होम मत-विमत लाल सिंह चड्ढा हॉलीवुड मूवी फॉरेस्ट गम्प की कमजोर रिमेक साबित होगी

लाल सिंह चड्ढा हॉलीवुड मूवी फॉरेस्ट गम्प की कमजोर रिमेक साबित होगी

लाल सिंह चड्ढा व्यक्ति फॉरेस्ट गम्प की कहानी को बेशक दोहरा लेगा लेकिन साथ में राष्ट्र और समाज की जो यात्रा चलती है उसे दिखा पाना आसान नहीं होगा.

फॉरेस्ट गम्प और लाल सिंह चड्ढा का पोस्टर | फोटो - सोशल मीडिया

आमिर खान और किरण राव लाल सिंह चड्ढा बना रहे हैं. आमिर खान और करीना कपूर इसमें लीड रोल में हैं और ये फिल्म 11 अगस्त को रिलीज होने वाली है. ये फिल्म 1994 में बनी हॉलीवुड की बहुचर्चित फिल्म फॉरेस्ट गम्प का ऑफिशियल रिमेक है. फॉरेस्ट गम्प को छह ऑस्कर मिले हैं और ये सर्वकालिक श्रेष्ठ मूवी की लिस्ट में शुमार होती है. इसलिए आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा को लेकर भी बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं.

मेरा मानना है कि लाल सिंह चड्ढा कई कारणों से फॉरेस्ट गम्प की ऊंचाई को नहीं छू पाएगी. इसलिए नहीं कि आमिर खान कोई कमतर एक्टर हैं. न ही इसलिए कि इस फिल्म के डायरेक्टर में दम नहीं है. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि फॉरेस्ट गम्प एक मुश्किल और बेहद साहसिक मूवी है. इसका कथानक ऐसा है कि इसकी नकल आसान नहीं है. खासकर भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक माहौल में ऐसी फिल्म बना पाना मुश्किल है.

फॉरेस्ट गम्प एक अमेरिकी बच्चे/युवा की कहानी है जो रीढ़ की हड्डी की समस्या के कारण चल नहीं पाता था. साथ ही वह मानसिक रूप से भी स्मार्ट लोगों की श्रेणी में नहीं था. यह एक व्यक्ति के अदम्य साहस, संघर्ष से कमजोरियों पर विजय पाने, उसकी मासूमियत और प्रेम की कहानी है. फिल्म अगर सिर्फ यही होती तो आमिर खान या कोई भी अच्छा एक्टर आसानी से इसको कॉपी कर लेता.

लेकिन फॉरेस्ट गम्प इसके साथ ही अमेरिकी राष्ट्र की भी यात्रा है. शारीरिक रूप से असमर्थ एक बच्चे के जीवन यात्रा राष्ट्र की जीवन यात्रा से जुड़कर चलती है और यही बात इस फिल्म को खास बनाती है. दिलचस्प बात ये है कि अमेरिकी राष्ट्र की जिस यात्रा को ये फिल्म दिखाती है वह कतई गौरवशाली नहीं है. अमेरिका के जिन तीन दशकों को ये फिल्म दिखाती है, उसमें राष्ट्र की गौरव गाथा ही नहीं, उसकी बुराइयां, नीचता और घटियापन भी उजागर होती है. फॉरेस्ट गम्प में अमेरिकी राष्ट्र कोई पवित्र चीज नहीं है. फॉरेस्ट गम्प में दिखाए गए अमेरिका में नस्लवाद, युद्धोन्मादी शासन, लिंगभेद और पुरुष वर्चस्व पूरी क्रूरता से सामने आया है.


यह भी पढ़ें: अंडे, स्याही और थप्पड़- शरद पवार की NCP क्यों आक्रामक तेवर अपना रही है


मेरा मानना है कि लाल सिंह चड्ढा व्यक्ति फॉरेस्ट गम्प की कहानी को बेशक दोहरा लेगा लेकिन साथ में राष्ट्र और समाज की जो यात्रा चलती है, उसे दिखा पाना आसान नहीं होगा. खासकर इन दृश्यों और प्रसंगों को दिखा पाना लाल सिंह चड्ढा के लिए बेहद मुश्किल होगा.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

