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मोदी का फिल्मों के बचाव में उतरना विश्वगुरु के लक्ष्य के लिए अहम, अब कंटेंट ही नया अंतर्राष्ट्रीयवाद है

हमारे सबसे बड़े सांस्कृतिक निर्यात को वैश्विक क्षेत्र में नए प्रतिस्पर्धियों का सामना करना पड़ रहा है, तो हमें सिर्फ राजनीतिक लामबंदी के लिए बेवकूफी भरे विवादों के जरिए उन्हें बदनाम करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.

दुबई में शाहरुख खान | प्रतीकात्मक तस्वीर | ट्विटर/@VisitDubai_IN

पिछले हफ्ते नई दिल्ली में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पीएम नरेंद्र मोदी ने एक सबसे महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने पार्टी के नेताओं को फिल्मों के बारे में गैर-जरूरी विवादास्पद बयान देने से आगाह किया. यह उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब कुछ ही समय पहले शाहरुख खान-दीपिका पादुकोण की फिल्म पठान पर पार्टी नेताओं और कुछ मंत्रियों ने जमकर निशाना साधा था.

आरआरआर फिल्म के गाने नाटू नाटू ने लंदन में गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड जीतकर शायद सारी स्थिति बदल दी है.

इस तरह के सुधार के साथ 2023 की शुरुआत काफी अहम है, क्योंकि इसी साल जी20 की अध्यक्षता कर के भारत अपनी विश्वगुरु की महत्वाकांक्षाओं को दुनिया के सामने रखेगा. विश्वगुरु का मुद्दा तो हमेशा संस्कृति से जुड़ा रहा है, उस समय भी जब हम आर्थिक और रणनीतिक तौर पर कमजोर थे. फिल्में भारत की सांस्कृतिक कूटनीति का स्थायी हिस्सा रही हैं.

अब हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां सामग्री (कंटेंट) और संस्कृति (कल्चर) एक नया अंतर्राष्ट्रीयवाद (इंटरनेशनलिज़्म) बनाते हैं. यह अंतर्राष्ट्रीयवाद शिखर सम्मेलन और द्विपक्षीय सम्मेलन आयोजित करने वालों की पहुंच से बाहर का मसला है.


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फिल्में: भारत की सांस्कृतिक राजदूत

आज के वक्त के-ड्रामा, के-पॉप और तुर्किश सीरियल दुनिया के दिलो-दिमाग पर उसी तरह राज कर रहे हैं जैसे राज कपूर, शाहरुख खान करते रहे हैं. दुनिया भर के युवा डांसर के-पॉप गानों पर वायरल रील बना रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे वे काला चश्मा पर करते हैं. पिछले हफ्ते ही एक इंडोनेशियाई फैन ने झूमे रे पठान को रीक्रिएट किया. ये सभी भारतीय लोकप्रिय संस्कृति (पॉपुलर कल्चर) को आगे बढ़ाने वाले लोग हैं.

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और भारतीय फिल्मों को पहले से ही बढ़त हासिल है. बेवकूफी भरा #बॉयकॉटबॉलीवुड का नारा लगाकर एक इंडस्ट्री की भावना को क्यों मारा जा रहा है जिसने आधी सदी से भी अधिक समय से दुनिया में भारत को यश दिलाया? खासतौर पर तब जब हम लंबे समय तक अपनी हैसियत को हल्के में नहीं ले सकते?

दुनिया हमारी जिन चीज़ों को पसंद करती है, जब उसकी ही आलोचना में हम लग गए हैं, तब नए लोग तेजी से अपनी पैठ बना रहे हैं. एशियाई और यूरोपीय दोनों देशों में तुर्की नाटकों का बोलबाला काफी बढ़ा है. हर उम्र के लोगों के बीच एर्तुगल और हयात वैश्विक स्तर पर हिट साबित हुए हैं. विंटर सोनाटा, ऑटम इन माय हार्ट और डिसेंडेंट्स ऑफ द सन जैसे के-ड्रामा के आज दुनिया भर में प्रशंसक है. ठीक वैसे ही जैसी लोकप्रियता कभी खुशी कभी गम जैसी फिल्मों को हासिल है.

