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मोदी सरकार के अधिकारी की जुबान फिसली, 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करना हमेशा से एक ‘जुमला’ था

किसानों की आमदनी दोगुना करने की घोषणा के पांच सालों में इस योजना का हासिल क्या रहा? बस एयर-टाइम, टीआरपी और बीजेपी को खाते आये वोट.

पटियाला में महिला किसान | प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो: उर्जिता भारद्वाज/दिप्रिंट

किसानों की आमदनी दोगुनी करने का जो ढोल पीटा जा रहा था आखिरकार उसकी पोल खुल ही गई.

और, ढोल की पोल खोलने वाला सरकार का कोई आलोचक नहीं बल्कि स्वयं नीति आयोग के सदस्य (कृषि) डॉ. रमेश चंद हैं. ना, आपने अगर ये समझा हो कि रमेश चंद ने स्वीकारोक्ति के भाव से ऐसी कोई बात कही होगी तो आप भूल कर रहे हैं. मोदी सरकार के लिए काम करने वाले किसी अधिकारी के मुंह से स्वीकारोक्ति के तौर पर कोई बात क्यों निकलने लगी भला?

दरअसल तीन कृषि कानूनों की तरफदारी का वो रस्मी राग छेड़े हुए थे कि इसी दौरान सच्चाई दबे पांव बाहर निकल आयी. पीटीआई ने रमेश चंद के इंटरव्यू की जो कॉपी जारी की है, उसमें एक जगह कुछ यों लिखा मिलता है: ‘मैं यही कहूंगा कि अगर ये तीन कानून तुरंत लागू नहीं हुए तो मुझे नहीं लगता कि लक्ष्य ( साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का) पूरा हो पाएगा.’

अब जरा इस बात पर ठहरकर विचार कीजिए. किसानों की आमदनी दोगुनी करने के महामिशन का एलान साल 2016 की फरवरी में हुआ था. इस लक्ष्य को हासिल करने की अंतिम समय-सीमा 2022 है. लेकिन, अब मोदी सरकार का एक शीर्ष विशेषज्ञ खुद कह रहा है कि कि लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता, कारण ये नहीं कि मिशन अपनी शुरुआत में ही हवा-हवाई था या फिर सरकार ही इस दिशा में कोई कदम उठाने में नाकाम हुई बल्कि इसलिए कि तीन कृषि कानूनों को लागू नहीं किया गया, वे कृषि कानून जो महामिशन की घोषणा के पांचवें साल में सामने आये और तीन माह से जिनकी राह रुकी हुई है. है ना विचित्र तर्क? अगर आपको तर्क विचित्र नहीं लगता तो फिर मानकर चलिए कि आपने उस मृग-मरीचिका को ठीक से पहचाना ही नहीं जिसे डीएफआई उर्फ डबलिंग ऑफ फार्मर्स इन्कम यानि किसानों की आमदनी दोगुनी का नाम दिया जाता है.


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कुछ होमवर्क कर लेना चाहिए था ना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा बरेली में 28 फरवरी 2016 को किया था यानि केंद्रीय बजट से एक दिन पहले. यह कोई भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में दर्ज वादा ना था. सो, आप मानकर चल रहे होंगे कि इतना बड़ा वादा करने से पहले कुछ होमवर्क तो किया ही गया होगा. कम से कम सरकार को यह तो पता होगा कि 2016 में किसानों की आमदनी कितनी थी. सरकार ने कुछ गणित लगाया होगा कि छह साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए क्या कुछ करना होगा. आप ये मानकर चलेंगे कि सरकार के पास लक्ष्य को हासिल करने के लिए नीतियों का कोई तो रोडमैप होगा ही. और, आपको ये भी उम्मीद होगी कि इतनी बड़ी घोषणा के बाद सरकार किसानों की आमदनी की नियमित अंतराल पर निगरानी और पुनरावलोकन करती चलेगी.

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तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जैसे ही अपने बजट भाषण में प्रधानमंत्री का किया हुआ वादा दोहराया उनसे सवाल पूछा गया कि अभी के वक्त में किसानों की आमदनी कितनी है और इस आमदनी को दोगुना करने में कितना वक्त लगेगा. लेकिन जवाब नहीं मिला. सरकार को गणित के एक बुनियादी से सवाल का उत्तर देने में महीनों लग गये कि किसानों की आमदनी की गिनती चालू मूल्यों (करेंट प्राइस) को आधार मानकर होनी है या फिर स्थिर मूल्यों (कांस्टैन्ट प्राइस) को?

दूसरे शब्दों में कहें तो किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लक्ष्य में मुद्रास्फीति के हिसाब से आय की गिनती होगी या नहीं, ये ही तय करने में सरकार को महीनों लग गये. शुक्र कहिए कि सरकार को सद्बुद्धि आयी और उसने माना कि लक्ष्य किसानों की वास्तविक आमदनी को दोगुना करने का है, ना कि उनकी चलती आमदनी को और इसलिए किसानों की आमदनी की गिनती में मुद्रास्फीति का ध्यान रखा जायेगा.

