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2022 में भारतीय राजनीति के लिए मिला सबक- मोदी की नाकामियों को तो लोग भुला देते हैं पर BJP की नहीं

जवाहर लाल नेहरू अब भी आगे हैं और इंदिरा गांधी उसके बाद लेकिन यह भी सही है कि नरेंद्र मोदी काफी तेजी से उनके नजदीक पहुंच रहे हैं.

पीएम मोदी नई दिल्ली में बीजेपी हेडक्वार्टर पहुंचे । फोटोः सूरज सिंह बिष्ट । दिप्रिंट

राजनीतिक नेताओं के बारे में हमारी जो धारणा है वह क्या 2022 में घटी घटनाओं के कारण बदल गई? मेरा अनुमान है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है. 2022 बेशक घटना प्रधान साल रहा लेकिन ऐसे बदलाव काफी छोटे रहे, जो 2023 में भी महत्वपूर्ण माने जाएंगे.

मोदी और भाजपा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में आपकी जो भी धारणा रही हो, इसमें कोई शक नहीं है कि उन्होंने ऐसा कुछ कर दिया है कि उन्हें आज़ाद भारत के तीन सबसे महत्वपूर्ण राजनेताओं में गिना जाएगा.

जवाहरलाल नेहरू (जिनके लिए मोदी के पास कोई समय नहीं है) अभी भी सबसे अग्रणी हैं और इसी तरह इंदिरा गांधी (जिन्हें मोदी कुछ मामलों में एक आदर्श मान सकते हैं) को भी अग्रणी माना जा सकता है लेकिन यह साफ दिख रहा है कि मोदी तेजी से इन सबकी बराबरी करने की ओर अग्रसर हैं.

मोदी उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जहां वे राजनीति से ऊपर नज़र आने लगे हैं. उनके प्रशंसक उन्हें हिंदू पौराणिक ग्रंथों वाली परोपकारी हस्ती के रूप में देखते हैं जिसके दिल में हमेशा अपनी प्रजा का हित बसा रहता है.

समस्या पैदा होती है तो उसका दोष उनके इर्दगिर्द के लोगों के मत्थे मढ़ दिया जाता है, कभी मोदी के मत्थे नहीं.

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किसी भी नेता के लिए यह वांछित स्थिति होती है. हालांकि लोग कहते हैं कि ऐसी स्थिति स्थायी नहीं होती मगर सच्चाई यह है कि यह स्थिति लोगों की उम्मीद से ज्यादा समय तक बनी भी रही है.

1971-72 में ‘देवी’ मानी जाने वाली इंदिरा गांधी 1975 में मुश्किल में घिर गई थीं. नेहरू के बाद किसी नेता ने जनता से इतने लंबे समय तक सम्मान और प्यार नहीं हासिल किया.

इसके अलावा, मोदी की नाकामियों और गलतियों को जल्दी ही भुला दिया जाता है. आज नोटबंदी के कारण आई मुसीबत की बात कौन करता है? कोविड के डेल्टा लहर के दौरान उनकी सरकार की बदइंतजामी की याद आज जनता के दिमाग में धुंधली हो चुकी है.

भारत की चीन नीति की खामियों पर आज कोई उंगली उठाता है तो उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि वह देश विरोधी बात कर रहा है.

लेकिन ऐसा भाजपा के मामले में नहीं है. वह हिंदी पट्टी से आगे पैर फैलाकर सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय पार्टी बनना चाहती है. लेकिन साफ है कि उसकी यह रणनीति मुश्किल में है.

असम में उसकी यह रणनीति कारगर रही मगर पश्चिम बंगाल में बुरी तरह विफल रही. दक्षिण भारत में भाजपा कर्नाटक के सिवाय कहीं महत्व नहीं रखती लेकिन वहां भी उसकी सरकार अलोकप्रिय है.

पंजाब में वह अपना प्रभाव न फैला सकी और हिंदी पट्टी में भी उसे समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. बिहार में नीतीश कुमार के अलग होने के बाद उस राज्य को लेकर भी वह आश्वस्त नहीं हो सकती.

