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मुसलमान राजनीति और गैर-भाजपावाद की सीमाएं

सेक्युलरिज्म और कम्युनलिज्म का खेल सिर्फ बीजेपी नहीं खेल रही है. ये खेल सेक्युलर कहे जाने वाले दल भी खेल रहे हैं क्योंकि इसकी वजह से उन्हें एकमुश्त मुसलमान वोट मिल जाते हैं.

प्रतिनिधि छवि | पूर्वोत्तर दिल्ली में चांद बाग इलाके में स्थानीय लोग | फोटो: दिप्रिंटमनीषा मंडल | दिप्रिंट
प्रतिनिधि छवि | पूर्वोत्तर दिल्ली में चांद बाग इलाके में स्थानीय लोग | फोटो: दिप्रिंटमनीषा मंडल | दिप्रिंट

मुसलमान वोट भारत में सेक्युलर राजनीति की धुरी बन गया है. ये भारतीय राजनीति की एक बड़ी समस्या है. ये धुरी बीजेपी को हरा पाने या रोक पाने में बेअसर साबित हुई है. एकमुश्त मुसलमान वोट हासिल कर लेना बेशक बीजेपी को हरा पाने की गारंटी नहीं है. लेकिन इस बूते किसी पार्टी की राजनीति चलती रह सकती है. इस राजनीतिक समीकरण ने सेक्युलर दलों को आलसी भी बना दिया है. न तो वे मुसलमानों के लिए विकास की कोई उम्मीद जगा पा रहा हैं और न ही अपने वोटर्स का दायरा बढ़ाने की ही कोशिश कर रहे हैं.

इस एक बात ने भारतीय लोकतंत्र का भी सुर-ताल बिगाड़ दिया है.

यह बात निर्विवाद है कि भारत के 14.2 प्रतिशत मुसलमान अपने दम पर बीजेपी को सत्ता में आने से रोक नहीं सकते. भारत में मुसलमान आबादी बिखरी हुई है और लोकसभा की सिर्फ 15 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमान वोटर 50 प्रतिशत से ज्यादा है. यानी ये 15 सीटें ही ऐसी हैं, जिनमें मुसलमान सिर्फ अपने दम पर किसी को चुनाव जिता सकता है. बाकी 528 सीटों में वे तमाम और वोटिंग ब्लॉक की तरह एक और वोटिंग ब्लॉक हैं.

यह भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी है कि मतदाता अक्सर नागरिक या व्यक्ति की तरह नहीं, समूह के तौर पर वोट देते हैं. यह लोकतंत्र का कबीलियाईकरण है, जिसकी अपनी समस्याएं हैं, लेकिन फिलहाल ये भारतीय राजनीति का सच है.


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गैर-भाजपावाद की राजनीति के दौर में बढ़ी भाजपा

1992 में जब अयोध्या में बीजेपी नेताओं की उपस्थिति में बाबरी मस्जिद गिराई गई तो देश का वातावरण सांप्रदायिक रंग में ढल गया. इसके बाद जहां एक और हिंदू वोट पर बीजेपी की दावेदारी मजबूत हुई वहीं, मुसलमानों के बड़े हिस्से ने बीजेपी को हराने को अपना प्राथमिक चुनावी कार्यभार मान लिया. ऐसा होना स्वाभाविक ही था. इस क्रम में राजनीति ऐसी बन गई कि जहां जो भी दल या उम्मीदवार बीजेपी के उम्मीदवार को हराने में सक्षम दिखा, उसे मुसलमानों का वोट अपने आप मिलने लगा.

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इस वोटिंग पैटर्न के प्रमाण सीएसडीएस और लोकनीति समेत कई और संस्थाओं के सर्वेक्षणों में सामने आए हैं. हालांकि ये सर्वे पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं होते, लेकिन इस राजनीतिक प्रवृत्ति को लेकर सर्वे आम तौर पर स्वीकार्य माने गए हैं.

अब स्पष्ट है कि इस तरह की टेक्टिकल वोटिंग अपने उद्देश्यों को पूरा करने में नाकाम साबित हुई है. मिसाल के तौर पर, 2017 के यूपी के विधानसभा चुनावों में देखा गया कि बीजेपी कई सीटों पर 45 और कुछ जगहों पर तो 50 प्रतिशत या उससे ज्यादा वोट हासिल करके जीती जाहिर है कि ऐसी सीटों पर बीजेपी को हराने के लिए मुसलमान मतदाताओं की टेक्टिकल वोटिंग कतई कारगर नहीं है.

बीजेपी ने अपनी राजनीति हिंदू बनाम मुसलमान के द्वेत यानी बाइनरी में बुनी है और उसे इस बात की कतई परवाह नहीं है कि मुसलमान उसके बारे में क्या सोचते हैं. मुसलमान द्वेष से बीजेपी की राजनीति फलती-फूलती है और उसका “विराट हिंदू” इसी एक मुद्दे पर एकजुट होता है. हालांकि किसी भी लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों का हाशिए पर होना अच्छी बात नहीं है, लेकिन सत्ता की राजनीति की खुरदुरी जमीन पर इन शास्त्रीय बातों का कोई मतलब होता नहीं है.

