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मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में नौकरियों के संकट का समाधान नहीं किया

भारत को एक राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति की दरकार है, जिसके तहत मंत्रालयों को लक्ष्यों को हासिल करने के संबंध में पीएमओ को अपनी वार्षिक कार्ययोजनाएं सौंपनी होगी.

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सरगम मेटल लिमिटेड में काम करता हुआ कर्मचारी । ब्लूमबर्ग

भारत का श्रम बाज़ार रुग्णावस्था में है, और देश में रोजगार संकट पर बहस में इसके लिए मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल को जिम्मेवार ठहराया गया है. गत पांच वर्षों के दौरान इस संकट के समाधान के सही तरीकों पर बहस के सारे प्रयासों का अंत विवादों में हुआ. बात चाहे रोजगार सृजन के स्तर की रही हो, या बेरोजगारी के आंकड़े की या फिर श्रम बाज़ार की सही दशा बताने वाले स्रोतों और संकेतकों की (ये बेरोजगारी की बात है या उत्पादकता और वेतन की?). अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार के पास श्रम बाज़ार में अवरोधक बने कारकों को पहचानने और इस संकट के समाधान के उपाय करने का एक अवसर है.

चुनौतियां

भारत के कामकाजी उम्र 15 वर्ष और अधिक हर दो में से एक व्यक्ति ही श्रम बल में शामिल है. सिर्फ महिलाओं की बात करें तो कामकाजी उम्र की हर चार में से मात्र एक (23.3 प्रतिशत) महिला ही श्रम बल में शामिल हो पाती है. महिला श्रमिकों की भागीदारी 2004 से ही कम हो रही है. श्रम बल में कम भागीदारी का मतलब है, बेरोजगारी के ही समान, बहुमूल्य उत्पादन क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पाना.

बेरोजगारी चिंता की बात है, पर बड़े पैमाने की बात करें तो यकीनन अल्परोजगार का मुद्दा कहीं अधिक गंभीर है. भारत के अधिकांश लोग बेरोजगारी का ज़ोखिम नहीं उठा सकते हैं.


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एक और चुनौती है भारतीय युवाओं, खास कर कमजोर पृष्ठभूमि वालों, के लिए अवसरों की कमी. अध्ययनों के अनुसार किसी व्यक्ति के लिए युवावस्था में अवसरों की समानता नहीं होने का असर प्रौढ़ावस्था में नतीजों की गैरबराबरी में दिखता है.

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साथ ही, प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भर्तियों का स्तर तो बढ़ा है, पर खास कर कमजोर वर्ग के युवाओं के संदर्भ में कौशल विकास के नतीजे अब भी अच्छे नहीं हैं. कौशल प्रशिक्षण, विशेषकर अल्पावधि के कार्यक्रम, वर्षों की खराब गुणवत्ता वाली पढ़ाई की भरपाई नहीं कर सकते.

यदि इन चुनौतियों से निपटा नहीं गया तो अगले दो दशकों में भारत अनुकूल जनसांख्यिकीय परिस्थिति का फायदा उठाने की स्थिति में नहीं रह जाएगा.

चुनौतियों का मुकाबला

भारत को एक राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति (एनईएस) की दरकार है, और मंत्रियों को सालाना कार्ययोजनाएं पेश करनी चाहिए कि वे इसके लक्ष्यों को कैसे हासिल करेंगे. इन योजनाओं को एक मानकीकृत प्रारूप के अनुसार तैयार किया जाना चाहिए. जिनमें इन चार बातों का जिक्र हो, उठाए जाने वाले ठोस कदम, आवश्यक संसाधन, सफलता के पैमाने और समयसीमा. इस तरह तैयार योजनाएं प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी जानी चाहिए.

राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति अगले पांच वर्षों के लिए निम्नांकित तीन लक्ष्य हासिल करने पर केंद्रित होनी चाहिए:

1. श्रम बहुल क्षेत्रों में उत्पादकता और अच्छी पगार वाली नौकरियां

सर्वाधिक श्रम बहुल सेक्टर कृषि का है, जहां 44 फीसदी लोगों को काम मिला हुआ है. पर यही सेक्टर सबसे कम उत्पादकता वाला भी है. इस सेक्टर में ढांचागत बदलाव की ज़रूरत है और इसका एक यथार्थवादी तरीका है उत्पादकता बढ़ाना. (जिसके नतीजतन तनख्वाह का स्तर भी बढ़ सकेगा.)

