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राज्यों में प्रेसिडेंशियल सिस्टम लागू कर विधायकों की भूमिका को सीमित करें, भ्रष्टाचार खुद ब खुद घट जाएगा

भ्रष्टाचार से प्रभावी ढंग से केवल तभी निपटा जा सकता है जब शीर्ष स्तर--राजनीतिक कार्यपालिका--से सशक्त पहल की जाए.

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भारतीय संसद, फाइल फोटो | प्रवीण जैन, दिप्रिंट

क्या एक सफल लोकतंत्र होना काफी है? आजादी के 70 से ज्यादा साल बीतने के बाद भी भारतीयों का एक बड़ा हिस्सा गरीब बना हुआ है. हम गरीबी रेखा से नीचे या बीपीएल की परिभाषा को एकदम निचले स्तर पर रखकर केवल अपनी विफलता छिपाना चाहते हैं, जिसके तहत यदि कोई व्यक्ति प्रति दिन 17 रुपये से अधिक कमाता है, तो उसे गरीब नहीं माना जाता.भारत की मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर सामाजिक रूप से हमें विकसित बुलाने के लिए बहुत ज्यादा है. और मानव विकास सूचकांक की 189 देशों की सूची में, हम 129 वें स्थान पर हैं.

हमारी सारी दुर्गति की एक बड़ी वजह भ्रष्टाचार है. यह तथ्य जगजाहिर है कि अधिकांश सरकारी ठेकों में कुछ प्रतिशत हिस्सा विभिन्न स्तरों पर नेताओं और अधिकारियों के बीच दलाली के तौर पर बंटता है. भ्रष्टाचार से प्रभावी ढंग से केवल तभी निपटा जा सकता है जब शीर्ष स्तर–राजनीतिक कार्यपालिका–से सशक्त पहल की जाए.

लेकिन नेताओं द्वारा भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना बाघ की पूंछ पकड़ने जैसा है-आप या तो पूंछ पकड़कर रख सकते हैं या मरने का विकल्प चुन सकते हैं; बाघ को मारना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है. राजनीतिक और चुनावी भ्रष्टाचार की जड़ें नौकरशाही और अन्य अधिकारियों के बीच तक फैली हैं.

इसलिए, हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि एक ईमानदार और कुशल व्यक्ति सरकार का मुखिया हो और उसकी मदद के लिए एक अच्छी और तकनीकी रूप से सक्षम मंत्री परिषद हो? मौजूदा स्थिति में यह चांद को पाने जैसा लग सकता है लेकिन यह असंभव नहीं है.


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विशेषज्ञों का चयन

भारत के लिए सुधारात्मक उपाय एक दोहरी शासन प्रणाली की ओर बढ़ा सकते हैं– केंद्र में संसदीय प्रणाली बनाए रखना और राज्य स्तर पर राष्ट्रपति प्रणाली अपनाना. यद्यपि राष्ट्रपति प्रणाली में कुछ कमियां हैं लेकिन इसमें निहित फायदे इसे गंभीरता से चिंतन लायक बनाते हैं.

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राज्य स्तर पर एक राष्ट्रपति प्रणाली में मुख्यमंत्री को विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल करने की छूट होगी. मौजूदा व्यवस्था में ज्यादातर लोग पार्टी के लिए वोट करते हैं न कि उम्मीदवार के लिए. इस प्रकार, उन उम्मीदवारों की गुणवत्ता परखने की कोई व्यवस्था नहीं है जो बाद में मंत्री परिषद में जगह पाते हैं. निर्वाचित विधायकों में प्रतिभा दिखती है तब भी मंत्री परिषद का चयन करते समय राजनीतिक विचार-विमर्श अन्य सभी कारकों पर भारी पड़ता है. राजनीतिक रूप से कद्दावर नेता (उनकी साख और आपराधिक पृष्ठभूमि कुछ भी रही हो) सबसे महत्वपूर्ण विभाग पाते हैं. इस प्रक्रिया में नुकसान केवल और केवल शासन का ही होता है और चुनाव दर चुनाव यही परिदृश्य दोहराया जा रहा है.

दूसरा, मंत्री के रूप में विशेषज्ञ को शामिल करने पर स्पेशलिस्ट-जेनरलिस्ट-स्पेशलिस्ट (एसजीएस) पदानुक्रम मॉडल के लिए मार्ग प्रशस्त होगा जबकि मौजूदा समय में जेनरलिस्ट-जेनरलिस्ट-स्पेशलिस्ट (जीजीएस) प्रणाली लागू है, जिसमें कोई विभाग संभालने वाला मंत्री विषयों की सामान्य जानकारी रखने वाला होता, इसी तरह सचिव, जो आमतौर पर आईएएस होते हैं, भी जेनरलिस्ट होते हैं और संबंधित विभाग का प्रमुख एक विशेषज्ञ होता है.