तो फिर, किसानों की आमदनी दोगुनी करने का मतलब क्या हुआ, कितने रुपये की आमदनी हो जानी चाहिए किसान को? देश से वादा करने के छह हफ्ते बाद सरकार ने एक समिति बनायी. समिति को पता लगाना था कि किसानों की आमदनी दोगुनी करने का मतलब रुपयों के गणित में कितना होता है. किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वादे के आलोक में बनायी गई समिति डीएफआईसी (डबलिंग फार्मर्स इन्कम कमिटी) की अध्यक्षता सुलझी समझ और गहरी जानकारी वाले एक नौकरशाह कर रहे थे. इस समिति ने आमदनी दोगुनी करने का बुनियादी गणित 2017 के अगस्त में बताया. समिति को इसके लिए एक पुराने सर्वेक्षण का सहारा लेना पड़ा जिसे नेशनल सैम्पल सर्वे ने 2011-12 में कराया था.

दरअसल कोई और विश्वसनीय स्रोत था ही नहीं जिसे लेकर समिति अपने काम की शुरुआत करती. समिति का आकलन था कि साल 2015-16 में किसान-परिवारों की औसत सालाना आमदनी 96,703 रुपये थी. इसका मतलब हुआ कि किसी किसान परिवार में पांच या इससे ज्यादा लोग हैं तो उस परिवार की मासिक आमदनी 8000 रुपये की है. ध्यान रहे कि इस आमदनी में गैर-खेतिहर कामों जैसे सेवा-कार्य, व्यवसाय या डेयरी से हुई आमदनी शामिल है. साल 2022 तक खेतिहर आमदनी को दोगुना करने का मतलब होगा साल 2015-16 के मूल्यों पर सालाना आमदनी का 1,72,694 रुपये हो जाना (यहां किसान-परिवार की उस आमदनी को दोगुना करने की बात हो रही है जो खेती-बाड़ी से हासिल होती है ना कि गैर खेतिहर कामों से) या फिर यों कहें कि साल 2022 में रुपये का जो मोल रहने की संभावना है उसके आधार पर किसान-परिवार की सालाना आमदनी 2.5 लाख रुपये हो जानी चाहिए. इस रकम तक पहुंचने के लिए खेती-बाड़ी से होने वाली आय वास्तविक मूल्यों में 10.4 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़नी चाहिए यानि एक ऐसी बात जो किसान की जिंदगी में पहले कभी नहीं हुई.

आमदनी को दोगुना करने का महामिशन छह साल की अवधि लेकर चला और जब हम इस छह वर्षीय अवधि के डेढ़ साल बीता चुके तब जाकर स्पष्ट हो सका कि दरअसल आमदनी को किस बिंदु से किस बिंदु तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है.


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कोई नीतिगत रोडमैप नहीं

सवाल पूछा जायेगा कि 10.4 प्रतिशत सालाना की इस अप्रत्याशित बढ़ोतरी के लिए क्या नीतियां अख्तियार की जानी चाहिए? इस सवाल का जवाब तलाशने में डीएफआईसी को एक साल और लगे और उसने 2018 के सितंबर में अपनी भारी-भरकम रिपोर्ट पेश की. कुल 14 खंडों की यह रिपोर्ट निश्चित ही कृषि-नीतियों के बाबत एक व्यापक दस्तावेज है.

रिपोर्ट के आने तक महामिशन के ढाई साल बीत चुके थे और देश में एक बार फिर से चुनावों का मौसम आ चला था. सरकार के पास रिपोर्ट पर विचार करने का समय ही नहीं था. उस वक्त विधानसभा के चुनावों में हुई हार से सबक लेते हुए सरकार ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने की दिशा में जो एकमात्र कदम उठाया वह था हर किसान परिवार को साल में छह हजार रुपये देना लेकिन डीएफआईसी ने तो अपनी रिपोर्ट में ये सुझाव ही नहीं दिया था.

जाहिर है, ऐतिहासिक मिशन का आधा वक्त गुजर जाने के बाद तक मोदी सरकार कोई योजना ना बना पायी थी कि किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए क्या रास्ता अख्तियार किया जाए. इस ऐतिहासिक मिशन की अवधि में जो बजट पेश हुए उनमें से किसी भी बजट में इस बहु-प्रचारित मिशन के मद में अलग से आवंटन नहीं हुआ.

दरअसल, हम अब भी नहीं जानते कि किसानों की आमदनी दोगुना करने के वादे को ‘विजन’ के खाते में रखें या फिर ‘मिशन’ के या उसे एक ‘योजना’ मानकर चलें. किसी ने आज दिन तक बताया ही नहीं कि महामिशन का आधिकारिक दर्जा क्या है. इसके बावजूद, बीजेपी का कोई भी नेता या प्रवक्ता खेती-बाड़ी के बारे में बोलते हुए किसानों की आमदनी दोगुना करने की बात कहे बगैर एक मिनट भी नहीं रह पाता. पार्टी के दावे के बारे में पूरी उदारता बरतते हुए सोचें तो यही कहा जायेगा कि किसानों की आमदनी दोगुना करने का वादा अलग से चलायी जाने वाली योजना या कार्यक्रम ना होकर एक संकल्प (विजन) है, जिसे तमाम कृषि-नीतियों के जरिए साकार किया जाना है.


