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मोदी के उत्तराधिकार के दावेदार तो कई हैं लेकिन सिर्फ एक ही व्यक्ति अमित शाह की जगह ले सकता है

‘अपरिहार्य’ का तमगा हमेशा अच्छा नहीं माना जाता, याद कीजिए नरेंद्र मोदी ने गुजरात में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाली आनंदीबेन पटेल की जगह अमित शाह को गद्दी पर नहीं बैठने दिया था.

अमित शाह की मौजूदगी में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा और मेघालय के सीएम कोनराड संगमा.

इन दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बल्ले-बल्ले हैं और इधर सत्ताधारी खेमे में नंबर दो और नंबर तीन के ओहदे को लेकर अबाध बहसें जारी हैं. इसी तरह, योगी को भाजपा के संसदीय बोर्ड में शामिल किए जाने को लेकर चर्चे तेज हैं. याद कीजिए, राजनाथ सिंह जब भाजपा अध्यक्ष थे तब उन्होंने 2007 में गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान नरेंद्र मोदी को संसदीय बोर्ड में शामिल नहीं किया था लेकिन बाद में जब कार्यकर्ताओं का दबाव बढ़ा तो 2013 में उन्हें शामिल कर लिया गया. भाजपा के शीर्ष निर्णायक मंडल में मोदी को फिर से शामिल करने का जोरदार परिणाम सामने आया.

इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा की शीर्ष संस्था संसदीय बोर्ड में योगी को शामिल किए जाने को लेकर इतनी अटकलें क्यों निकाली जा रही हैं. आखिर यह बोर्ड चुनाव में उम्मीदवारों से लेकर मुख्यमंत्रियों के चयन तक तमाम अहम फैसले जो करता है. यह राष्ट्रीय राजनीति के मुख्य मंच पर योगी का आरोहण माना जाएगा. वैसे, इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी को लेकर चल रही चर्चाओं का अंत नहीं हो जाएगा.


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वक्त से पहले छिड़ी बहस

वस्तुस्थिति यह है कि गद्दी जल्दी खाली नहीं होने वाली. मोदी की उम्र 71 साल है और अभी वे अगले दो लोकसभा चुनाव लड़ने की स्थिति में दिखते हैं. इसलिए, योगी को इस बीच बहुत कुछ कर दिखाने का समय है. उन्होंने संघ परिवार के मूल आधार को आकर्षित कर लिया है लेकिन तथ्य यह है कि उन्हें दूसरी बार कुर्सी बहुत हद तक मोदी के कारण ही मिली है.

भाजपा के तमाम मुख्यमंत्री जिस तथाकथित ‘यूपी मॉडल’ के प्रति मुग्ध हो रहे हैं वह वास्तव में अभी तैयार होने के चरण में ही है. लोकसभा में अपने 80 सांसद भेजने वाला मुख्यमंत्री बेशक महत्व रखता है लेकिन वह शख्स भी कम महत्व नहीं रखता जिसका भाजपा के शानदार उभार में योगदान मोदी के योगदान के बाद दूसरे नंबर पर माना जाता है. और वह शख्स हैं गृह मंत्री अमित शाह.

इसलिए, हम जरा धीरज रखें. मोदी के उत्तराधिकारी के बारे में बहस करने का समय अभी नहीं आया है. आज सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि उनके उत्तराधिकारी को लेकर होड़ जब शुरू होगी तब उसमें कई भागीदार शामिल दिखेंगे.
लेकिन भाजपा के मुख्य चुनाव रणनीतिकार अमित शाह के, जो हर किसी को सक्रिय रखते हैं, पद के लिए कोई होड़ नहीं दिख रही है.

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उत्तर प्रदेश में मतदान का अंतिम चरण 7 मार्च को पूरा हुआ और उसके अगले दिन अमित शाह त्रिपुरा में भाजपा सरकार के चार साल पूरे होने पर आयोजित रैली को संबोधित कर रहे थे. वे भाजपा सरकार को ‘एक बार और मौका देने’ की अपील कर रहे थे. शाह के कार्यक्रमों पर नज़र डालिए. लगता है वे कभी थकते नहीं. हर चुनाव उनके लिए एक मिशन है, चाहे वह पंचायत का हो, पालिका का हो, विधानसभा का हो या लोकसभा का. यहां तक कि संसद में किसी विधेयक पर मतदान की बात भी उनमें जोश भर देती है. ऐसी भूमिका निभाने के लिए अमित शाह का कोई उत्तराधिकारी है? हमें जितना मालूम है, ऐसा कोई नहीं दिखता.