मौजूदा मॉडल अपेक्षित नतीजे नहीं दे पा रहा क्योंकि प्रत्येक विभाग के लिए विशिष्ट स्तर के ज्ञान और विशेषज्ञता की जरूरत होती है, जो सामान्य तौर पर एक मंत्री को हासिल नहीं होती है. एक विशेषज्ञ मंत्री विभाग को एक व्यापक दृष्टिकोण और दिशा प्रदान करने में सक्षम होगा, जिस पर संबंधित विभाग प्रमुख अमल करेगा, और तब जेनरलिस्ट आईएएस अधिकारी दो विशेषज्ञों के बीच एक प्रभावी संगठनात्मक संपर्क के तौर पर कार्य कर सकता है.


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मतदाताओं को अधिक अधिकार

तीसरा, ‘वोट के लिए नकद’ की संस्कृति पहले ही हमारे लोकतांत्रिक प्रयोग के खात्मे की वजह बनती जा रही है. राज्य स्तर पर राष्ट्रपति प्रणाली होने से वोट खरीदने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगी, भले ही पूरी तरह खत्म ना हो पाए. मौजूदा समय में लोग वोट देने के लिए धन इसलिए भी स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि जिसे वोट दे रहे हैं उस प्रत्याशी और शासन की गुणवत्ता के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है. उम्मीदवार मंत्री बन सकता है और नहीं भी बन सकता है. इसके अलावा, मतदाता इसे लेकर भी आश्वस्त नहीं होते कि उनकी चुनी पार्टी को बहुमत मिलेगा और वह सरकार बनाएगी.

हालांकि, एक राष्ट्रपति प्रणाली में लोगों के वोट का सीधा असर उनके भविष्य के नेता पर पड़ेगा और वे निश्चित रूप से धन की पेशकश की तुलना में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की साख ज्यादा परखेंगे. उम्मीदवारों के बीच सीधी बहस से मतदाताओं को यह समझने में मदद करेगी कि उनमें से प्रत्येक से क्या उम्मीद की जाए.


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विधायक और विधायिका को अलग करना

चौथा, राष्ट्रपति प्रणाली न केवल शीर्ष कार्यकारियों (मंत्रियों) की गुणवत्ता में सुधार करेगी, बल्कि विधायकों की गुणवत्ता भी सुधारेगी. राज्य विधानसभा के चुनाव राजनीतिक कार्यकारी के निर्वाचन से जुड़े नहीं होंगे और विधायक की भूमिका कानून बनाने तक सीमित होगी. इस प्रक्रिया से विधायकों का कद थोड़ा कम होगा; फिर वे प्रमुख पदों पर पोस्टिंग और ठेकों की प्रक्रिया प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होंगे.

इस तरह के सीमित दायरे के बाद चुनाव लड़ने और विधायक बनने के लिए टिकट पाने की बहुत ज्यादा मारामारी नहीं रहेगी, जैसे कि यह सत्ता और समृद्धि हासिल करने का टिकट हो; केवल विधायी भूमिकाओं में रुचि रखने वाले लोग ही चुनाव लड़ने के लिए आगे आ सकते हैं. इसके अलावा, एक बार जब मतदाता समझ जाएंगे वे सरकार के स्तर पर किसी बदलाव के लिए नहीं बल्कि केवल विधायिका में अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए वोट डाल रहे हैं, तो वे उम्मीदवारों की साख को परखेंगे न कि यह देखेंगे कि उन्हें वोट डालने के बदले कितना पैसा मिल रहा है.

निर्वाचित सरकार स्थित होगी

पांचवां, मुख्यमंत्री के निश्चित कार्यकाल के साथ राष्ट्रपति प्रणाली स्थिरता भी प्रदान करेगी जो एक सरकार के लिए बेहद जरूरी है. भगवान ही जाने आजादी के बाद से अब तक अमूमन जनादेश के खिलाफ कितनी बार राजनीतिक दलों का विघटन, खरीद-फरोख्त और सत्ता परिवर्तन हुआ. यहां तक कोरोनावायरस महामारी के कारण एक राष्ट्रीय जनस्वास्थ्य आपातकाल के दौरान भी भारतीय विधायक मध्यप्रदेश में ऐसे प्रलोभन का विरोध नहीं कर पाए, या जैसा कि राजस्थान में भी दिख रहा है.