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ना निगरानी, ना ही आंकड़े

अगर किसानों की आमदनी दोगुना करने के मोर्चे पर हुई तमाम तैयारियों का हाल ये है तो आप खुद ही सोच लीजिए कि निगरानी और पुनरावलोकन के मोर्चे पर क्या हुआ होगा? निगरानी और पुनरावलोकन की कोई कवायद अभी तक हो नहीं पायी है. पिछले पांच सालों में, किसानों की आमदनी दोगुना करने के वादे के बाद से मोदी सरकार ने ऐसा कोई आंकड़ा नहीं जुटाया या जारी किया जो बताये कि किसानों की आमदनी में क्या बढ़ोतरी हुई. सरकार ने ऐसा कोई सर्वेक्षण भी ना करवाया जो बताये कि इस राष्ट्रीय मिशन ने क्या प्रगति की है. साल 2020 में सरकार की घोषणा हुई कि एक ‘एम्पावर बॉडी’ (सक्षम प्राधिकरण) बनायी जा रही है जो ‘प्रगति की निगरानी और पुनरावलोकन’ करेगी. लेकिन, अभी ऐसा कोई दस्तावेज मंजर-ए-आम पर आना बाकी है.

आमदनी दोगुनी करने की दिशा में किस हद तक प्रगति हुई है, उसे एकदम से नाप-तौल कर तो नहीं मगर बिल्कुल करीब तक बता सकने वाला एनसएसएस एक सर्वेक्षण साल 2018 में आया. लेकिन सरकार ने इस सर्वेक्षण को ना माना क्योंकि उसमें बताया गया था कि ग्रामीण भारत की वास्तविक आमदनी में कमी आयी है. तो फिर, इस बिंदु पर पहुंचकर हमारे लिए यही मान लेना ठीक होगा कि सरकार के पास किसानों की आमदनी के बाबत कोई आंकड़ा ही नहीं है और ये आंकड़ा इसलिए नहीं है क्योंकि वह आमदनी में हुई कमी का संकेत करते अशुभ समाचार सुनना ही नहीं चाहती.

हाल के सालों में किसानों की आमदनी में घट-बढ़ के क्या रुझान रहे हैं, इसका अनुमान लगाने का एक आधार कृषि एवं इससे जुड़े क्षेत्रों में हुए सकल मूल्य संवर्धन (ग्रॉस वैल्यू एडिशन) के सरकारी आंकड़े हो सकते हैं. साल 2021 के आर्थिक सर्वेक्षण में जो नये आधिकारिक आंकड़े दिए गए हैं उससे पता चलता है कि मोदी सरकार के बीते सात सालों में कृषि क्षेत्र में सकल मूल्य संवर्धन औसतन सालाना 3.3 प्रतिशत की दर से हुआ जबकि यूपीए-1 तथा यूपीए-2 के वक्त यह दर 4.6 प्रतिशत की थी. पिछले पांच सालों में कृषि क्षेत्र में सकल मूल्य संवर्धन कुल मिलाकर 24.5 प्रतिशत का हुआ है और रमेश चंद को उम्मीद है कि अगले साल ये इजाफा 3.5 प्रतिशत का होगा.

मतलब, छह सालों में किसान की आमदनी में 100 प्रतिशत इजाफा करने का जो राष्ट्रीय महा-मिशन चला, वह आखिर को किसान की आमदनी में 30 प्रतिशत का इजाफा कर सकेगा. इसका मतलब हुआ, किसान की आमदनी में सालाना 4 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ोतरी हुई जबकि होनी चाहिए थी सालाना 10.4 प्रतिशत की वृद्धि. मतलब, साल 2002 से 2012 के बीच किसानों की आमदनी की जो तस्वीर रही, वही तस्वीर 2012 के बाद के सालों में भी जारी है.

तो फिर, किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वादे का हासिल क्या रहा? दरअसल, किसानों के हाथ तो कुछ ना लगा. हां, आमदनी दोगुनी करने का वादा प्रचार का औजार खूब बना, इसके सहारे बीजेपी के पक्ष में हवा बनायी गई. तो फिर इस वादे की सफलता का आकलन खेती-बाड़ी से जुड़े ठोस आंकड़ों के सहारे नहीं होगा, इस वादे की सफलता का आकलन होगा ये देखकर कि उसे कितना एयर-टाइम मिला, कितनी टीआरपी रही और बीजेपी को इस वादे से वोट कितने हासिल हुए.

अगर सदी के सर्वश्रेष्ठ जुमलों को चुनने की कोई प्रतियोगिता हो तो ‘किसान की आमदनी दोगुनी’ का जुमला निश्चित ही सबसे ऊंचे पायदान के जुमलों में गिना जायेगा.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. यह एक जुमला था इस मे कोई शक नही. मगर ‘गरिबी हटाओ’ क्या था? इस जुमले के आधारपर गांधी परिवार ने राज किया , ये भी एक सच है.

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