों का प्रयोग किसी कर्मकांड की तरह किया गया है. लेकिन बात बस इतने तक सीमित रह गई है. मुझे तो यह भी लगा कि शिक्षा के भारतीयकरण सरीखे विषय पर मसौदे में कोई गंभीर सोच-विचार नहीं है और ये देखकर निराशा भी हुई.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में शिक्षा के अधिकार कानून का दायरा अभी के 6-14 वर्ष के बच्चों से बढ़ाकर 3-18 साल के आयु-वर्ग तक करने की बात कही गई है. मसौदे में एक योजना का खाका खींचा गया है कि शिक्षा पर हो रहे सरकारी खर्चे को बढ़ाकर दोगुना कर दिया जाय. साथ ही राषट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में शिक्षा को ‘बाजारू’ उत्पाद न मानने की पुरजोर गुजारिश की गई है.

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मसौदे में बहु-आनुशासनिक संस्थानों में ‘उदारवादी शिक्षा’ की पैरोकारी है और मुख्यधारा की शिक्षा से व्यावसायिक शिक्षा को जोड़ने की भी बात कही गई है जो कि अपने आप में शिक्षा को लेकर प्रचलित तकनीकशाही वाले दृष्टिकोण का एक प्रतिकार है.

और इस सिलसिले की आखिर की एक बात यह कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में एक पूरा अध्याय शिक्षा के मामले में घाटे की स्थिति में चल रहे वर्गों जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, दिव्यांग, मुस्लिम तथा महिला पर केंद्रित है और सुझाव दिया गया है कि जहां इन वर्गों की घनी आबादी है वहां स्पेशल एजुकेशन जोन (विशेष शिक्षा-क्षेत्र) बनाए जाएं.

दूसरी अच्छी खबर ये है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा का मसौदा अहानिकर होने के साथ-साथ स्कूली और उच्च शिक्षा की चुनौतियों को समझने का एक महत्वपूर्ण फ्रेमवर्क मुहैया कराता है. इस मामले में मसौदे के तमाम नुक्तों से मेरी सहमति हो, ऐसी बात नहीं लेकिन मसौदा इस मामले में हाल-फिलहाल का सबसे व्यापक दस्तावेज माना जाएगा जिसमें शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर मौजूद चुनौतियों की पहचान की गई है और उनसे निपटने के दमदार सुझाव दिये गये हैं. इस मायने में दस्तावेज ठीक वही काम करता है जैसा कि किसी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को करना चाहिए.

मिसाल के लिए स्कूली शिक्षा को ही लीजिए. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दस्तावेज में इस बात की पहचान की गई है कि शुरुआती बाल्यावस्था की शिक्षा देश में कई जगहों पर एक तो सिरे से नदारद है और जिन जगहों पर है भी वहां गुणवत्ता के मामले में खस्ताहाली की शिकार है. दस्तावेज में इस बात को चिह्नित किया गया है कि स्कूली शिक्षा की सबसे कमजोर कड़ी यही है. दस्तावेज में आंगनबाड़ियों को प्राथमिक स्कूलों से जोड़ने की एक व्यापक योजना सुझाई गई है. इसका लक्ष्य 2025 तक सार्विक स्तर पर बुनियादी स्तर की साक्षरता तथा अंकगणितीय योग्यता को हासिल करना है.

दस्तावेज में कुछ नवाचारी कार्यक्रम सुझाये गये हैं, जैसे वरिष्ठ छात्र को सह-शिक्षक बनाना, समुदाय स्तर पर काम करने वाले स्वयंसेवकों को स्कूली शिक्षा के काम-धाम में शामिल करना. इस मोर्चे पर विशेष बल महिला स्वयंसेवकों को जोड़ने पर दिया गया है और ऐसा करने का मकसद है साक्षरता और गणित करने की काबिलियत हासिल करने में जो बच्चे पीछे हैं, उनकी जरूरी मदद करना. दस्तावेज में कहा गया है कि पैरा-टीचर या अतिथि शिक्षक के जरिये काम न चलाकर शिक्षक पद की सारी रिक्तियों पर नियमित नियुक्ति हो और सभी शिक्षकों का चार वर्षीय बी.एड पाठ्यक्रम पूरा करना अनिवार्य बनाया जाये.


