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कर्तव्य पथ पर मोदी से मत पूछिए वे आपके लिए क्या करेंगे, खुद से पूछिए कि आप उनके भारत के लिए क्या करेंगे

नागरिकों के कर्तव्य पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ज़ोर देने का राजनीतिक अर्थ यह है कि गेंद जनता के पाले में डाल दिया जाए. और यही वे सत्ता में आने के बाद से करते रहे हैं.

चित्रण: प्रज्ञा घोष और मनीषा यादव | दिप्रिंट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई दिल्ली के सेंट्रल विस्टा में जो रद्दोबदल करवा रहे हैं उसकी काफी आलोचना हुई है क्योंकि उसे हमारे गणतंत्र और 2014 से पहले के उसके सभी प्रतीकों को बदल डालने के उनके एजेंडा का हिस्सा माना जा रहा है. लेकिन पुराने राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ करने को केवल प्रतीकात्मक कदम मान लेने की धारणा पर हमें पुनर्विचार करना पड़ेगा. दरअसल, इसका गहरा राजनीतिक अर्थ है.

वर्षों से और खासकर 2019 में मोदी की दोबारा जीत के बाद से उनके आलोचक इस बात को लेकर खूब खीजते रहे हैं कि वे उनके ऊपर जो भी तोहमत लगाते हैं उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता. इसके बारे में मैं इस स्तंभ में पहले लिख चुका हूं कि अमेरिकी मुहावरे का प्रयोग करें तो कहा जा सकता है कि मोदी ‘टेफ़्लन कोटेड’ हैं. बल्कि यह कहा जा सकता है कि वे ‘टाइटेनियम’ नामक बेहद सख्त धातु से बने हैं. जब नोटबंदी, कोविड की डेल्टा लहर के दौरान बदइंतजामी, 1970 के दशक के बाद पहली बार उनके राज में पांच वर्षों की आर्थिक सुस्ती जैसे मसले, उनकी छवि को कोई चोट नहीं पहुंचा सके, तो नये सेंट्रल विस्टा आदि को लेकर आलोचना तो किसी गिनती में नहीं है.

अगर आप मोदी के प्रतिद्वंद्वी हैं तो उनका मुकाबला करने की कोई उम्मीद रखने के लिए भी आपको यह समझना पड़ेगा कि वे कहां से उठकर आए हैं.

सबसे पहली बात यह है कि वे उस पृष्ठभूमि से नहीं आए हैं जिससे उनके सबसे सलीकेदार आलोचक आए हैं. मोदी किसी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और यहां तक कि किसी बौद्धिक शक्ति वाली पृष्ठभूमि से नहीं आए हैं. उनकी ‘सीवी’ में किसी ‘महान’ स्कूल या कॉलेज, किसी विशिष्ट डीएनए या विरासत का नाम नहीं मिलेगा और न किसी लेखकीय कृति अथवा बौद्धिक उपलब्धि का जिक्र मिलेगा.

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उनसे चिढ़ने वाले जिसे ‘परवरिश’ के रूप में देखते हैं, वैसी किसी विशिष्टता की कमी वे इस बात से पूरी करते हैं कि भारत पर अब तक राज कर चुके नेताओं में वे सबसे पूर्णकालिक राजनीतिक नेता हैं. यह एक मुश्किल दावा है और कई लोग इससे असहमत हो सकते हैं. लेकिन अगर आप पीछे नज़र घुमाकर भारत के पिछले प्रधानमंत्रियों के रिकॉर्ड को देखेंगे तो केवल इंदिरा गांधी को ही मोदी के बराबर पाएंगे. लेकिन हम तो यह भी दावा कर सकते हैं कि मोदी उनके मुकाबले किस तरह ज्यादा 24x7x365 राजनीतिक नेता हैं.