किसानों को नकदी हस्तांतरण का अल्पकालिक उपाय मात्र लक्षणों को ठीक करता है, ना कि मूल वजहों को. कहीं अधिक प्रभावी होगा- सिंचाई, ऊर्जा और ग्रामीण इलाकों में यातायत सुविधाओं में निवेश (जो फसलों के पैटर्न को अधिक श्रम बहुल और उच्चतर कीमत वाली फसलों की ओर झुका सकेगा), उर्वरक जैसी निविष्टियों के प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य निश्चित करने वाले कार्यक्रम, सब्सिडी की असंतुलित व्यवस्था में सुधार, मूल्यों में भारी अस्थिरता की समस्या का समाधान कर किसानों के उत्पादों की उचित कीमत सुनिश्चित करना, कृषि क्षेत्र में संविदा श्रमिकों और बिचौलियों की संस्कृति को खत्म करने के लिए कानून बनाना और खास कर छोटे किसानों की भूमि रिकॉर्डों तक पहुंच सुनिश्चित करना और उन्हें वास्तविक फसल बीमा की सहूलियत देना.

भारत को श्रम बहुल विनिर्माण को सहारा देने वाली एक औद्योगिक नीति की भी दरकार है. कृषि-प्रसंस्करण जैसे सेक्टर कृषि और विनिर्माण दोनों को ही बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन इसके लिए एक घरेलू मूल्यवर्धन श्रृंखला और उससे संबंधित ढांचा विकसित करने की ज़रूरत है. औद्योगिक नीति में भूमि इस्तेमाल संबंधी स्वीकृतियों, बिजली की सुविधा तथा विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए खास कर सक्षम छोटी कंपनियों को कर रियायतें देने जैसे विषयों पर ध्यान देना होगा.

औद्योगिक नीति में कंपनियों को निर्यात क्षमता बढ़ाने में सहायता तथा वैश्विक मूल्यवर्धन श्रृंखलाओं में उनकी भागीदारी के लिए प्रोत्साहन की व्यवस्था होनी चाहिए. इसके लिए मौजूदा सीमाशुल्क ढांचे, खासकर ‘इन्वर्टेड’ शुल्कों की प्रणाली, के पुनर्आकलन की ज़रूरत है, ताकि विनिर्माण कंपनियों को अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाया जा सके.

विनिर्माण के क्षेत्र में इन कदमों के उठाए जाने से लॉजिस्टिक्स और परिवहन जैसे क्षेत्रों में सेवाओं के अवसर पैदा होंगे. आने वाले वर्षों में रोजगार सृजन के लिए ये क्षेत्र उतरोत्तर महत्वपूर्ण होते जाएंगे.

2. मानव संसाधन में निवेश

राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति में उच्च गुणवत्ता की शिक्षा और उसके आगे कौशल विकास एवं नौकरी-में-प्रशिक्षण के ज़रिए मानव संसाधन में टिकाऊ और दीर्घावधि के निवेश का प्रावधान होना चाहिए.

मानव संसाधन विकास और कौशल विकास मंत्रालयों को मिलाकर स्कूल-से-कौशल-से-नौकरी-तक की एक अबाध प्रणाली विकसित की जानी चाहिए. शिक्षा पर खर्च को बढ़ाकर जीडीपी के छह प्रतिशत के बराबर किया जाना चाहिए.

पर उससे भी ज़्यादा अहम है, मौजूदा प्रणाली में सुधार ताकि स्कूल में ही उम्र के अनुरूप उपायों से रोजगार सक्षमता विकसित की जा सके. जैसे, कम उम्र में स्वच्छता से लेकर आत्मविश्वासपूर्ण वार्तालाप तक की सहज कुशलता का प्रशिक्षण देना. जबकि उच्च विद्यालय में खाद्यान्न उत्पादन, मोबाइल फोन मरम्मत, लकड़ी के काम तथा सौंदर्य एवं स्वास्थ्य से जुड़े व्यवसायों से परिचय कराना. स्कूल के सभी बच्चों को– लिंगभेद या किसी अन्य आधार पर पक्षपात के बिना. इस तरह के विभिन्न व्यवसायों का अनुभव कराया जाना चाहिए. कौशल प्रशिक्षण में महिला-पुरुष के आधार पर पक्षपात व्यक्ति विशेष और अधिक संख्या मे लोगों के लिए बेहतर रोजगार सृजित करने के मिशन, दोनों के ही प्रतिकूल है.


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एक और कमी आपूर्ति-संचालित प्रशिक्षण की है. जिसे परिवर्तित कर श्रम बाज़ार की मांगों से समन्वित किया जाना चाहिए, और इसके लिए निजी क्षेत्र की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए.