भाजपा इसको लेकर चिंतित नहीं होगी, क्योंकि शाह अभी 57 साल के ही हैं. लेकिन भाजपा को चिंता होनी चाहिए. पहली बात तो यह कि देश के गृह मंत्री पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनाव की बारीक से बारीक तैयारी में उलझे नहीं रह सकते. यह सब पूरे समय का काम है. दूसरे, कोई कितना भी तेज रणनीतिकार क्यों न हो, एक ही चीज दिन-पर-दिन, साल-दर-साल करते रहने से उसकी रचनात्मकता खत्म हो सकती है. इससे अंततः भाजपा की चुनावी रणनीति के भेद उजागर हो जाएंगे.

अगर भाजपा को इसकी चिंता नहीं है तो अमित शाह को तो होनी ही चाहिए. ‘अपरिहार्य’ होना हमेशा अच्छा नहीं होता, यह वे भी बेहतर जानते होंगे. 2016 में जब आनंदीबेन पटेल ने गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था तब शाह उनके उत्तराधिकारी बनना चाहते थे लेकिन मोदी उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की खबर के मुताबिक, उन्होंने कह दिया था कि ‘अमित को छोड़कर बाकी नाम पर विचार कर लें.’

अमित शाह आज भी ‘अपरिहार्य’ बने हुए हैं. अगली बार जब भूमिका बदलने का मौका सामने आएगा तब वे शायद इसे अपने लिए कमजोरी नहीं बनने देना चाहेंगे.


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भाजपा की दुविधा: शाह के बाद कौन?

भाजपा और शाह के लिए समस्या यह है कि उसके पदाधिकारियों की मौजूदा टीम में ऐसा कोई भी नहीं है जो सामाजिक ढांचे और उसकी खामियों को उतनी अच्छी तरह समझता हो और उसके मुताबिक राजनीतिक तथा चुनावी जुगत के लिए जमीन तैयार करता हो. कुछ पुराने पुरोधा जो यह काम कर सकते थे वे आज खेमे से अलग हैं.

भाजपा में चुनावी रणनीतिकार होने का दावा करने वाले तो बेशक कई हैं लेकिन जब उन्हें चुनाव प्रभारी या उप-प्रभारी बनाया जाता है तो शाह को उन्हें हर कदम पर रास्ता बताना पड़ता है. उन सब की ओर से कोई मौलिक आइडिया आता नहीं है.

मोदी और शाह ने 2014 के बाद से जिन मुख्यमंत्रियों को आगे बढ़ाया है उन पर जरा नज़र डाल लें. योगी आदित्यनाथ सफल साबित हुए हैं लेकिन वे चुनाव रणनीतिज्ञ नहीं हैं. वे भीड़ जुटा सकते हैं लेकिन उन्होंने कभी पार्टी के साथ मिलकर यह समझने की कोशिश नहीं की है कि भीड़ को वोट में कैसे बदला जाता है.

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी एक अच्छी खोज थे, वे एक कुशल प्रशासक थे और जोरदार विपक्षी नेता साबित हो रहे हैं. उन्होंने उद्धव ठाकरे की गठबंधन सरकार को सकते में डाल रखा है लेकिन पार्टी आलाकमान उनसे कुछ परहेज करता नज़र आ रहा है. 2019 में उन्होंने अजित पवार के समर्थन से सरकार बनाने की नाकाम कोशिश की जिसके कारण आलाकमान को शर्मसार होना पड़ा. फडणवीस को दिल्ली बुलाने का इरादा कभी पूरा नहीं किया गया.


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अमित शाह के बाद कौन?

कुछ और मुख्यमंत्री और नेता हैं जो खुद को चाणक्य समझते हैं लेकिन असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिसवा सरमा इस खांचे में फिट दिखते हैं. भीड़ जुटाने वाले मोदी और रणनीतिकार शाह को सरमा में अपनी परछाईं नज़र आ सकती है. पिछले साल असम विधानसभा के चुनाव में वे भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार और मुख्यमंत्री पद के अघोषित चेहरे थे. जो जनादेश मिला वह पूरी तरह उनके लिए ही था.

