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चीन से निपटने में व्यवधान मोदी के बड़बोले मंत्री बन रहे हैं, न कि कांग्रेस पार्टी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां पाकिस्तान को दंडित करने के लिए 2016 और 2019 में क्रमश: ‘सर्जिकल’ और हवाई हमले किए थे, वहीं अब चीन पर ज़ुबानी हमले करने में उनके मंत्री उन्हें पीछे छोड़ रहे हैं.

चित्रण : रमनदीप कौर/ दिप्रिंट

जुलाई 2017 में जब डोकलाम विवाद अपने चरम पर था तो प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के एक शीर्ष अधिकारी, जो अब एक सेवानिवृत आईएएस हैं, ने एक अंग्रेज़ी अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार को फोन किया.

नौकरशाह ने पत्रकार से कहा, ‘सुनिए, आप लोग बिना वजह डोकलाम की खबरों को रोज़ पहले पेज पर छापते रहते हैं. ये राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है.’ जब पत्रकार ने दलील देनी चाही कि मीडिया से डोकलाम की घटनाओं की रिपोर्टिंग नहीं करने की अपेक्षा ठीक नहीं है, तो पीएमओ के अधिकारी ने उनकी बात को काटते हुए कहा, ‘लेकिन ये भीतर के पेज पर एक कॉलम की खबर हो सकती है. ये रोज़-रोज़ पहले पेज की खबर क्यों बन रही है? क्या आप राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ करना चाहते हैं?’

डोकलाम के दौरान संयम

मैं उस बातचीत का बाकी विवरण या उस बातचीत के बाद क्या हुआ ये साझा नहीं कर सकता. ये इस सूचना के स्रोत के लिए उचित नहीं होगा. लेकिन फोन पर हुई इस बातचीत से ये तथ्य जाहिर हो जाता है कि नरेंद्र मोदी सरकार डोकलाम संकट की गंभीरता को कम कर के दिखाना चाहती थी. ताकि उग्र राष्ट्रवादी ब्रिगेड वार्ताओं की प्रक्रिया को बेपटरी ना कर दे.

तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने राज्यसभा में कहा था कि गतिरोध समाप्त करने के लिए धैर्य और भाषा-संयम बहुत ज़रूरी है. उन्होंने कहा था, ‘यहां तक कि युद्ध के बाद भी, बातचीत की ज़रूरत पड़ती है. इसलिए बिना युद्ध के बातचीत होनी चाहिए.’

तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के योद्धाओं पर भी कड़ा नियंत्रण रखा गया था और उन्हें सरकार के निर्देशों का पालन करने की हिदायत दी गई थी. यानि टीवी पर बड़बोलेपन से बचना. ये एक विवेकपूर्ण और सफल रणनीति साबित हुई.

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चीन के खिलाफ मंत्रियों के ऊंचे बोल

अब गौर करें जून 2020 की स्थिति पर. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां पाकिस्तान को दंडित करने के लिए 2016 और 2019 में क्रमश: ‘सर्जिकल’ और हवाई हमले किए थे. वहीं उनके मंत्री अब चीन पर एक के बाद एक ज़ुबानी हमले करने में उन्हें पीछे छोड़ रहे हैं.


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संचार एवं आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने गुरुवार को ऐलान किया कि 59 चीनी एप पर प्रतिबंध लगाकर भारत ने ‘डिजिटल स्ट्राइक’ कर दिया है. गरजते हुए उन्होंने कहा, ‘हम भारत की अखंडता, भारत की संप्रभुता और भारत की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे.’ अगले दिन ऊर्जा मंत्री आरके सिंह की ‘थर्मल और सोलर हमले’ करने की बारी थी और उन्होंने घोषणा की कि भारत अब चीन से बिजली उपकरणों का आयात नहीं करेगा. उसके बाद राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने ये कहते हुए चीन पर रोड रोलर चढ़ा दिया कि भारत की राजमार्ग परियोजनाओं में चीनी कंपनियों को शामिल नहीं होने दिया जाएगा.

गडकरी के जूनियर मंत्री जनरल (सेवानिवृत) वीके सिंह पहले ही आह्वान कर चुके हैं, ‘पहले उन पर आर्थिक चोट करते हैं. बाकी चीजें बाद में होंगी.’ टीवी स्टूडियो में जुटने वाले भाजपा के योद्धा सबको 1962 की पराजय की याद दिलाने और यह बताने से नहीं चूकते हैं कि कैसे मोदी जवाहरलाल नेहरू से अलग हैं.

इस बात पर ज़ोर देने के लिए कि प्रधानमंत्री मोदी ‘पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों जैसे नहीं’ हैं और भारतीय सीमा में अतिक्रमण की हिमाकत करने वालों को दंडित किया जाएगा. गृहमंत्री अमित शाह अपनी वर्चुअल रैलियों में लोगों को पाकिस्तान के खिलाफ किए गए सर्जिकल और हवाई हमलों की याद दिलाते हैं.

