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दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकतें अस्थिरता बढ़ा रही हैं, भारत संतुलन बनाए रखने के लिए क्या करे

दुनिया के वित्तीय, रणनीतिक, आर्थिक केंद्र बने अमेरिका, चीन, यूरोप आज चुनौतियों से रू-ब-रू हैं, ऐसे में उन सुर्खियों से आगे देखने की जरूरत है, जो संरचनात्मक दरारों और अराजकता पर ज़ोर दे रही हैं.

प्रज्ञा घोष का चित्रण | दिप्रिंट

एक समय ऐसा भी था जब दुनिया की अग्रणी अर्थव्यवस्थाएं वैश्विक आर्थिक वृद्धि को गति प्रदान कर रही थीं, और अपने-अपने तरीके से सबके लिए मिसाल बनी हुई थीं. अमेरिका, उत्तरी यूरोप एक देश, जापान और चीन ऐसी ही अर्थव्यवस्थाएं थीं. लेकिन पिछले 15 वर्षों में, ये वैश्विक अस्थिरता की स्रोत बन गई हैं.

2008 का वित्तीय संकट अमेरिकी वित्तीय पूंजीवाद के अतिरेकों से पैदा हुआ; कोविड का वायरस अमेरिकी और चीनी शोधकर्ताओं के प्रायोगिक सहयोग से पैदा हुआ. इनमें से कई देशों की सरकारों ने आर्थिक संकट के जवाब में विशाल पैमाने पर राहत पैकेज दिए— पहले बैंकों को, फिर कंपनियों और तब उपभोक्ताओं को. इससे कर्ज का बोझ बढ़ता गया और इसके असर से बचने के लिए मुद्रा नीति को सामान्य सीमा से ज्यादा खींचा गया.

स्थिति हाल में ज्यादा पेचीदा हो गई जब महाशक्ति के धराशायी होने का अस्तित्ववादी संकट खड़ा होने लगा, जबकि उभरती महाशक्ति ने बेरोकटोक वाणिज्य से लाभ कमाया. पहला संकट कई दशकों बाद पहली बार युद्ध के जरिए भौगोलिक कब्जे के फलस्वरूप खड़ा हुआ, जबकि उभरती महाशक्ति भी यही कोशिश कर सकती है हालांकि उसके वाणिज्यवाद के कारण कई देशों के व्यापारिक संबंध बिगड़े और उनके अंदर विषमताएं पैदा हुईं.

बढ़ती असमानताओं ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि भूमंडलीकरण से किसे फायदा हुआ. अर्थव्यवस्था में पूंजी के मालिकों (मुनाफा) और श्रम का योगदान देने वालों (वेतन) के बीच जायज हिस्सेदारी को लेकर भी सवाल उभरे. और लगभग अनिवार्य रूप से, दुनिया उदार (आलोचक लोग नव-उदार कहेंगे) युग के उत्कर्ष से गुजरी, जबकि निराश मतदाताओं ने राष्ट्रवाद, क्षेत्रवाद, लोकलुभावनवाद, और सूक्ष्म नस्लवाद का सहारा लिया.


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दुनिया के सत्ता-केंद्रों ने राजनीतिक झटके भी दिए. अमेरिका जैसे सबसे आश्वस्त लोकतंत्र को भी राजनीतिक भविष्य अनिश्चित दिख रहा है क्योंकि वहां के जनमत संग्रहों में आधा देश कह रहा है कि वह अगले चुनाव के नतीजों को कबूल नहीं करेगा. यूरोप में उत्तर में स्वीडन से लेकर डसखिन में इटली तक दक्षिणपंथी नव-फासीवादियों ने भारी समर्थन जुटा लिया है.