इस आलेख में मैं दो विचार प्रस्तुत कर रहा हूं- एक, गैर-भाजपावाद की इस राजनीति से मुसलमानों को कुछ हासिल नहीं हुआ और दो, इस तरह के वोटिंग व्यवहार ने गैर-भाजपा दलों में आश्वस्ति पैदा की कि मुसलमान वोट तो उन्हें मिलेगा ही. इस क्रम में वे अपने जनाधार का विस्तार करने में ढील बरतने लगे. खासकर हिंदू मतदाताओं को आकर्षित करने को लेकर उनमें आलस्य आ गया.


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मुसलमान वोट को लेकर निश्चिंतता

जो बीजेपी के खिलाफ सबसे मजबूत नजर आएगा, उसे मुसलमान वोट दे देंगे! इस राजनीति ने मुसलमान वोटरों की हैसियत कम कर दी है. इसका मतलब है कि उनका वोट पाने के लिए किसी दल को सिर्फ ये करना है कि वे इतना सा वोट जुटाते हुए नजर आएं कि वे बीजेपी को टक्कर दे सकते हैं तो इसके बाद मुसलमान वोट उनके साथ अपने आप जुड़ जाएगा.

यह सही है कि मुसलमानों के पास राजनीतिक दांवपेंच के लिए और कई सारे समूहों की तुलना में कम गुंजाइश है, लेकिन अगर वे सोच रहे हैं कि गैर-बीजेपी दल उन्हें जान-माल की सुरक्षा देंगे तो ये भी हमेशा नहीं हो पाता. मिसाल के तौर पर, दिल्ली के मुसलमानों के बारे में माना जाता कि वे आम आदमी पार्टी को वोट देते हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ. लेकिन 70 में से 62 विधानसभा चुनाव जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर जब दिल्ली में दंगे हुए, तो उन दंगों को रोकने के लिए सक्रिय तौर पर कुछ नहीं किया.

और दो, मुसलमानों का वोट एकमुश्त मिलने की उम्मीद ने सेक्युलर दलों को आलसी बनाया है. मिसाल के तौर पर, यूपी में अगर कोई दल 10 से 15 प्रतिशत अपने वोट का बंदोबस्त कर ले तो इस बात की उम्मीद है कि लगभग 20 प्रतिशत मुसलमान वोटर्स का बड़ा हिस्सा उसे मिल जाएगा. ऐसी पार्टी राजनीतिक तौर पर जिंदा तो रह लेगी, हो सकता है कि वह प्रमुख विपक्षी दल भी बन जाए, लेकिन यूपी की वर्तमान राजनीति में इतना वोट बीजेपी उम्मीदवारों को हराने के लिए ज्यादातर सीटों पर काफी नहीं है.


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फुटबॉल का मिड फील्ड और गोल

बीजेपी को हराने की कुंजी मुसलमान वोट नहीं हैं. ये फुटबॉल के खेल की तरह है, जिसमें गोल के लिए मूव मिड फील्ड में बनाया जाता है और अक्सर कोई स्ट्राइकर उसे गोल में तब्दील करता है. स्ट्राइकर का काम तब शुरू होता है जब बॉल गोल पोस्ट के आसपास पहुंच चुकी हो.

भारतीय राजनाति के मौजूदा दौर में बीजेपी अपने हाफ में मजबूती से जमी हुई है और खेल विपक्ष के पाले में चल रहा है. बीजेपी को हराने या रोकने या उससे मजबूती से भिड़ने के लिए जरूरी है कि विपक्ष मिडफील्ड में अपना दबदबा मजबूत करे. यहां पर दावेदारी हिंदू वोट की है क्योंकि देश के 78% वोटर तो हिंदू हैं. मुसलमान वोट गैरभाजपा दलों के काम तभी आ सकता है, जब उसका हिंदू वोटरों के एक बड़े हिस्से में असर हो.

ये कामना करना कि मुसलमान वोटर गैरभाजपा दलों के लिए गोल भी दागे और मिडफील्ड से मूव भी बनाए तो ये संभव नहीं है.

इसलिए जरूरी है कि गैर-भाजपा दल अगर बीजेपी से ढंग से भिड़ना चाहते हैं तो हिंदू वोट पाने की कोशिश करें. चूंकि आंकड़े बता रहे हैं कि सवर्ण वोटर 80 प्रतिशत तक बीजेपी के साथ जा चुके हैं, इसलिए इन दलों को ओबीसी, दलित और आदिवासी वोट ही ताकतवर बना सकता है.

मुसलमानों को भी समझना होगा कि सेक्युलरिज्म और कम्युनलिज्म का खेल सिर्फ बीजेपी नहीं खेल रही है. ये खेल सेक्युलर कहे जाने वाले दल भी खेल रहे हैं. अगर मुसलमान अपने दावेदारी वाली राजनीति करते हैं, तो ये खेल टूट सकता है. तब गैर-भाजपाई दल हिंदू वोट के लिए बीजेपी के साथ होड़ में होंगे और मुमकिन है कि बीजेपी के वर्चस्व के टूटने का वहां से कोई रास्ता खुले.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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