मध्य प्रदेश में भाजपा ने चुनाव जीतकर नहीं बल्कि कांग्रेस की सरकार में फूट डालकर अपनी सरकार बनाई थी. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार को गिराने में वह अब तक नाकाम रही है. हिमाचल प्रदेश में उसे स्पष्ट चुनावी हार का सामना करना पड़ा है.

लेकिन जिन राज्यों में आज उसका जनाधार है वहां वह मजबूत स्थिति में है, जैसे गुजरात और उत्तर प्रदेश. लेकिन इरादा तो पूरे भारत में चुनाव जीतने का है, और वह हमेशा पूरा होता नहीं दिखता है.

महाराष्ट्र में, वह चुनाव-पूर्व के गठबंधन को तोड़ने की सजा के रूप में शिवसेना में फूट डालकर ही अपनी सरकार बना पाई.

मोदी सरीखे लोकप्रिय नेता के होते हुए तो उसे विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना चाहिए था.


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कांग्रेस पार्टी

कांग्रेस ने दिल्ली में बैठे अपने कर्णधारों की अक्षमता के कारण पंजाब में अपने खिलाफ ही गोल दाग कर 2022 की शुरुआत की और प्रशांत किशोर को वापस लौटा कर एक मौका गंवाया लेकिन साल का अंत उसने बेहतर तरीके से किया. तीन सकारात्मक बातें हुईं.

पहली यह कि कांग्रेस ने अपना अध्यक्ष चुन लिया. मल्लिकार्जुन खड़गे किसी की पसंद तो नहीं थे मगर शुरुआती संकेत यही हैं कि पार्टी के नेता उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं.

अच्छी बात यह है कि सोनिया गांधी मिलने वालों से राजनीति पर बात नहीं करतीं और उनके बच्चे खड़गे के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करते हैं.

दूसरी बात यह है कि हिमाचल में जीत ने यह दिखा दिया है कि पार्टी हिंदी पट्टी में अभी भी चुनाव जीत सकती है. ऐसा नहीं है कि भाजपा ने मुक़ाबला नहीं किया.

उसके अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने वहां चुनाव अभियान की योजना बनाई थी और मोदी ने भी जोश के साथ प्रचार किया था. फिर भी कांग्रेस जीत गई.

तीसरी बात यह कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का चुनावी लाभ उसे भले न मिला हो, इसने कांग्रेस की कई तरह से मदद की.

इसने राहुल की वह छवि मिटा दी कि वे एक लापरवाह नेता हैं जो हर महीने छुट्टी मनाने विदेश चले जाते हैं. इस यात्रा ने पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश भरा है.

इसने एजेंडा को भाजपा के हाथ से छीना है, जो कांग्रेस को एक आलसी परिवार द्वारा चलाई जा रही घोटालेबाजों की पार्टी के रूप में बदनाम कर दिया था.

‘मोहब्बत बनाम नफरत’ का एजेंडा तय करके भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस को अपनी कोशिश करने और खुद को नये रूप में प्रस्तुत करने का मौका दिया है.

बेशक, इतने से काम नहीं चलेगा. कमजोरी कायम है. गुजरात चुनाव के नतीजे ने दिखा दिया कि कांग्रेस की व्यवस्था कितनी कमजोर है. उसने 2017 के विधानसभा चुनाव में हासिल की गई अपनी बढ़त भी गंवा दी.

लेकिन उसने जहां से 2022 की शुरुआत की थी उसके मुक़ाबले साल के अंत में वह बेहतर स्थिति में दिखी.

आम आदमी पार्टी

‘आप’ के लिए यह वर्ष मिला-जुला रहा. उसने अंततः दिल्ली के बाहर भी चुनाव जीतकर विजयी शुरुआत की और साल का अंत दिल्ली नगर निगम को भाजपा के हाथ से छीन कर किया. लेकिन बहुत कुछ गलत भी हुआ.