  1. फॉरेस्ट गम्प युद्ध विरोधी फिल्म है. इस फिल्म का लगभग एक चौथाई हिस्सा युद्ध की विभीषिका और उससे बचने या युद्ध के विरोध से संबंधित है. ये उस दौर की कहानी है जब अमेरिका ने कई युद्ध लड़े और लगभग सभी युद्धों में वो विजेता रहा. 1994 की इस फिल्म से तीन साल पहले ही अमेरिका खाड़ी युद्ध में जीत चुका था. लेकिन इस फिल्म में जिस युद्ध की कहानी है, वह वियतनाम युद्ध है. उस युद्ध में महाशक्ति अमेरिका हारा था और बहुत बुरा हारा था. वियतनाम युद्ध को कथानक के तौर पर चुनना लेखक और डायरेक्टर का निर्णय था. क्या भारत में बनने वाली इस फिल्म की रिमेक में डायरेक्टर भारत की किसी हार की कहानी बता पाएंगे? दिखाने को तो 1962 का भारत-चीन युद्ध भी दिखाया जा सकता है. लेकिन किसी भारतीय फिल्म के लिए ये कर पाना आसान नहीं होगा.
  2. फॉरेस्ट गम्प साहस की कहानी है लेकिन साथ ही यह आदमी के महामानव न होने और मानवीय कमजोरी को स्वाभाविक बताने की भी कहानी है. जब फॉरेस्ट गम्प युद्ध के लिए वियतनाम जाने वाला होता है तो उसकी दोस्त जेनी उससे कहती है कि – ‘मुझसे वादा करो. जब भी कोई संकट आएगा तो  साहस दिखाने की जरूरत नहीं है. तुम सीधे भाग लेना. ठीक है भाग लेना?’ फॉरेस्ट गम्प की कहानी में निरंतरता में है. जब उपद्रवी बच्चे गम्प पर पत्थर फेंकते हैं तो भी वह भाग लेता है जो बेहद स्वाभाविक और मानवीय है. इस फिल्म में सैनिकों के दर्द हैं और उनकी आंखों के आंसू हैं. इस फिल्म में युद्ध का एक ही सीन है जिसमें अमेरिकी सैनिक पीछे हटते और भागते हैं. ये वीडियो गेम के सैनिक नहीं हैं जो सुपरमैन की तरह गोलियां दागकर सबको मार डालते हैं. क्या भारत में बनी इस फिल्म की रिमेक भारतीय सैनिकों को भागता या रोता दिखा पाएगी. आसान नहीं है. साथ ही फॉरेस्ट गम्प में युद्ध विरोधी रैली है, नारे हैं, पोस्टर हैं. ये सब दिखा पाना आसान नहीं होगा. भारत में युद्ध विरोधी रैली होती भी नहीं है.
  3. राष्ट्रवाद को लेकर भी फॉरेस्ट गम्प अनावश्यक आदर का भाव नहीं रखती. जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी फुटबॉलर गम्प से पूछते हैं कि ऑल अमेरिकन होना उन्हें कैसा लगता है तो गम्प पहले तो डकार लेते हैं और फिर कहते हैं कि मुझे पेशाब करना है. ये किसी भी देश के फिल्मकार के लिए एक मुश्किल सीन है. भारत में तो इसे दिखा पाना असंभव है.
  4. फॉरेस्ट गम्प फिल्म अमेरिकी नस्लवाद की भी खासी चीर फाड़ करती है. इसमें नस्लवाद और नस्लवाद-विरोधी संघर्ष को लगातार दिखाया गया है. गम्प को अपने उस पूर्वज का मजाक उड़ाते दिखाया गया है, जिसने नस्लवादी संगठन कू क्लक्स क्लान बनाया था. गम्प जिस यूनिवर्सिटी में हैं, वहां यूनिवर्सिटी ऑफ अलाबामा में पहले-पहल जब दो अश्वेत स्टूडेंट्स आते हैं तो उस समय के रोमांच और तनाव को ये फिल्म दिखाती है. ये फॉरेस्ट गम्प की व्यक्तिगत मासूमियत ही है जो नस्लवाद का निषेध करती है. फिल्म में गम्प के दोस्त अश्वेत सैनिक बूबा की भी कहानी है, जिसे फौज में शामिल तो कर लिया गया है लेकिन पूरी फिल्म में वह युद्ध और हार-जीत पर एक शब्द नहीं कहता. वह हमेशा झींगा मछली पालन और उसके लिए नाव खरीदने की ही बात करता है. ये फिल्म दिखाती है कि अश्वेत बूबा के परिवार की औरतें कई पीढ़ियों से श्वेत मालिकों को झींगा मछली बनाकर खिलाती हैं, पर जब झींगा मछली बिजनेस का पैसा आता है तो युद्ध में मारे गए बूबा की पत्नी के घर में एक श्वेत रसोइया उसे झींगा परोसती है. भारतीय संदर्भ में ये कहानी किसी दलित के जीवन की हो सकती है. लेकिन इसे फिल्मों में दिखाना आसान नहीं है.
  5. फॉरेस्ट गम्प में स्कूल एडमिशन का जो दृश्य है, उसे भारतीय संदर्भ में दिखा पाना आसान नहीं होगा. इस दृश्य में स्कूल का प्रिंसिपल कम आईक्यू वाले गम्प को एडमिशन देने के बदले में गम्प की मां से सेक्स मांगता है और गम्प की मां इसके लिए तैयार हो जाती है. भारत में जहां गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसा कुछ माना जाता है और जिसका एक जातीय संदर्भ भी है, क्या किसी गुरु को इस तरह दिखाया जा सकेगा?

इस फिल्म का इंतजार करें.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: फिलहाल ज्ञानवापी को भूलकर वाराणसी को 2006 के बमकांड मामले में तो इंसाफ दिलाइए


Exit mobile version