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शुरुआती बाल्यावस्था की शिक्षा पर जोर देने के कारण मौजूदा शिक्षण-प्रणाली में बदलाव लाजिमी है. फिलहाल स्कूली शिक्षण का ढांचा 5 (प्राथमिक)+3 (माध्यमिक)+2 (उच्च माध्यमिक)+ 2 (उच्चतर माध्यमिक) का है. शुरुआती बाल्यावस्था को शिक्षा के अधिकार से जोड़ देने के कारण नया ढांचा 4(समेकित शुरुआती बाल्यावस्था तथा लोअर प्रायमरी)+3(प्राथमिक)+3(माध्यमिक)+4(उच्च माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक समेकित) का हो गया है. इस ढांचे को खड़ा करने के लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में सुझाव दिया गया है कि स्कूलों का एक परिसर (स्कूल कॉम्पलेक्स) बनाया जाय जिसमें किसी उच्चतर माध्यमिक स्कूल (हायर सेकेंडरी स्कूल) के इर्द-गिर्द विभिन्न स्कूलों का समूह हो. ऐसा होने से स्कूली परिसर के भीतर स्कूली गतिविधियों का समेकन हो सकेगा और साझे के संसाधनों का उपयोग भी संभव होगा. स्कूली परिसर के गठन के साथ ही साथ पाठ्यचर्या में बदलाव की बात करते हुए पाठ्यक्रम को कला/विज्ञान, कुरिकुलर/एक्स्ट्रा कुरिकुलर, व्यावसायिक/अकादमिक सरीखे परम्परागत दायरे में लचीला रखने का सुझाव दिया गया है ताकि विद्यार्थी के पास अपनी पसंद के हिसाब से चुनने का विकल्प रहे. इसी शिक्षाशास्त्रीय समझ से मसौदे में कहा गया है कि मातृभाषा को शिक्षण की माध्यम-भाषा बनाया जाय, साथ ही छात्रों को अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं को सीखने के लिए उत्साहित किया जाये.

उच्च शिक्षा के मामले में भी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में मुख्य समस्याओं की पहचान बड़ी कुशलता से की गई है: उच्च शिक्षा विभंजित (फ्रैगमेंटेशन) है, उच्च शिक्षा के भीतर दायराबंदी भी बहुत ज्यादा है, वंचित वर्गों के बीच उच्च शिक्षा की पहुंच बहुत कम है, सक्षम शिक्षकों और प्रशासकों का अभाव है, सांस्थानिक स्वायत्तता की कमी है, गुणवत्ता पूर्ण शोध पर जोर न के बराबर है, उच्च शिक्षा में प्रशासनिक मोर्चे पर काम-धाम और नियमन बड़ा लचर है. मसौदे में एकरेखीय संस्थानों की जगह बहु-आनुशासनिक विश्वविद्यालय और कालेज बनाने पर जोर दिया गया है. सुधार के ऐसे कदम की बहुत ज्यादा जरूरत है. मसौदे में स्नातक स्तर की शिक्षा में समाज विज्ञान, मानविकी और कला के विषयों को एक साथ पढ़ाने की बात कही गई है जो नीति-निर्माताओं के बीच प्रचलित सोच की लीक से अलग हटकर सोचने-देखने की एक सराहनीय मिसाल है. मसौदे में नियमन के मोर्चे पर ‘हल्का मगर दृढ़’ रवैया अपनाने की बात कही गई है. अगर हम इस सोच को साकार कर पाए तो यह एक सराहनीय कदम होगा.

शिक्षा से जुड़े गवर्नेंस के मोर्चे पर मसौदे में नये सिरे से सोच-विचार करने की कोशिश दिखती है. मसौदे में प्रस्ताव है कि एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बने जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हों. आलोचकों ने मुख्य रूप से इसी प्रस्ताव पर अपनी नजर टिकायी है. बेशक इस प्रस्ताव से शिक्षा के मामले में राज्यों की स्वायत्तता को लेकर कुछ चिन्ताएं जगती हैं. अच्छा होगा कि राष्ट्रीय शिक्षा आयोग को जीएसटी परिषद के ढर्रे पर बनाया जाय और परिषद में हर राज्य के शिक्षा मंत्री शामिल किये जाएं.

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में ज्यादा दिलचस्प सुझाव राष्ट्रीय शिक्षा आयोग से नीचे के स्तर से संबंधित हैं. मसौदे में स्कूली शिक्षा निदेशालय के एकाधिकार पर लगाम कसने की बात कही गई है- स्कूलों को चलाने में निदेशालय की भूमिका को सीमित करते हुए नियमन से संबंधित कामकाज राज्यों के विद्यालय नियमन प्राधिकरण (स्टेट स्कूल रेग्युलेटरी ऑथॉरिटी) को सौंपने की बात कही गई है.