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अब आर्थिक ताकतों ने आर्थिक बंदिशें तोड़ना शुरू किया है और हाशिये पर के बदकिस्मतों को और झटके दे रही हैं. ब्याज दरों में तेज उथल-पुथल के कारण देशों से पूंजी का आना-जाना शुरू हो गया है और मुद्राओं की कीमतें ऊपर-नीचे हो रही हैं. उम्मीद थी कि मुक्त व्यापार के कारण पैदा हुई परस्पर निर्भरता युद्ध नहीं होने देगी. लेकिन दुनिया जब एक-दूसरे के दुश्मन खेमों में बंट रही है, तब भूमंडलीकरण के सप्लाई चेन टूट गए हैं क्योंकि मुख्य लक्ष्य अब कार्यकुशलता नहीं बल्कि मजबूती हासिल करना है.

जद्दोजहद करते चीन समेत तमाम सरकारें सुस्त या कमजोर आर्थिक वृद्धि से पीछा छुड़ाने के लिए हाथ-पैर मार रही हैं लेकिन वे कर्ज और मंदी तथा मुद्रास्फीति के परस्पर विरोधी दबावों के बीच फंस गई हैं. मुद्रास्फीति सैन्य युद्ध के साथ-साथ आर्थिक युद्ध की वजह से भी पैदा हुई है. ब्रिटेन ने हताशा में इसके जवाब में ‘मिनी बजट’ की आड़ में बजट-तोड़ पेश किया है, जिसके कारण मुद्रा की कीमत में तेजी से गिरावट आई है और यह जोखिम पैदा हो गया है कि बॉन्ड बाज़ार कहीं लेहमैन शैली में धड़कन बंद करते हुए ठप न हो जाए.

अमेरिका, चीन और यूरोप दुनिया के वित्तीय, रणनीतिक और आर्थिक केंद्र बने हुए हैं. लेकिन इन सबको एक साथ व्यवस्थित चुनौती मिल रही है. इसलिए उन सुर्खियों से आगे देखने की जरूरत है, जो संरचनात्मक दरारों और अराजकता पर ज़ोर दे रही हैं. क्या चीन की असली समस्या यह हो सकती है कि वह मध्य स्तरीय आय के जाल में फंस गया है और वृद्धि के नये इंजन नहीं खोज पाया है जो उसे श्रम केन्द्रित निर्यातों और प्रॉपर्टी में नकली उछाल से निजात दिलाए? तब एशिया में सत्ता केंद्र बदलने और इसके भावी स्वरूप का क्या होगा, जबकि पड़ोस के जापान, कोरिया, और ताइवान उच्च स्तरीय आय की सफलता के उदाहरण पेश कर रहे हैं?

अमेरिका में कम आबादी वाले राज्य क्या चुनावी घड़ी की सुई को सिविल राइट वाले दौर की ओर मोड़ रहे हैं और अल्पसंख्यकों का स्थायी शासन की व्यवस्था कर रहे हैं? जिस देश का नस्लीय समीकरण 1960 वाले दशक के समीकरण से बिलकुल भिन्न हो चुका है, वह क्या इस तरह के कब्जे को कबूल करेगा? और यूरोप में, क्या रूस को हमेशा के लिए बेड़ी में डालना पड़ेगा? और क्या उसके पश्चिम में उससे अलग-थलग हो चुके पड़ोसी देशों को आश्वस्त किया जा सकता है, जिनकी सीमाएं असुरक्षित हैं? अगर दूसरा कोई रास्ता होता तो क्या यूक्रेन युद्ध को टाला जा सकता था?

इस तरह के सवालों के जवाब तुरंत नहीं मिलते लेकिन वे घरेलू दायरे में गूंजते रहते हैं. भारत जैसी मझोले स्तर की ताकत भविष्य के झटकों का क्या जवाब तैयार कर सकती है? ऐसे झटके असंतुलित हो चुके विश्व के बदल जाने के बाद मिलने ही वाले हैं. इस सवाल का जवाब वही हो सकता है जो उथल-पुथल भरे दौर में व्यक्तियों या कंपनियों की ओर से आ सकता है—सजग रहो, कवच और अपनी क्षमताएं मजबूत करते रहो, तैयार करते रहो, और साथ ही बाहर की दुनिया पर नज़र रखते हुए अपने उपक्रमों के लिए गुंजाइश बनाते रहो.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)


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