अपने कई कदमों, प्रवृत्तियों और सबसे महत्वपूर्ण, सत्ता के उपयोग के अपने तौर-तरीकों में मोदी इंदिरा गांधी को प्रतिबिंबित करते हैं. हमें नहीं मालूम कि उन्होंने कभी इंदिरा गांधी की कार्यशैली का अध्ययन किया है या नहीं या उससे प्रेरणा लेते हैं या नहीं लेकिन हम यह तो देखते ही हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के जिस सदस्य पर वे सबसे कम हमला करते हैं, तो वे इंदिरा गांधी ही हैं.

इमरजेंसी की आलोचना करते हुए भी वे उस परिवार का नाम लेते हैं मगर इंदिरा गांधी का नहीं. नेहरू, राजीव, सोनिया, राहुल हमेशा उनके निशाने पर रहते हैं. उनमें इंदिरा गांधी का नाम ढूंढने के लिए आपको काफी गहराई से गूगल करना पड़ेगा. इसलिए यहां एक अनुमान उभरता है. मोदी ने इंदिरा गांधी की शासन शैली का उनके वारिसों से शायद ज्यादा गहरा अध्ययन किया है और सत्ता तथा शासन के मामले में उनके कठोर तथा नफीस, दोनों तरीकों के प्रशंसक हैं. राजपथ के सौंदर्यीकरण के बाद उसे कर्तव्य पथ नाम देने का उनका फैसला इसकी तस्दीक करता है. कैसे, यह आगे पढ़िए.


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मोदी ने गणतंत्र के केंद्र में स्थित कंठहार समान पथ का नाम कर्तव्य पथ रखने का फैसला क्यों किया, जबकि हम अपनी पारंपरिक तथा विवेक बुद्धि से यह मानते हैं कि किसी संवैधानिक लोकतंत्र में देश या सरकार का पहला कर्तव्य अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है. कर्तव्य पर ज़ोर देना गेंद को नागरिकों के पाले में डालना है. माना कि थोड़े समय के लिए ही अमेरिका के राष्ट्रपति रहे जॉन एफ. केनेडी अपने कार्यकाल में यह मशहूर बयान दे चुके हैं कि ‘यह मत पूछिए कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है…’ लेकिन यह केवल आकर्षक मुहावरेबाजी ही थी. लेकिन मोदी के मामले में यह उनका केंद्रीय राजनीतिक साध्य है.

सत्ता में आने, खासकर दोबारा चुने जाने के बाद से मोदी जो कुछ लिखते-कहते रहे हैं उन पर अगर उनके आलोचकों ने ध्यान दिया होगा तो उन्होंने गौर किया होगा कि मोदी का सुर किस तरह बदला है और वे किस तरह अधिकारों की जगह कर्तव्यों पर ज़ोर देने लगे हैं. 2019 में, महात्मा गांधी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर पर ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ अखबार में संपादकीय पृष्ठ के सामने वाले पन्ने पर लिखे एक लेख में उन्होंने अपना यह मत पूरी सफाई से रखा. उनकी इन पंक्तियों पर गौर कीजिए—

दुनिया जब अधिकारों की बात कर रही थी, तब गांधी ने कर्तव्यों पर ज़ोर दिया था. ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा— ‘कर्तव्य ही अधिकारों का सच्चा स्रोत है. अगर हम सब अपना फर्ज निभाएं, तो अधिकारों के लिए दूर नहीं जाना पड़ेगा’.’ इसके बाद मोदी ने लिखा है कि गांधी ने ‘हरिजन’ में लिखा था— ‘जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पूरे करता है, अधिकार उसे अपने आप हासिल हो जाते हैं.’

इससे तीन बातें उभरती हैं. पहली यह कि गांधी (मूल गांधी) को राजपथ का नाम कर्तव्य पथ करने पर कोई आपत्ति नहीं होती. दूसरी बात, यह सीधे इंदिरा गांधी से प्रेरणा लेकर किया गया है, जिसकी आगे हम व्याख्या भी करेंगे. और तीसरी बात यह कि मोदी के लगभग सारे आलोचक उनसे इतनी नफरत करते हैं कि वे उनके लिखे हुए पर भी ध्यान नहीं देते, चाहे वह पवित्र ‘एनवाईटी’ में ही क्यों न छपी हो.