उच्च शिक्षा के गवर्नेंस के मोर्चे पर भी बुनियादी स्तर के फेर-बदल की बात मसौदे में आयी है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अब उच्च शिक्षा अनुदान परिषद् का रूप लेगा और उसकी भूमिका अनुदान देने तक सीमित होगी. पाठ्यचर्या निर्माण तथा प्रतिमानों के निर्धारण का काम नई और स्वायत्त संस्थाएं करेंगी. नियमन का दायित्व राष्ट्रीय उच्च शिक्षा नियमन प्राधिकरण को सौंपा जायेगा. एक नेशनल रिसर्च फाउंडेशन होगा जो विभिन्न धाराओं और अनुशासनों में गुणवत्तापूर्ण शोध-अनुसंधान के लिए फंड देगा.

इन प्रस्तावों पर गंभीर राष्ट्रीय बहस की जरूरत है. जहां तक मेरा सवाल है, मैं सरकारी स्कूलों के छात्रों से खाली होते जाने की समस्या पर मसौदे में ज्यादा गंभीरता से सोच-विचार होता देखना चाहूंगा. ठीक इसी तरह, मुझे ये भी लगता है कि मसौदे में राज्यों के विश्वविद्यालयों और संबद्ध कालेजों को पुनर्जीवन देने की सोच से एक व्यापक योजना सुझायी जानी चाहिए थी- उच्च शिक्षा के ज्यादातर विद्यार्थी इन्हीं शिक्षण-संस्थानों में पढ़ाई-लिखाई करते हैं.

मसौदे में यह तो स्वीकार किया गया है कि शिक्षा जैसी बुनियादी सेवा तक सभी वर्गों की पहुंच समान नहीं है लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए कोई कारगर उपाय नहीं सुझाया गया है. आरक्षण लागू करने के मसले पर मसौदे की चुप्पी बड़ा स्पष्ट नजर आती है. ठीक इसी तरह, जरूरत-आधारित शिक्षा का मॉडल देने के बाबत भी मसौदे में कुछ नहीं कहा गया.

अभी तक मसौदे के बारे में एक अधकचरी बहस त्रिभाषा फार्मूले पर हुई है और राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा इस बहस के बाद त्रिभाषा फार्मूले से अपने कदम पीछे खींच चुका है. इसके अतिरिक्त नीतिपरक इस मसौदे की किसी बात पर कोई खास बहस नहीं हुई है. अगर बहस हुई होती तो हमारे पास मसौदे को लेकर तीसरी अच्छी खबर भी होती कि हां, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे पर गुणवत्तापूर्ण चिन्तन-मनन का दौर भी चला है.

सबसे महत्वपूर्ण एक सवाल अभी बचा रह गया है. यह सवाल राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन का है कि आखिर दस्तावेज की बातें लागू कैसे और कब होंगी? इसके बाबत कोई जानकारी होती तो यह सबसे अच्छी खबर होती लेकिन अभी इस मोर्चे पर हमारे हाथ में इतना ही है कि हम इंतजार करें.


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इस नीतिगत दस्तावेज में जो सुझाव दिये गये हैं उनके एतबार से देखें तो पिछले पांच साल में मोदी सरकार ने एकदम उल्टी दिशा में कदम बढ़ाये हैं. सरकार ने शिक्षा के मोर्चे को कम प्राथमिकता दी है, बजट कम हुआ है और ध्यान घटा है. शिक्षा संस्थानों की जो भी बची-खुची स्वायत्ता थी, उसे इस सरकार ने खत्म करने की पुरजोर कोशिश की है. शिक्षण-संस्थानों में जहां भी उदारवादी सोच का दायरा बचा था उस पर लगाम कसने की कोशिश हुई है और प्रतिरोध के हल्के स्वरों को भी दंडित किया गया है. राजनेताओं ने प्रश्न पूछने के जज्बे को बढ़ावा देने की जगह अपनी अज्ञानता और कूढ़मगजी का ही मुजाहरा किया है.

जो लोग राष्ट्रीय शिक्षा नीति का क्रियान्वयन करेंगे क्या उनकी मानसिकता में यह मसौदा (डीएनईपी) कोई भारी बदलाव ला पायेगा? या, रिपोर्ट स्वीकार किये जाने के बाद भुला दी जायेगी और सब कुछ पहले की तरह अपने ढर्रे पर चलता रहेगा. या, स्थिति इससे भी बदतर होगी- सरकार अपनी सियासी प्राथमिकताओं के हिसाब से रिपोर्ट की चंद मनभावन बातों को चुन लेगी और अपने सुभीते से लागू करेगी?

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ असल मुश्किल ये नहीं कि उसका मसौदा बुरा है, असल मुश्किल तो ये है कि इस मसौदे की बातें उन लोगों के मिजाज के माफिक नहीं जिन्हें मसौदे के सुझावों को लागू करना है.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

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