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सेक्युलरिज़्म के प्रति लालू की वफादारी, मोदी के भारत में तेजस्वी यादव के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक कसौटी है

भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी जब 1990 में रथ यात्रा के दौरान अपने घोड़े को सरपट भगा रहे थे, तो मुख्यमंत्री के रूप में लालू ने ही उन्हें बिहार में प्रवेश के खिलाफ ललकारने का साहस दिखाया था.

RJD leader Tejashwi Yadav addresses the crowd during an election rally
नालंदा में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव/फोटो: एएनआई

तेजस्वी यादव को कई बड़े बोझ उठाने पड़ रहे हैं— राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को क़ायम रखने से लेकर अपने पिता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक और चुनावी सफलताओं को दोहराने, भाषण कला और लोगों से सहज जुड़ाव के उनके कौशल की बराबरी का प्रयास करने तथा सावधानीपूर्वक तैयार जातीय गणित को साधने तक. लेकिन उन पर सबसे बड़ा बोझ लालू की धर्मनिरपेक्षता की विरासत को जारी रखने का है.

लालू प्रसाद यादव राजनेताओं की उस दुर्लभ नस्ल के हैं जिसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके इकोसिस्टम से किसी तरह का संबंध रखने से इनकार किया, भले ही अस्तित्व का संकट आन पड़ा हो, जैसा कि कुछ दिन पहले तेजस्वी ने खुद बताया था.

अधिकांश क्षेत्रीय दलों ने अतीत की कड़ी प्रतिद्वंद्विता को भुलाते हुए कभी ना कभी राज्य या केंद्र के स्तर पर भाजपा से हाथ मिलाया है. लेकिन बड़े क्षेत्रीय दलों के बीच लालू का राजद — और समाजवादी पार्टी भी — इसका अपवाद रहा है. हमारे देश के लिए यह किसी उपलब्धि से कम नहीं है, जहां कि हमेशा खुद को सच्चे और बाकियों से बेहतर साबित करने वाले वाम दल भी राजनीतिक मजबूरियों के कारण भाजपा के साथ एक ही खेमे में खड़े हो चुके हैं.

एक राजनेता के रूप में लालू की सबसे खास विशेषता यही रही है— धर्मनिरपेक्षता के विचार के प्रति दृढ़ निष्ठा और हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद की राजनीति के खिलाफ आक्रामक रुख. हालांकि अभी तक तेजस्वी भी बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन के खिलाफ जोश के साथ लड़ रहे है.


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लालू से अलग रणनीति है तेजस्वी की

हालांकि तेजस्वी जोखिम लेने से बचते, और प्रमुख राजनीतिक मुद्दों पर सतर्कता बरतते दिखते हैं. लालू के इस उत्तराधिकारी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाले अदालती फैसले का स्वागत किया, हालांकि रस्मी तौर पर सतर्कता का इजहार करते हुए उन्होंने ये भी जोड़ा कि ‘अब राजनीति को विकास पर फोकस करना चाहिए’. बिहार में विपक्ष के नेता ने लालू से बिल्कुल अलग और सतर्क प्रतिक्रिया देते हुए ट्वीट किया: ‘माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का सहदय सम्मान. देश का प्रत्येक मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च हमारा ही है. कुछ भी और कोई भी पराया नहीं है. सब अपने हैं.’

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बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सभी आरोपियों को बरी किए जाने पर तेजस्वी ने भी उन अन्य विपक्षी नेताओं की तरह ऐहतियात भरी चुप्पी बनाए रखी, जो शायद मोदी-शाह काल में ऐसे मुद्दे को उठाने को जोखिम भरा काम मानते हैं जोकि हिंदुओं को नाराज़ कर सकता हो.

इस तरह देखा जाए तो तेजस्वी ने हिंदुत्व की राजनीति के प्रभावी विरोध की भूमिका को नहीं निभाया, हालांकि रोज़गार को अपने चुनाव अभियान का केंद्रीय मुद्दा बनाने का काम उन्होंने बखूबी किया है.

भाजपा का कीड़ा

यदि आप 1980 के दशक के उत्तरार्ध से ही एक सक्रिय राजनीतिक पार्टी चला रहे हों, तो पूरी संभावना है कि आपको किसी ना किसी रूप में भाजपा के कीड़े ने काटा हो.

भारतीय राजनीति के लिए 1989 एक परिवर्तनकारी वर्ष था जब मंडल राजनीति का दौर शुरू हुआ, हिंदुत्व की राजनीति ने ज़ोर पकड़ा; लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण था एक अकल्पनीय गठबंधन का अस्तित्व में आना. वीपी सिंह की अगुआई में जल्दबाज़ी में स्थापित गठबंधन के समर्थन में वामपंथी और भाजपा साथ आ गए थे, और उन्हें द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके), तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी) और असम गण परिषद (एजीपी) जैसे क्षेत्रीय दलों का सहयोग भी प्राप्त था. उनका लक्ष्य था राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को सत्ता से दूर रखना. कल्पना कर सकते हैं कि धर्म में आस्था नहीं रखने वाले वामपंथी और धर्म की अवधारणा को राजनीति के मूल में रखने वाले दक्षिणपंथी कैसे साथ आए होंगे. भारतीय राजनीति के मौकापरस्त, विचारधारा रहित और मजबूरी आधारित होने का इससे बढ़िया उदाहरण नहीं मिल सकता. इसी कड़ी में ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में शिवसेना की अगुआई वाला महाविकास अघाड़ी है.

