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आर्थिक मामलों में सरदार पटेल के विचारों से उल्टी चल रही है मोदी सरकार

स्वतंत्रता आंदोलन के नेता देश में मिली-जुली अर्थव्यवस्था चाहते थे, जहां मज़बूत सरकारी क्षेत्र के ज़रिए रोज़गार सृजन और लोक कल्याण के काम हों.

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(फोटो साभार: ​भाजपा/ ट्विटर)

6 मई 1949 को इंदौर में राष्ट्रीय मजदूर संघ के अधिवेशन में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था, ‘हिंदुस्तान की सरकार के पास इतना सामान होता और इतने साधन होते कि सारे कारखाने हम चला सकते, तो हमें क्या दिक्कत थी. लेकिन हम जानते हैं कि हम 12 महीना भी कारखाना नहीं चला सकेंगे.’

देश स्वतंत्र होने पर मज़दूरों की हड़ताल रोकने के लिए तत्कालीन गृहमंत्री पटेल ने अपनी पीड़ा कुछ इस तरह जताई थी. सरकार के पास संसाधन नहीं थे कि वह फैक्टरियों को अपने हाथ में ले लेती, उसका राष्ट्रीयकरण कर देती और उन्हें खुद चलाती. समय बीतने के साथ औद्योगिक नीति बनी. पटेल तो वह दिन नहीं देख सके, लेकिन जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते तमाम नवरत्न कंपनियों की नींव पड़ गई और इंदिरा गांधी के आते-आते कोयला खदानों, निजी बैंकों और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया.

नब्बे के दशक में नई उदारवादी नीति आने के बाद सरकार द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल, सरकारी कंपनियां, सरकारी फैक्टरियां चलाने की नीति उल्टी धारा में चल पड़ी हैं. यहां तक कि रेल को भी निजी हाथों सौंपने की तैयारी चल रही है. रेलवे बोर्ड के सदस्य-यातायात गिरीश पिल्लै ने सेंटर फॉर ट्रांसपोर्टेशन, रिसर्च एंड मैनेजमेंट के एक कार्यक्रम में कहा कि यात्री ट्रेन और मालगाड़ियों को चलाने का काम निजी हाथों में देने के प्रस्ताव पर विचार चल रहा है.

केंद्र सरकार ने सरकारी कंपनियों को बेचकर या उनमें हिस्सेदारी कम करके वित्त वर्ष 2018-19 में 80,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था. वहीं बिज़नेस स्टैंडर्ड की एक खबर के मुताबिक सरकार आगामी 2019-20 के बजट में भी इतना ही धन विनिवेश से जुटाने का लक्ष्य रखने जा रही है.

सरकार की कुछ मुख्य कंपनियों के बारे में तो सबको पता होता है, लेकिन सैकड़ों ऐसी कंपनियां हैं, जिनके बारे में आम लोगों को पता नहीं होता. 1991 के बाद निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने का काम सभी सरकारें कर रही हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जब सत्तासीन होती है तो यह पटेल के देखे सपने, जिसे नेहरू के काल में साकार किया गया, को नीलामी पर लगा देती है. अटल बिहारी वाजपेयी के काल में सरकारी संपत्तियों को बेचने के लिए बाकायदा विनिवेश मंत्रालय बना दिया गया था. ओबीसी आरक्षण के सख्त विरोधी, अंबेडकर के खिलाफ ‘वर्शिपिंग फाल्स गॉड’ लिखने वाले अरुण शौरी को इस मंत्रालय का जिम्मा सौंप दिया गया था. उसी तरह जब नरेंद्र मोदी के शासन काल में भाजपा सत्ता में आई तो निवेश एवं सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग (दीपम) बना दिया गया. इस विभाग का काम ही सरकारी संपत्तियों को खोज खोजकर बेचना है.

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एक तरफ जहां चीन, ईरान सहित तमाम देशों के बैंक आए दिन भारत के बाज़ार में प्रवेश कर रहे हैं, दर्जनों निजी बैंक खुल रहे हैं, सरकार ने विजया बैंक, देना बैंक का बैंक आफ बड़ौदा में विलय की घोषणा कर दी. तीन गैर सूचीबद्ध सरकारी बीमा कंपनियों नैशनल इंश्योरेंस, ओरिएंटल इंश्योरेंस और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस के विलय और विलय के बाद बनी कंपनी को सूचीबद्ध कराने पर काम करना शुरू किया जा चुका है.

