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शौचालय निर्माण की अफरा-तफरी में हुई इस गंभीर चूक का नतीजा भयावह हो सकता है

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर स्वच्छता मिशन की कामयाबी का आंकड़ा जो भी हो, लेकिन जमीनी हकीकत गंभीर खामी की ओर इशारा कर रही है.

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स्वच्छ भारत मिशन के तहत बन रहे शौचालय. यूपी के बदायूं जिले में दूर के गांव कटरा सादतगंज में शौचालय का हाल, फाइल फोटो | कृतिका शर्मा, दिप्रिंट

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर स्वच्छता मिशन की कामयाबी का आंकड़ा जो भी हो, लेकिन जमीनी हकीकत गंभीर चूक की ओर इशारा कर रही है. ये चूक महज तकनीकी नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की सेहत को खतरे में डालने वाली है, अगर इसे समय रहते दुरुस्त नहीं किया गया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता मिशन की अलख जगाने के बाद तेजी से प्रचार-प्रसार भी हुआ. खासतौर पर देहात में बनने वाले दो गड्ढों वाले शौचालयों के लिए बाकायदा कई डिजिटल फॉर्म में वीडियो जारी किए गए. वीडियोज में शौचालय निर्माण का सही तरीका बताया गया. दो गड्ढे वाले शौचालय का फायदा बताने को ‘टॉयलेट’ फिल्म के कलाकार अक्षय कुमार के जरिए प्रोत्साहित किया गया.

इसके अलावा खुले में शौच को कलंक के तौर पर समझाने के लिए कई मीडिया कैंपेन चले और सरकारी तौर पर जागरूकता और सख्ती की कोशिशें की गईं. अलबत्ता, किसी भी प्रचार-प्रसार में टॉयलेट के दो गड्ढों से पेयजल संकट की भी कोई गाइडलाइन है, ये न बताया गया, न निर्माण में इसका खयाल रखा गया और न ही किसी दूसरी जांच में इसका उल्लेख अब तक किया गया. ये खास गाइडलाइन समान रूप से लगभग पूरे देश में दरकिनार की गई.


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ऐसा तब किया गया जबकि उससे पहले हुए सर्वे में इस समस्या को लेकर चेताया भी गया था. सर्वे में आठ राज्यों (उत्तर प्रदेश, ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और असम) में कई कोणों से बारीकी से अध्ययन किया गया. जिसके नतीजे और सिफारिशें हिंदी, तेलगु, उड़िया और असमिया में अनुवादित की गईं. कुल 16 जिलों में हर जिले की चार ग्राम पंचायतों को चुना गया, जिनमें दो ओडीएफ और दो गैर ओडीएफ थीं. इनमें भी दो ग्राम पंचायतों को अचानक लिया गया.

डेटा मार्च 2017 के मध्य में एकत्र किया गया था जिसका परिणाम भारत सरकार से जिलों तक पहुंचा दिया गया. इस सर्वे में अन्य गंभीर खामियों को उजागर करने के साथ ही स्वास्थ्य के लिहाज से 31 प्रतिशत शौचालयों को असुरक्षित चिह्नित किया गया.

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जिन करोड़ों शौचालयों के निर्माण का दावा हो रहा है, उनकी हकीकत जानकर हैरानी होगी. सच्चाई ये है कि जो आंकड़ा स्वच्छ भारत मिशन की वेबसाइट पर दिखाई दे रहा है, वैसा है नहीं. असल में इनमें से 25 फीसद शौचालय या तो अभी भी नहीं बने हैं या फिर निर्माणाधीन हैं.

जो बन चुके हैं, उनके निर्माण की दास्तां भी दिलचस्प है. सरकार के दबाव में जिले के अधिकारियों ने ‘फटाफट स्टाइल’ अपनाया. सबसे पहले लाभार्थी सूची तलब हुई कि किसके घर शौचालय नहीं बना है. तमाम गांवों में ग्राम प्रधान और सचिव ने सूची में वे नाम भी दर्ज करा दिए, जिनके यहां शौचालय है या फिर पिछले वर्षों में उनको लाभ मिल चुका था.

इस भागमभाग में आम लोग भी पीछे नहीं रहे. शायद 12 हजार रुपये नकद मिल जाने का लालच भी रहा. दो सौ गज के मकान में अगर पांच भाइयों का परिवार रहता है तो सभी ने शौचालय निर्माण का आवेदन कर दिया. उन घरों को भी शामिल किया गया, जिनका घर 50 गज या उससे भी कम जगह में है और फूस की झोपड़ी पड़ी है. इसका नतीजा ये हुआ कि तय डिजायन के हिसाब से सबसे पहले दो गड्ढे खोदने की बारी आई. सफाईकर्मियों को भेजकर ‘गड्ढा खोदो-गड्ढा खोदो’ का अभियान चल पड़ा.


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एक शौचालय के दोनों गड्ढों की गहराई और व्यास एक-एक मीटर और दोनों गड्ढों के बीच एक मीटर की दूरी मानक है. ऐसे में हुआ ये कि दो सौ गज के मकान में 10 गड्ढ़े बनाने से पूरा आंगन खाई जैसी नजर आने लगी. इसके बाद कई हादसे हुए जिनमें जानवर की हड्डियां टूटीं या फिर परिवार का ही कोई गिरकर जान गंवा बैठा.