इन सुधारों के कार्यान्वयन के दो तरीके हैं. पहला, बाज़ार की मांगों का विस्तृत आकलन किए जाने की आवश्यकता है जो कि उच्च वृद्धि वाले क्षेत्रों की पहचान और राष्ट्रीय स्तर पर उनमें मानव संसाधन की ज़रूरत का अनुमान लगाने से कहीं अधिक व्यापक हो, और साथ ही, यह आकलन नौकरियां पैदा करने वाले छोटे व्यवसायों के अनुरूप भी हो. ऐसा करना संभव है यदि यह कार्य राष्ट्रीय स्तर की जगह जिला या शहर जैसे छोटी प्रशासनिक इकाइयों के स्तर पर किया जाए. और दूसरी आवश्यकता, निजी क्षेत्र की बेहतर भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सेक्टर कौशल परिषदों में सुधार की है. इन परिषदों के कार्यों को बिल्कुल स्पष्ट किए जाने की ज़रूरत है, जिनमें क्वालिफिकेशन पैक और संबंधित नेशनल ओकुपेशनल स्टैंडर्ड के मूल्यांकन, प्रमाणन और उपयोग में उनकी विशिष्ट भूमिकाओं को स्पष्ट किया जाना सम्मिलित है.

3. श्रम बाज़ार से संबंधित संस्थानों को मज़बूत करना

राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति में भारत के श्रम कानूनों के सरलीकरण संबंधी उपाय भी शामिल करने होंगे. ताकि व्यवसायों और निवेश के लिए श्रम नियमों की स्पष्टता और निरंतरता सुनिश्चित हो सके. राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनत मजदूरी तय हो (पहली बार 1996 में ये किया गया था पर न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के वैधानिक समर्थन के अभाव में यह अभी तक अबाध्यकारी है). ताकि सभी श्रमिक अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें तथा सार्वभौम स्वास्थ्य सुविधा, पेंशन, मातृत्व, मृत्यु एवं विक्लांगता लाभ जैसे प्रावधानों के साथ सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था की जाए.

130 करोड़ की आबादी वाले देश में स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकारी खर्च जीडीपी का बमुश्किल एक प्रतिशत होना शर्मनाक है. करोड़ों लोग आपात चिकित्सा की एक बार की बाध्यता पर कर्ज और निर्धनता के भंवर में फंसने के कगार पर हैं. राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति को सामाजिक बीमा योजनाओं की मौजूदा जटिल व्यवस्था के सरलीकरण की अनुशंसा करते हुए सार्वभौम स्वास्थ्य सेवा को सरकारी समर्थन का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए.

राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति आंकड़ों और साक्ष्यों की बुनियाद पर निर्मित हो. मोदी सरकार के तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने 2016-2017 के आर्थिक सर्वे में लिखा था, ‘हाल के वर्षों में रोजगार के विश्वसनीय आंकड़ों की अनुपस्थिति इसके आकलन में बाधक बनी है और फलस्वरूप सरकार को उपयुक्त नीतिगत हस्तक्षेप करने में मुश्किल हो रही है.’

राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति की सफलता के लिए ज़रूरी है कि अधिक नियमित रूप से और सुसंगत तरीके से अधिक आंकड़े जुटाने के प्रयास किए जाएं और उनकी असल परिस्थितियों से प्राप्त गुणात्मक अंतर्दृष्टि के आधार पर पुष्टि हो. ऐसी किसी कार्यनीति के ले राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधनों की भी ज़रूरत होती है. राष्ट्रीय रोजगार कार्यनीति को बजटीय घाटे की मनमाने ढंग से तय सीमा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. सरकार कितना खर्च करती है, उससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है कि किन मदों पर कितना खर्च किया जाता है. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर खर्च का दीर्घकाल तक लाभ मिलता है. इस सिलसिले में मौजूदा कर और सब्सिडी व्यवस्था का पुनर्आकलन किए जाने की ज़रूरत है.

सच्चे विकास के लिए काफी प्रयास करने होंगे. वेतनभोगी हों या खुद का रोजगार करने वाले, खेती पर आश्रित हों या विनिर्माण उद्योग से संबद्ध, सांस्कृतिक और राजनीतिक विविधता वाले भारत के लोग जीवनयापन करने, पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों को पूरा करने तथा दिन-प्रतिदन की प्रेरणा बनने वाली आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने रोजगार पर निर्भर करते हैं. राजनीति और नीति को उचित रोजगार उपलब्ध कराने के लिए ज़रूरी कदम उठाने होंगे. इस पर भारत की प्रगति निर्भर करती है.

लेखिका सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर विजिटिंग फेलो हैं.

दिप्रिंट-सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की भागीदारी के तहत ‘पॉलिसी चैलेंजेज 2019-2024’ श्रृंखला में यह पांचवां लेख है. इस लेख का लंबा संस्करण सीपीआर की वेबसाइट www.cprindia.org पर उपलब्ध है. वेबसाइट पर इस श्रृंखला में उठाए गए विभिन्न मुद्दों पर संपूर्ण नीतिगत दस्तावेज़ भी उपलब्ध हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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