हम कभी-कभी भूल जाते हैं कि अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार और ताकतवर नेताओं का बचाव करने वाली राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ जिहाद के लिए जनता की नज़रों में ऊपर चढ़े थे.

लेकिन इस साल भाजपा ने आप को उस हर चीज के प्रतिबिंब के रूप में पेश करने में सफल रही जिसका केजरीवाल कभी विरोध करते थे.

भ्रष्टाचार के आरोपों (हवाला सौदों से लेकर शराब नीति तक) के मद्देनजर केजरीवाल की विरोधाभासी स्थिति की अनदेखी मुश्किल हो गई.

दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के इस दावे को मान भी लें कि भाजपा उनके मंत्रियों को फंसा रही है (मेरे ख्याल से इसमें कुछ दम भी है), तो भी इसके विपरीत उपसंहार की झलक भी दिखती है.

केजरीवाल भी हर किसी के खिलाफ अप्रामाणिक आरोप लगाकर और हर किसी को बुरा बताकर मशहूर हुए थे. तो अब वे किसी को किस मुंह से बुरा कह सकते हैं?

इसके अलावा, जेल में मालिश कराने और अच्छे भोजन का मजा लेते उनके मंत्री सत्येंद्र जैन की तस्वीरों ने इस आरोप को पुष्ट ही किया कि आप के नेता उसी तरह विशेषाधिकारों का उपभोग कर रहे हैं जिस तरह का उपभोग करने के आरोप केजरीवाल दूसरे नेताओं पर लगा रहे थे.

दिल्ली में केजरीवाल की लोकप्रियता उनके सुशासन के कारण है (पंजाब में उनकी पार्टी की सरकार के चंद महीने इसकी तस्दीक नहीं करते) लेकिन शेष भारत में उनकी पार्टी यह दावा करती है कि वह भाजपा का मुक़ाबला कांग्रेस से बेहतर ढंग से कर सकती है.

लेकिन अब तक तो वह भाजपा को कोई वास्तविक नुकसान नहीं पहुंचा पाई है. गुजरात के चुनाव में केजरीवाल अपनी पार्टी की जीत के दावे कर रहे थे लेकिन भाजपा ने अपने वोट प्रतिशत में वृद्धि कर ली.

दिल्ली नगरनिगम के चुनाव में भाजपा ने अपने वोट बचाए रखे. दोनों मामलों में, आप ने कॉंग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई.

मौजूदा प्रदर्शन के मद्देनजर आप को भाजपा का किसी तरह का विकल्प बनने में कई साल लग जाएंगे. तब तक, वह भाजपा विरोधी वोट काट कर भाजपा को ही फायदा पहुंचाती रहेगी.

मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता, मगर क्या केजरीवाल यही चाहते हैं? 2019 में, जब कांग्रेस ने दिल्ली के चुनाव में आप से तालमेल करने से मना कर दिया था तब केजरीवाल ने ट्वीट किया था— ‘जब पूरा देश चाहता है कि मोदी-शाह जोड़ी हारे, तब कांग्रेस भाजपा विरोधी वोटों में विभाजन करके भाजपा की मदद कर रही है. अफवाह हैं कि कांग्रेस और भाजपा के बीच कोई गुप्त समझौता हुआ है.’

फिर वही सवाल है— अब वे किसी को किस मुंह से बुरा कह सकते हैं?

साल 2023

नेहरू और इंदिरा तब सबसे ताकतवर थे जब विपक्ष कमजोर और बिखरा हुआ था. जब विपक्ष मजबूत हुआ तब इंदिरा मुश्किल में पड़ गईं.

अंततः, एकजुट विपक्ष ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया. इसमें एक सबक छिपा है. विपक्ष जब तक एकजुट नहीं होता, मोदी तब तक जनता के दिलों में एकमात्र महत्वपूर्ण नेता के रूप में बने रहेंगे. और भारत को कई वर्षों तक मोदी के वर्चस्व का गवाह बना रहेगा.

(वीर सांघवी प्रिंट और टेलीविजन जर्नलिस्ट और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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