जब नेहरू युद्धोन्माद का शिकार बने

तो आखिर डोकलाम के बाद से क्या कुछ बदला है? क्या ये चीनी सेना द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा के उल्लंघन की गंभीरता की बात है? चीन के खिलाफ आर्थिक प्रतिशोध को सामरिक मामलों के कई विश्लेषक ज़रूर ही उपलब्ध विकल्पों में से एक मानते हैं जोकि चीन को उसकी गलती का एहसास कराते हुए पीछे हटने के लिए बाध्य करेगा. लेकिन केंद्रीय मंत्रियों के रोज़-रोज़ के ऊंचे बोलों से युद्धोन्माद पैदा होने का जोखिम है. हां ये अलग बात होगी कि इन मंत्रियों को उस बात का पता हो जोकि हमलोगों को नहीं मालूम– कि प्रधानमंत्री ने चीनी अतिक्रमणकारियों को पीछे धकेलने के लिए सैन्य विकल्प अपनाने का मन बना लिया है.

जैसा कि दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ़ शेखर गुप्ता ने अपने कार्यक्रम ‘कट द क्लटर’ के 510वें एपिसोड में उल्लेख किया है, 1962 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का सेना की तैयारी के बिना चीन से युद्ध का फैसला जनता के भारी दबाव में लिया गया था. नेहरू ने विवश होकर वो फैसला किया था क्योंकि उनके आलोचक युद्ध छेड़ने के मुद्दे पर उन्हें लगातार घेर रहे थे.

अब 2020 में मोदी को भी विपक्षी कांग्रेस की आलोचना झेलनी पड़ रही है, जो उन्हें चीनी अतिक्रमणकारियों को निकाल बाहर करने के लिए ललकार रही है, भले ही इस प्रक्रिया में पूर्ण युद्ध छिड़ने की आशंका हो. दरअसल कांग्रेस एलएसी पर बने गतिरोध को मोदी की यूएसपी या मुख्य विशेषता- बहुत सावधानी से तैयार मज़बूत और निर्णायक नेता की छवि- को खत्म करने के एक अवसर के रूप में देखती है.

लेकिन, क्या कांग्रेस के हमले में इतनी विश्वसनीयता है, जो प्रधानमंत्री में असुरक्षा का भाव पैदा कर सके? इस बात का अभी तक कोई संकेत नहीं है कि एलएसी संकट को सैन्य एवं कूटनीतिक वार्ताओं के ज़रिए निपटाने की मोदी की मौजूदा रणनीति पर से लोगों का भरोसा उठ रहा है. आईएएनएस-सीवोटर की एक फौरी रायशुमारी के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर 73.6 प्रतिशत जनता का मोदी सरकार पर भरोसा है जबकि मात्र 16.7 प्रतिशत ही इस मामले में विपक्ष पर यकीन करते हैं. हममें से कई ऐसे सर्वेक्षणों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं लेकिन इस सर्वे का निष्कर्ष सहज अनुभव के विपरीत नहीं लगता है.


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सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के रिसर्च एसोसिएट आसिम अली और अंकिता बर्थवाल के दिप्रिंट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा का इतना ज़बरदस्त कब्ज़ा है कि उसे चीन से निपटने में सरकार की ‘भारी भूलों’ का भी राजनीतिक खामियाजा नहीं भुगतना पड़ेगा- बशर्ते एलएसी पर तनाव और अधिक नहीं भड़कता हो.

मोदी को घरेलू राजनीति से आगे की सोचने की ज़रूरत

प्रधानमंत्री के लिए दबाव में आकर कदम उठाने की कोई विवशता नहीं है, जैसा कि नेहरू की थी. पहली बार विपक्ष उनको तब परेशान करता नज़र आया जब सर्वदलीय बैठक में उन्होंने आवेग में आकर चीनी अतिक्रमण की बात को सिरे से खारिज कर दिया था. वह जल्दी ही इससे उबर गए. अब वह अपने आलोचकों से उलझने और बारीकियों में फंसने के बजाय सीधे जनता से संवाद करना पसंद करते हैं. शुक्रवार को लद्दाख में जवानों को संबोधित करते हुए उन्होंने ‘विस्तारवादी’ चीन को कड़ी चेतावनी दी और इसी के साथ आंख मूंदकर यकीन करने के लिए तैयार बैठे अपने समर्थकों की चिंताओं को दूर कर दिया जिन्हें चर्चा का कोई मुद्दा चाहिए था.

वास्तव में चीन के दुस्साहस पर भारत की रणनीतिक प्रतिक्रिया पर विचार कर रहे प्रधानमंत्री को घरेलू राजनीतिक विवशताओं से पूरी तरह अप्रभावित रहने की ज़रूरत है और यहीं पर उनके मंत्री और साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के आर्थिक राष्ट्रवादी, उनके लिए अवरोध साबित हो सकते हैं. चीन को आर्थिक चोट पहुंचाने की भारत की क्षमता के प्रदर्शन के उत्साह में वे युद्धोन्माद को इस हद तक बढ़ा सकते हैं कि चीनी वस्तुओं का बहिष्कार और चीनी कंपनियों पर प्रतिबंध भर ही पर्याप्त नहीं होगा. मोदी युग के ‘देशभक्तों’ के लिए सर्जिकल और सीमा पार हवाई हमले नए मानदंड बन चुके हैं और उन्हें चीन के खिलाफ इससे कम कुछ भी मंजूर नहीं होगा.

प्रधानमंत्री मोदी के बड़बोले मंत्री उन्हें ऐसी स्थिति में डाल सकते हैं जहां कि भारत के सामरिक विकल्प उनकी राजनीतिक छवि से बंध जाती हो. यदि ऐसा होता है, तो देश और भाजपा भी- खुद को एक नई अनजान स्थिति में पा सकता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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