उन्हें मुख्यमंत्री बने 11 महीने हो गए हैं और वे आज असम में काफी लोकप्रिय हैं. भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य में जितने लोकप्रिय हैं उनके मुकाबले वे अपने राज्य में कहीं ज्यादा लोकप्रिय हैं. लोग उन्हें छूने के लिए कितने आतुर दिखते हैं यह गौर करने वाली बात है. लोग अपने बच्चों को उनकी गोद में डाल कर सेल्फी लेते दिखते हैं. वे उन्हें प्रेम से इसके लिए मौका देते हैं. एक प्रशासक के रूप में, चाहे वह वित्त का विभाग हो या स्वास्थ्य या शिक्षा या और कोई विभाग, उनका कामकाज असाधारण रहा है. इससे पहले सर्बानंद सोनोवाल की सरकार में उन्हें विकास का चेहरा माना जाता था.

एक राजनीतिक रणनीतिज्ञ के रूप में उनकी क्षमता पिछले सप्ताह भी उजागर हुई. राज्य सभा के चुनाव में भाजपा और उसकी सहयोगी ‘यूपीपीएल’ ने दो सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए, हालांकि दूसरी सीट के लिए उनके पास पर्याप्त संख्या नहीं थी. लेकिन वे दोनों सीटें जीत गए क्योंकि आठ विपक्षी विधायकों ने उनके पक्ष में वोट डाले. बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) ने जिस तरह वोट किया वह दिलचस्प था. भाजपा ने ‘यूपीपीएल’ से गठजोड़ करने के लिए ‘बीपीएफ’ को खारिज कर दिया था, जिसके कारण विधानसभा चुनाव में हाग्राम मोहिलरी ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया था. बीपीएफ के विधायकों ने पिछले गुरुवार को भाजपा-‘यूपीपीएल’ के उम्मीदवारों को वोट दिया.

पिछले सप्ताह अखबारों में छपी तस्वीरों में मुख्यमंत्री सरमा और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा मुस्कुराते हुए एक दूसरे से हाथ मिलाते दिखे जबकि अमित शाह बीच में खड़े थे. दोनों ही मुख्यमंत्री दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद के 12 में से 6 मसलों पर समझौते का दस्तावेज़ लिये खड़े थे. दोनों के मुस्कुराते चेहरों से यह पता नहीं लग रहा था कि भाजपा ने हाल में मणिपुर में संगमा की नेशनलिस्ट पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) को ठुकरा दिया था. एनपीपी को मणिपुर में दोबारा सत्ता में आई भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में जगह नहीं दी गई हालांकि उसने उसे समर्थन दिया था.

मेघालय में भाजपा के दो विधायकों में से एक को संगमा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में मंत्री बनाया गया है. अगर एनपीपी के अध्यक्ष ने मणिपुर में की गई उपेक्षा का बदला मेघालय में नहीं लिया तो इसकी एक वजह है. उनकी सरकार की कुंजी सरमा के हाथ में है, जिन्होंने 2018 के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस के सामने आने के बाद बहुदलीय गठबंधन करवाया था.

सरमा को उत्तर-पूर्व में कई और दिलचस्प राजनीतिक करामात करने के लिए भी जाना जाता है. मसलन 2017 में उन्होंने अरुणाचल प्रदेश को भाजपा का पहला मुख्यमंत्री दिया. उनके प्रयासों से पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल के सभी 33 विधायकों ने पाला बदल लिया और इस तरह पेमा खांडू के नेतृत्व में सरकार बनी और नागालैंड ‘विपक्ष मुक्त’ हो गया.

अमित शाह को उत्तर-पूर्व में अपने सिपहसालार और विश्वासपात्र सरमा पर जरूर गर्व हो रहा होगा. फिलहाल उन्हें अपना उत्तराधिकारी खोजने की जरूरत नहीं है. न ही असम के मुख्यमंत्री निकट भविष्य में दिल्ली आने में दिलचस्पी रखते होंगे लेकिन वे शाह का उत्तराधिकार संभालने की क्षमता का प्रदर्शन तो कर ही रहे हैं. इसलिए फिलहाल तो भाजपा के चुनाव चाणक्य उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपने पर विचार कर सकते हैं

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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