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नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती न बन जाए ममता क्या इसलिए BJP उन्हें बंगाल में उलझाये रखना चाहती है

भाजपा और टीएमसी की महत्वाकांक्षाओं के आईने में देखकर कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि उनके टकरावों से आगे न सिर्फ बंगाल बल्कि देश भी पीड़ित होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी/

सात सालों के मोदी राज में भारतीय जनता पार्टी को ‘हर चुनाव हर हाल में जीतने’ और ऐसा न कर पाने पर हारी हुई बाजी को पलटने में साम-दाम, दंड और भेद की जो बुरी आदत पड़ गई है, उसके मद्देनज़र शायद ही किसी को विश्वास रहा हो कि वह पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वहां सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के हाथों श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धरती पर पहली बार कमल खिलाने के अपने मंसूबे को लगे आघात को आसानी से सह लेगी.

मतदाताओं के फैसले को सदाशयता व विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लेने का उसे अभ्यास ही नहीं है. ऐसे में उससे यह अपेक्षा तो बेकार ही थी कि वह मान लेगी कि मतदाताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रचार-अभियान में ममता राज पर लगाई गई हिंसा और भ्रष्टाचार की सारी तोहमतों को खारिज कर दिया है.

इसलिए सोमवार को कुख्यात नारद स्टिंग मामले में सीबीआई द्वारा राज्य के दो मंत्रियों समेत चार टीएमसी नेताओं की गिरफ्तारी के साथ कोलकाता में शुरू हुए हाई-वोल्टेज ड्रामे को, जो अभी जानें कब तक जारी रहेगा, को लेकर शायद ही किसी को कोई हैरत हुई हो.

हैरत तो दरअसल तब होती, जब ममता को सबक सिखाने के लिए भाजपा ‘अपने राज्यपाल’ और ‘अपनी जांच एजेंसी’ के खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग पर उतरने से पहले, परंपरा के अनुसार, उनकी नई सरकार को खुद को सिद्ध करने के लिए कम से कम छह महीने की मोहलत देती. सो भी, जब कोरोना के मामले में गाफिल सिद्ध हुई मोदी सरकार को अपनी विफलताओं की ओर से ध्यान हटाने के लिए इस तरह के किसी न किसी राजनीतिक ड्रामे की सख्त आवश्यकता है.

इस सिलसिले में कैसे भूला जा सकता है कि राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने नई ममता सरकार को उसके शपथग्रहण के वक्त से ही सबक सिखाने शुरू कर दिये थे. उन्होंने न सिर्फ चुनाव बाद हिंसा के भाजपा के एजेंडे को आगे कर संविधान, कानून और संघीय ढांचे की अपेक्षाओं के अनुसार सत्ता संचालन को लेकर गहरी आशंकाएं जता डाली थीं बल्कि अपना पक्ष चुनने में भी देर नहीं की थी. उन्होंने राज्य के उन क्षेत्रों के दौरे का कार्यक्रम भी बना डाला, जहां भाजपा कार्यकर्ताओं पर ‘चिंताजनक हमले’ हुए थे.

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इतना ही नहीं, जिस केंद्र सरकार का राज्यपाल प्रतिनिधित्व करते हैं, उसने ममता की इस सफाई पर भी भरोसा नहीं किया था कि उनके तीसरी बार पद संभालने से पहले राज्य में जो कुछ भी दुर्भाग्यपूर्ण घटा, वह चुनाव आयोग की नाकामी है और अब वे किसी भी तरह की और किसी की भी हिंसा को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगी. उसने उनकी सरकार से कैफियत तो तलब की ही थी, हालात के मौके पर अध्ययन के लिए सेंट्रल टीम भी भेज दी थी.

केंद्रीय मंत्री वी. मुरलीधरन राज्य के दौरे पर गए. पश्चिमी मिदनापुर में उनके काफिले पर हमला हुआ और उसके लिए उन्होंने ‘तृणमूल कांग्रेस के गुंडों’ को कोसना शुरू किया तो ममता ने तुर्की-ब-तुर्की कहा था कि दरअसल, उन्हें जनादेश हजम नहीं हो रहा, इसलिए वे खुद घूम-घूमकर हिंसा भड़का रहे हैं.


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भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमलों के मुद्दे को बड़ा करने के लिए भाजपा और केंद्र सरकार इसके बाद भी चुप नहीं बैठी थीं. राज्यपाल ने राजभवन में सेंट्रल टीम की अगवानी की जबकि भाजपा ने आसमान सिर पर उठाये फिरने के लिए एक वरिष्ठ पत्रकार तक को अपना मारा गया कार्यकर्ता बता डाला था. वैसे ही, जैसे 1990 में विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या में ऐसे कारसेवकों को भी पुलिस फायरिंग में मरा बताया था, जो अयोध्या गये ही नहीं थे.

अब केंद्र ने एक और कदम आगे बढ़कर राज्य के सभी 77 भाजपा विधायकों को सीआईएसएफ और सीआरपीएफ कमांडो की सुरक्षा दे डाली है. ऐसे में उसका अगला कदम वही हो सकता था, जो सोमवार को सीबीआई ने कोलकाता में उठाया और जिसे टीएमसी नेता यशवंत सिन्हा ‘युद्ध की घोषणा’ बता रहे हैं.

राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने उक्त कई साल पुराने स्टिंग मामले में अभियोजन चलाने की इजाजत दी और सीबीआई ने राज्य के आवास व यातायात मंत्री फरहाद हकीम व पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी समेत चार तृणमूल कांग्रेस नेताओं को धर लिया.

उक्त स्टिंग के दौरान ये दोनों मंत्री कैमरे पर पकड़े गये थे, इसलिए कोई नहीं कहता कि वे दूध के धुले हैं. फिर सीबीआई यह भी कह सकती है कि बड़ी से बड़ी चुनावी जीत भी किसी दागी नेता को बेदाग नहीं करार देती. लेकिन इन गिरफ्तारियों के पीछे की उसकी नीयत की परीक्षा इस तथ्य से होगी कि वह मामले के अभियुक्तों में शामिल उन टीएमसी नेताओं के सारे खून माफ करती दिख रही है, जो पालाबदल कर भाजपा की तरफ चले गये हैं.

नंदीग्राम में ममता को हराने वाले शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ राज्यपाल ने उसे अभियोजन की अनुमति ही नहीं दी जबकि भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व सांसद मुकुल रॉय के खिलाफ उसने यह अनुमति मांगी ही नहीं है.

क्या इसके बाद भी इस मामले में भी उसकी पिंजरे के तोते वाली ‘परंपरागत’ भूमिका पर संदेह किया जा सकता है? खासकर जब उसने अपनी कार्रवाई के लिए अपने पालकों के माफिक लगने वाला वक्त भी चुना है.


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कई लोग इसे विधानसभा चुनाव के दौरान सीतलकुची में हुई फायरिंग के मामले में ममता सरकार द्वारा सीआईएसएफ के छह जवानों को भिजवाये गये सीआईडी के समन का बदला भी कह रहे हैं. भाजपाइयों के प्रिय तकियाकलाम के मुताबिक उनका मास्टरस्ट्रोक भी लेकिन इस सवाल का जवाब नदारद ही है कि जिस तरह सीबीआई ने विधानसभा अध्यक्ष बिमान बनर्जी से प्रोटोकॉल के तहत आवश्यक मंजूरी लिये बिना मंत्रियों की गिरफ्तारी की और विधानसभा अध्यक्ष कह रहे हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि वह ऐसी अनुमति के लिए राज्यपाल के पास क्यों गई.

अब यह सवाल और बड़ा हो जाता है कि ऐसा ही रहा तो संवैधानिक संस्थाओं द्वारा अपनी सीमाओं में रहकर एक दूजे का सम्मान करने की सर्वोच्च न्यायालय की पुरानी नसीहत का क्या होगा? यहां तो संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपाल तक सीबीआई द्वारा विधानसभा अध्यक्ष को दरकिनार करने में तो कोई गलती नहीं देखते लेकिन उसके कार्यालय के बाहर टीएमसी के रोष प्रदर्शन को लेकर ममता को संवैधानिक तंत्र की विफलता के नतीजों के आकलन को कह रहे हैं.

अलबत्ता, दूसरे पहलू पर जायें तो कहना होगा कि इस सबको लेकर ममता और उनकी पार्टी का गुस्सा भी इस कारण बहुत नैतिक नहीं लगता कि परस्पर टकराव व अनैतिक जोर-आजमाइश के मामले में ‘दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई’ की स्थिति है. अन्यथा ममता के छह घंटे तक सीबीआई के दफ्तर में धरना दिये रखने और उनके कार्यकर्ताओं के राजभवन घेरने की कोई जरूरत नहीं थी. इससे उनका पक्ष कमजोर ही हुआ है. कोलकाता हाई कोर्ट ने उनके गिरफ्तार मंत्रियों को मिली जमानत पर रोक लगाई तो उसके पीछे मुख्य कारण उनके पक्ष द्वारा कानून के शासन को पैदा किये गये अंदेशे ही थे.

इस सवाल पर विचार करें कि इस ड्रामे का अंत कहां और किस रूप में होगा, तो कह सकते हैं कि अभी तो यह इब्तिदा है- केंद्र व राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा व टीएमसी के टकरावों की पटकथा का छोटा-सा हिस्सा. इन दोनों की महत्वाकांक्षाओं के आईने में देखकर कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि उनके ऐसे टकरावों से आगे न सिर्फ बंगाल बल्कि देश भी पीड़ित होगा. क्योंकि भाजपा ममता को हर हाल में पश्चिम बंगाल में ही उलझाये रखना चाहेगी, ताकि वे खुद को किसी भी तरह ऐसी राष्ट्रीय भूमिका के लिए न तैयार कर पायें, जो नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती बन जाये. निस्संदेह, ममता उसे इस मोर्चे पर भी शिकस्त देना चाहेंगी.

ऐसे में आगे-आगे देखिये होता है क्या? फिलहाल, भाजपा के विकल्प बहुत सीमित हैं. ममता उसकी आंख की कितनी भी बड़ी किरकिरी क्यों न हों, उनकी सरकार बर्खास्त करने से पहले उसे सौ बार सोचना पड़ेगा. उनका भारी बहुमत खरीद-फरोख्त के भाजपाई रास्ते को भी शायद ही सफल होने दे. हां, इस टकराव में मोदी सरकार संवैधानिक परंपराओं के उल्लंघन की राह चलकर भी अपनी फजीहत ही करायेगी क्योंकि संविधान के अनुपालन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उसी की है.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)


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