निजीकरण की सरकार की योजना

करीब 20 कंपनियां हैं, जिन्हें सरकार ने रणनीतिक बिक्री या निजीकरण के लिए चिह्नित किया है. दीपम की योजना है कि पवन हंस, सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स, एयर इंडिया की ग्राउंड हैंडलिंग सब्सिडियरी और स्कूटर इंडिया को इस साल ही बेच दिया जाए. बिक्री की कतार में लगी अन्य सरकारी कंपनियों में प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट इंडिया लिमिटेड, भारत पंप्स कंप्रेसर्स लिमिटेड, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड, हिंदुस्तान न्यूजप्रिंट लिमिटेड, फेरो स्क्रैप निगम लिमिटेड, हिंदुस्तान फ्लोरोकार्बन लिमिटेड, सीमेंट कॉर्पोरेशन आफ इंडिया लिमिटेड, इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स इंडिया लिमिटेड, एचएलएल लाइफकेयर लिमिटेड, इंडियन मेडिसिंस एंड फार्मास्यूटिकल कॉर्प और कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फॉर्मा के अलावा अन्य शामिल हैं.

सामान्यतया लोग सेल, भेल, गेल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम जैसी बड़ी कंपनियों का नाम जानते हैं. लेकिन सरकार की उपरोक्त गुमनाम कंपनियों में लाखों कर्मचारी काम करते हैं. सरकारी कंपनियों में मानकों के मुताबिक वेतन, छुट्टियां, रहने के लिए आवास आदि सुविधाएं मिलती हैं. लेकिन अब सरकार का एकमात्र कार्यक्रम है कि सरकारी कंपनियों को बेचा जाए.

आज के दौर में निजी पूंजी का विरोध नहीं किया जा सकता. किसी भी दौर में भारत में या किसी भी देश में पूर्ण रूप से निजी पूंजी का विरोध नहीं किया गया है. समाज में समानता बनाए रखने, कर्मचारियों को शोषण मुक्त रखने के लिए कम से कम प्राकृतिक संसाधनों पर सरकार और सरकारी कंपनियों के कब्ज़े की वकालत की जाती है.

सरकार अब कतई नहीं चाहती कि वह प्राकृतिक संसाधनों पर अपना कब्ज़ा रखकर लोगों को एक न्यूनतम जीवन स्तर दे. धीरे-धीरे करके निजी कंपनियों का प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा हो रहा है. देश की सबसे बड़ी कंपनी सरकार द्वारा मिले प्राकृतिक संसाधनों से 3 महीने में 10 हज़ार करोड़ रुपये कमा लेती है. वहीं उसी प्राकृतिक संसाधन पर मेहनत करने वाले कर्मचारी के लिए महीने में 10 हज़ार रुपये कमाना भी मुश्किल हो जाता है.

निजीकरण यानी रिज़र्वेशन का अंत

सरकारी कंपनियों में आरक्षण का नियम लागू होता है. फिलहाल सरकार से जो आंकड़े आते हैं, सरकारी विभागों में बेहतर वेतन पाने वाले कर्मचारियों में 60 से लेकर 95 प्रतिशत तक सवर्ण हैं. एक मोटा अनुमान लगाया जा सकता है कि इन सरकारी कंपनियों में भी औसतन 70-80 प्रतिशत सवर्ण ही होंगे. यहां आरक्षण देकर वंचितों की हिस्सेदारी देना तो दूर की कौड़ी है, उन कंपनियों में काम कर रहे सवर्णों की नौकरी भी छीनी जा रही है.

ऐसे दौर में यह ज़रूरी हो गया है कि चुनाव में उतरने वाले लोगों से पूछा जाए कि सरकारी कंपनियों को बेचने को लेकर उनका क्या रुख है. बढ़ते तकनीक के दौर में जिस तरह कंपनियां तकनीक पर कब्ज़ा कर अपने मनपसंद दलों को मदद पहुंचाती हैं, चुनाव में चंदे देकर पसंदीदा दल को मदद करती हैं, यह संभव है कि सरकार पर दबाव हो कि वह रेलवे जैसे विभागों को जल्द से जल्द निजी हाथों को सौंप दे.

रेल मंत्रालय का अलग बजट खत्म करके एक सामान्य विभाग बना दिया गया है. सरकार जिस तरह से आक्रामक विनिवेश लक्ष्य तय कर रही है, अधिकारी निजी हिस्सेदारी बढ़ाने के बयान दे रहे हैं, इससे लगता है कि सरकार उद्योगपतियों को यह संकेत देना चाह रही है कि वह सरकारी संपत्तियां निजी कंपनियों को सौंपने में कोई कोताही नहीं बरतेगी.

इस स्थिति को बदलने का एकमात्र रास्ता यही दिखता है कि जनता सरकार के ऊपर दबाव बनाए और वह प्राकृतिक संसाधनों या भारत की स्वतंत्रता के बाद एक समृद्ध भारत का सपना देखने वाले अपने नेताओं द्वारा तैयार की गई संपत्तियों को किसी हाल में बिकने न दे. इसी में जनता का भी हित है कि उसे तनावरहित, सुरक्षित ज़िंदगी और रोज़ी रोटी के बेहतर इंतजाम मिलें.

(प्रीति सिंह राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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