जब इंटरनेट, सोशल मीडिया नहीं था, तब भारत सरकार की तरफ से किसी तरह के विशेष मदद के बिना हमारी फिल्में सांस्कृतिक राजदूत बन गईं. हॉलीवुड के होने के बावजूद हमने अच्छा प्रदर्शन किया. आज, टिक टॉक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब ट्रेंड्स सांस्कृतिक उत्पादों के लिए लोकप्रियता को ऐसे तरीकों से बढ़ा रहे हैं जिन्हें निर्देशित, आकार या नियंत्रित नहीं किया जा सकता है.

अब, जैसा कि हमारे सबसे बड़े सांस्कृतिक निर्यात को वैश्विक क्षेत्र में नए प्रतिस्पर्धियों का सामना करना पड़ रहा है, तो हमें सिर्फ राजनीतिक लामबंदी के लिए बेवकूफी भरे विवादों के जरिए उन्हें बदनाम करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.


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विश्वगुरु कंटेंट

2006 में पेरू में यात्रा करते हुए और प्राचीन इंकान पत्थरों से बनी सड़कों वाले एक गांव के घरों से आने वाले हिंदी फिल्म के गानों की आवाज, मेरी स्मृति का हिस्सा बने हुए हैं. गांव की एक महिला ने कहा कि वह ‘प्रेम’ के कारण हमारी फिल्मों से जुड़ाव महसूस करती हैं. उन्होंने मुझे माचू पिचू की तलहटी में बसे एक गांव में इसका कारण बताया. एक शब्द में ही इतनी ताकत है. और फिर अशोका (2001) फिल्म का गीत रात का नशा अभी उन्हें झुमा रहा था.

जर्मनी स्पष्ट तौर पर बॉलीवुड का गढ़ है. हर कोई इस बात को जानता है लेकिन इसके साथ कई आश्चर्य भी जुड़े हैं. हाल ही में समरकंद में, कई लोगों ने शाहरुख खान की फिल्मों और गानों के साथ मेरा स्वागत किया. उन्होंने जो कारण दिया वह यह था कि भारतीय फिल्में मजबूत ‘पारिवारिक मूल्यों’ को दर्शाती हैं जो उज्बेकिस्तान के लोगों के साथ मेल खाती है.

बेशक, सांस्कृतिक तौर पर आने वाले दूसरे कंटेंट जो आप आजकल उनके टीवी स्क्रीन पर हर जगह देख रहे हैं, वे तुर्की नाटक हैं. और ये उन कई देशों में लोकप्रिय हो रहे हैं जहां बॉलीवुड का राज रहा है. के-पॉप और तुर्की सीरीज़ का इस तरह से वैश्विक उदय हमें निश्चित रूप से एक बात बताता है- गूगल युग में अब कोई भी सांस्कृतिक प्रोडक्ट स्थानीय नहीं है. कई अरब डॉलर का के-पॉप उद्योग जापान, थाईलैंड, मलेशिया, चीन और अमेरिका में पहले से ही बहुत बड़ा है. यह अब भारत में भी सुर्खियां बटोर रहा है. दो महीने पहले ही, श्रीया लेंका बहुराष्ट्रीय के-पॉप बैंड ब्लैकस्वान के सदस्य के रूप में चुनी जाने वाली पहली भारतीय बनीं.

कई बैंड में पहले से ही ब्राजीलियाई, सेनेगल-बेल्जियम और दक्षिण कोरियाई सदस्य हैं. दक्षिण कोरिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक निर्यात अब सिर्फ एकतरफा नहीं है.

पिछले साल मई में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी सम्मेलन में के-पॉप उद्योग के अग्रणी ली सू मैन ने कहा था, ‘ वैश्वीकरण शुरू से ही के-पॉप का लक्ष्य था.’

लेकिन वैश्वीकरण आज लगभग एक विचित्र शब्द जैसा लगता है. हम जो देख रहे हैं वह स्टेरॉयड पर एक ऐसी घटना है, जिसे अरबों उंगलियों द्वारा संचालित किया जा रहा है.

भविष्य का विश्वगुरु वो नहीं होगा जिसके पास मजबूत अर्थव्यवस्था, मिलिट्री या पीआर मशीनरी होगी. बल्कि कंटेंट के साम्राज्य पर जिसका शासन होगा, वहीं राज करेगा. यह भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण है. उनके प्रति प्यार दिखाइए, राजनीति नहीं.

(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट की ओपिनियन और फीचर्स एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी है)

(संपादन: कृष्ण मुरारी)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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