छठा, वर्तमान व्यवस्था में कोई मुख्यमंत्री तमाम कारकों की वजह से बड़े सुधारों में असमर्थ होते हैं. इसके प्रमुख है मंत्री परिषद का समर्थन खोने और इसके कारण सत्ता गंवा देने का डर. राष्ट्रपति प्रणाली, जो एक राजनीतिक नौसिखिये को भी मुख्यमंत्री बनने का अवसर देती है और कार्यकाल की सुरक्षा गारंटी भी देती है, निश्चित रूप से किसी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति को अवसर के अधिकतम उपयोग के लिए प्रेरित करेगी. यदि कोई व्यक्ति निश्चित कार्यकाल की गारंटी का राज्य हितों के खिलाफ कार्य करने के लिए दुरुपयोग करता है, तो अनुच्छेद 356 और 365 के तहत मौजूद प्रावधान लागू किए जा सकते हैं. राज्य स्तर पर अधिकारों का दुरुपयोग रोकने के लिए हमारे संविधान में पुख्ता व्यवस्था है.

कार्यकाल सीमा, वंशवाद का खात्मा

सातवां, हम एक ऐसी राष्ट्रपति प्रणाली अपना सकते हैं जिसमें एक मुख्यमंत्री के लिए दो कार्यकाल की सीमा हो. इससे भारतीय राजनीति में चाटुकारिता की संस्कृति खत्म हो जाएगी. कई राज्यों ने किसी एक ही व्यक्ति को कई कार्यकाल तक मुख्यमंत्री बने रहते देखा है. करुणानिधि पांच पूर्ण कार्यकाल तक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद पर आसीन रहे. इसी तरह, अन्नाद्रमुक के पदाधिकारियों की तरफ से लगाए गए कई पोस्टरों में कोई भी देख सकता है कि जयललिता को ‘तमिलनाडु की स्थायी मुख्यमंत्री’ के तौर पर पेश किया जा रहा है. कई अन्य राज्यों में भी इसी तरह की स्थिति है. एक राष्ट्रपति प्रणाली में यह संस्कृति समाप्त करने की संभावना होगी, जो मौजूदा परिदृश्य में इस कदर छाई है कि किसी राजनीतिक संगठन के भीतर नेताओं को नेतृत्व परिवर्तन के लिए सवाल उठाने तक की हिम्मत नहीं होती है. इस तरह की अवधारणा बन गई है कि कमान संभालने वाले किसी एक व्यक्ति के बिना पार्टी, और यहां तक कि पूरा राज्य ही हाथ से निकल जाएगा.

एक अन्य अवांछनीय विशेषता वंशवादी संस्कृति है जिसमें केवल एक नेता के बेटे या बेटी को स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता है. सामंतवादी मानसिकता हमारी सामूहिक चेतना से हटी नहीं है. दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र का गौरव हासिल होने के बावजूद भारत में पार्टियों के भीतर लोकतंत्र का पूर्णत: अभाव है. यह सामाजिक रूप से जागरूक युवाओं को राजनीति में आने के प्रति हतोत्साहित करता है. यदि हमारे पास मुख्यमंत्री पद के लिए दो कार्यकाल ही होंगे, तो निश्चित तौर पर दूसरे नंबर के नेता उभरेंगे. किसी भी नेता को अपरिहार्य नहीं माना जाएगा और वास्तविक रूप से समानता को बढ़ावा मिलेगा.


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दोनों प्रणालियों में सर्वश्रेष्ठ

अंतत:, राष्ट्रपति प्रणाली संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने का मार्ग भी प्रशस्त करेगी-यदि सब नहीं तो भी तकरीबन अधिकांश राज्यों में तो ऐसा हो ही जाएगा. मौजूदा व्यवस्था में हर साल चुनावी साल होने के साथ केंद्र सरकार हमेशा चुनावी मोड में ही रहती है, जो किसी भी तरह से काम करने की आदर्श स्थिति नहीं होती है.

हम राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने के विचार को लेकर बहस करते रहे हैं. लेकिन हम संसदीय और राष्ट्रपति दोनों ही प्रणालियां का सर्वश्रेष्ठ अपना सकते हैं. आलोचकों का तर्क हो सकता है कि भारत में प्रबंधकीय संकट के अन्य कारण हैं और यह विचार कारगर नहीं होगा. लेकिन यह तथ्य कि हम अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ रहे, यह दर्शाता है कि कुछ प्रणालीगत खामी है. दोहरी प्रणाली पर गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है और इसे किसी एक राज्य में पायलट बेसिस पर आजमाया जा सकता है. हमें याद रखना होगा जब घटकों के रूप में राज्य प्रभावी ढंग और कुशलता से शासित होंगे तभी देश समग्र रूप से प्रगति कर पाएगा.

(अरुण राज एक आईएएस अधिकारी हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं सरकार के नहीं हैं.)

(लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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