कश्मीर से कन्याकुमारी तक, अधिकांश क्षेत्रीय दल कभी ना कभी भाजपा वाले पाले में रहे हैं, उस वक्त भी जबकि वे धर्मनिरपेक्षता का दम भर रहे हों.

दक्षिण में, ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) और भाजपा ने जयललिता के निधन के बाद परस्पर हाथ मिला लिए. यहां ये उल्लेखनीय है कि 1998 और 1999 में, दोनों ही बार अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाने में तमिलनाडु की भूमिका रही थी— पहली बार एआईएडीएमके की, जबकि दूसरी बार डीएमके की.

उत्तर की बात करें, तो कश्मीर के दोनों मुख्य क्षेत्रीय दल — नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) — विगत में भाजपा के साथ गठबंधन कर चुके हैं. पश्चिम में शिव सेना से लेकर पूर्वोत्तर में एजीपी और अन्य दलों तक, भाजपा के सहयोगियों/पूर्व-सहयोगियों की सूची लंबी है.

मायावती हों, या शरद पवार, नवीन पटनायक या ममता बनर्जी— इन सबने कभी ना कभी भाजपा से दोस्ती कर रखी है.


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सबसे अलग

एक क्षेत्रीय किरदार होने के बावजूद लालू यादव और उनकी पार्टी ने भाजपा को कभी भी विकल्प के तौर पर नहीं देखा. अधिकांश क्षेत्रीय किरदार सत्ता की चाहत में, अपनी विचारधारा की बलि चढ़ाते हुए सुविधाजनक राजनीतिक समीकरण बनाने के लिए तत्पर रहते हैं. रामविलास पासवान और नीतीश कुमार ने बारंबार ऐसा किया.

कांग्रेस निश्चय ही भाजपा का विरोध करती है क्योंकि वर्तमान में पार्टी के उद्देश्यों के लिए यही राजनीति प्रासंगिक है. लेकिन पार्टी ने सौम्य हिंदुत्व से कभी गुरेज नहीं किया — राजीव गांधी का 1989 का अयोध्या शिलान्यास हो या 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी का ‘जनेऊधारी ब्राह्मण’ होने पर ज़ोर देना. कांग्रेस में खासा हिंदुत्व भाव है, बस वह धर्मनिरपेक्षता की एक विरूपित अवधारणा को भी साथ लेकर चलती है.

भाजपा के साथ गठबंधनों की बात करें, तो मोदी-शाह काल में बहुत कुछ बदल चुका है. मेरे साथ आओ या भाड़ में जाओ वाले उनके आक्रामक रवैये और ज़बरदस्त चुनावी सफलताओं के कारण, गठबंधन सहयोगी भाजपा के पारिस्थितिकी तंत्र से बाहर छिटक रहे हैं. भाजपा का विरोध करने वाले कई राजनीतिक दल अब भाजपा-आरएसएस की विचारधारा से नहीं, बल्कि मोदी-शाह के रवैये से लड़ रहे हैं. वाजपेयी के ‘गठबंधन धर्म’ ने मोदी की तुलना में कहीं अधिक सहयोगी दलों को आकर्षित किया था. लेकिन उस दौर में भी लालू भाजपा के इकोसिस्टम से दूर ही रहे थे.

भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी जब 1990 में रथ यात्रा के दौरान अपने घोड़े को सरपट भगा रहे थे, तो मुख्यमंत्री के रूप में लालू ने ही उन्हें बिहार में प्रवेश के खिलाफ ललकारने का साहस दिखाया था. तमाम ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों को एकजुट करने की कोशिश करना, भाजपा विरोधी रैलियां आयोजित करना और आरएसएस को चुनौती देना लालू की अनूठी राजनीतिक विरासत का हिस्सा रहे हैं.

यही वो बोझ है जो राजद की कमान संभालने वाले उनके बेटे तेजस्वी को भारी लग रहा होगा. अपनी रैलियों में उत्साहित भीड़ को आकर्षित कर उन्होंने भले ही सबको चकित कर दिया हो, लेकिन सत्ता पर कब्जा करने में सफल होने के साथ-साथ लालू की धर्मनिरपेक्ष पहचान को भी कायम रखना उनके लिए असल कसौटी होगी.

बेशक, उन्हें चुनाव जीतने और अपने पिता द्वारा स्थापित पार्टी को जीवंत रखने की ज़रूरत है. उन्हें राज्य की सत्ता हासिल कर अपनी क्षमता सिद्ध करनी होगी, इस चुनाव में नहीं तो अगली बार. लेकिन भारतीय राजनीति को एक ऐसे दल की ज़रूरत है जोकि भाजपा के साथ जाने या उसके जैसा बनने के लिए राज़ी नहीं हो, और लालू के सक्रिय राजनीति से दूर होने के कारण ये चुनौती कठिन हो गई है. यदि तेजस्वी को अपने पिता की राजनीतिक विरासत को बढ़ाना है, तो उन्हें इस चुनौती पर खरा उतरना होगा.

(व्यक्त विचार लेखिका के अपने हैं.)


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