दबाव बहुत ज्यादा होने से किसी भी जिले में निर्माण की रफ्तार बढ़ाने को राजमिस्त्रियों की कमी खलने लगी. कहां से आते इतने राजमिस्त्री! एक शौचालय के जालीदार गड्ढे बनाने, उनके ढक्कन तैयार करने और शौचालय का बाकी ढांचा बनाकर उससे जोड़ने में औसत पांच दिन का काम है. लेकिन अफसरों की कार्रवाई का डर इस कदर कि ‘कैसे भी बना डालो’ या फिर वेबसाइट पर लाभार्थी के साथ ‘फोटो अपलोड’ करा दो किसी भी शौचालय का.

इस जल्दबाजी में निरंतर निगरानी भी संभव नहीं थी, लिहाजा बिना प्रशिक्षण के मिस्त्रियों ने डिजायन की गड़बड़ी भरपूर की. बड़े पैमाने पर दोनों गड्ढों से जुड़ने वाली ‘वी’ गलत बना दी गई. अफसरों ने भी ‘ले-देकर’ निर्मित शौचालयों को पास कर दिया.

भ्रष्टाचार की बात एकदम छोड़ दी जाए तो सबसे बड़ी कमी छोड़ी गई पेयजल स्रोत से दूरी का मानक. गाइडलाइन के अनुसार पेयजल के स्रोत की शौचालयों के गड्ढों से 10 मीटर की दूरी होना चाहिए. इसकी वजह ये है कि ये गड्ढे तली से कच्ची जमीन पर होते हैं और मधुमक्खी के छत्ते की तरह ईंटों के जाल जैसी दीवार होती है.

इसका तर्क ये है कि मल के साथ जो पानी गड्ढे में जाए, वह रिसकर जमीन की परतों से होते हुए छनकर भूगर्भ जल में मिल जाए. पेयजल स्रोत दूर होने से उसका पानी फिल्टर होने से पहले नहीं आए, इसको सुनिश्चित करना था. एक ही मीटर की गहराई करने की वजह है कि सूर्य की किरणें एक मीटर गहराई तक जाती हैं जिससे मल शुष्क होता जाता है.

बहरहाल ऐसा हुआ नहीं. ऐसा कर पाने की संभावनाएं भी चुनौती पैदा करतीं. निर्माण करने से पहले इस बात का खयाल रखा जाए, ऐसा कोई निर्देश किसी स्तर से जारी नहीं किया गया. दूसरी बात ग्राम सचिव और ग्राम प्रधान को निर्माण कराने से मतलब था, इस मानक को जांचने का उनके पास कोई तरीका भी नहीं था.

किसी भी बड़े घर में ऐसा हो भी जाता तो पड़ोसी घर के शौचालय का गड्ढा उसके नजदीक बन गया, बीच में दीवार ही तो है. जिन घरों में हैंडपंप हैं और भूगर्भ जलस्तर अच्छा है, वहां बोरिंग की गहराई सामान्यता 40-50 फिट होती है. गाइडलाइन के अनुसार जहां भूगर्भ जलस्तर उथला है या जमीन पथरीली है, वहां इन शौचालयों के बनने से दिक्कत आ सकती है.

गड्ढों के पास कम गहराई वाले नलों का पानी बीमारी के बैक्टीरिया हलक तक उतारने में कितना सक्षम हैं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 200 फिट से ज्यादा गहराई पर लगने वाला इंडिया मार्का हैंडपंप तक को नाली या कूड़े के पास लगाने से मनाही है.

मिसाल के तौर पर मैदानी गांवों के घर चिपककर बने होते हैं और बहुत से शौचालय बन जाने से ये समस्या और ज्यादा बढ़ना तय है. चिंताजनक बात ये है कि जब भूगर्भ जलस्तर और शुद्ध पेयजल का संकट हो, वहां इस समस्या को नजरंदाज किया जाना कितना भयावह हो सकता है, जबकि ई-कोलाई जैसे सुपरबग इस गहराई के पाने में पाए जा चुके हों. मल के साथ ये बैक्टीरिया गंभीर रोग की महामारी फैला सकता है.

ये बात जिम्मेदारों के लिए कितनी अहम रखती है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब उत्तर प्रदेश के बरेली मंडल के कमिश्नर रणवीर प्रसाद से पूछा तो उन्होंने पलटकर जानकारी चाही, ‘क्या इस संबंध में शासन का कोई निर्देश है?’ जब संभावित समस्या पर बात की गई तो नसीहत भरे अंदाज में कहा, ‘पानी दो सौ फिट से कम गहराई का नहीं पीना चाहिए’.


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उनसे जब कहा कि गांवों के घरों में तो हैंडपंप के बोरिंग की गहराई 40-50 फिट होती है, तो जवाब मिला, ‘लोगों को पीने का पानी इंडिया मार्का हैंडपंप से ले लेना चाहिए, चाहिए ही कितना होता है!’ उनसे जब कहा कि गांव की आबादी के हिसाब से इंडिया मार्का हैंडपंप तो लगे नहीं हैं और जो लगे हैं उनकी गहराई और मानक संदिग्ध हैं. इस पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला.

सच्चाई ये भी है कि 70 प्रतिशत से ज्यादा इंडिया मार्का हैंडपंप किसी काम के नहीं बचे हैं. इनके शुद्ध पानी मुहैया कराने का मानक ये भी है कि एक दिन में एक पंप से पांच-हजार लीटर तक पानी खींचा जाना चाहिए. इसके लिए ये पंप घनी आबादी में होना चाहिए, जबकि ऐसा अधिकांश जगह नहीं है.

(उत्तर प्रदेश में रुहेलखंड रीजन के देहात की ग्राउंड रिपोर्ट पर आधारित)

(लेखकस्वतंत्र पत्रकार हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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