इसके मात्र सात सप्ताह बाद, संविधान दिवस पर संसद के संयुक्त सत्र में मोदी ने इसे दोहराया, ‘अधिकार और कर्तव्य साथ-साथ चलते हैं. महात्मा गांधी ने इसे अच्छी तरह समझाया था. आइए, हम सोचें कि हमारे संविधान में जो कर्तव्य प्रतिष्ठापित किए गए हैं उन्हें हम कैसे पूरा करेंगे.’ लेकिन कोई भी उन्हें यह याद दिलाने की हिम्मत नहीं करेगा कि ये कर्तव्य, अगर उसे ‘प्रतिष्ठापित’ किया जाना कहेंगे, इमरजेंसी के दौरान अवैध रूप से छठे साल में जारी रखी गई लोकसभा ने दर्ज करवाए थे. क्या आप मानते हैं कि कांग्रेस यह हिम्मत करेगी?

इसके अगले महीने अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर बोलते हुए भी मोदी ने इस बात को दोहराया. दिप्रिंट की असिस्टेंट एडिटर अपूर्वा मंधानी ने हिसाब लगाया है कि मोदी ने कर्तव्यों पर पांच बार ज़ोर दिया है. इसका ब्योरा यहां देखें.


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दरअसल, सरकार के कर्तव्यों की जगह नागरिक के कर्तव्यों पर ज़ोर देकर मोदी सारा दारोमदार नागरिकों की पीठ पर डालने और संवैधानिक राज्य-व्यवस्था की परिभाषा को बदलने में जुटे हैं. वे महात्मा गांधी की तरह, आपसे कह रहे हैं कि कर्तव्य के साथ अधिकार खुद ही आपको हासिल हो जाएंगे.

इसे अच्छी तरह समझने के लिए आपको संविधान के 42वें संशोधन को समझना पड़ेगा. इमरजेंसी के बीच लोकसभा का कार्यकाल अवैध तरीके से बढ़ा दिया गया था और उसके छठे वर्ष में 1 सितंबर 1976 का वह दिन था जब इंदिरा गांधी ने इस संशोधन को मंजूर करवाया था. दशकों से हम यही बहस करते आ रहे हैं कि इस संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए थे. यह तो दिखावे के लिए था, क्योंकि हम सब जानते हैं कि इसके बाद से हम कितने ‘समाजवादी’ और कितने ‘धर्मनिरपेक्ष’ रहे हैं. असली पेंच तो कुछ और था.

42वें संविधान संशोधन को ‘मिनी’ संविधान कहा गया तो इसकी वजह भी थी. इसने 48 प्रमुख अनुच्छेदों और सातवीं अनुसूची को बदल दिया. इसके अलावा, इसने 13 अनुच्छेदों में से चार को हटा देने और उनमें नयी उप-धाराएं जोड़ने का काम किया. कुल मिलकर इसने भारत में विकेंद्रित सत्ता व्यवस्था की जगह संसद की सर्वोच्चता स्थापित की और उसके द्वारा पारित कानूनों की जांच करने का अधिकार न्यायपालिका से छीन लिया और प्रधानमंत्री को संप्रभुता के असीमित अधिकार सौंप दिए.

इमरजेंसी के बाद आई जनता सरकार ने 43वें तथा 44वें संविधान संशोधनों के जरिए इनमें से ज़्यादातर प्रावधानों को रद्द किया. कुछ प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने मशहूर मिनर्वा मिल मामले में रद्द कर दिया. न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़ ने इस आदेश में लिखा, ‘संविधान में ऐसे केवल तीन अनुच्छेद हैं, जो स्वाधीनता के उस स्वर्ग, जिसमें टैगोर अपने देश को सांस लेते देखना चाहते थे और निरंकुश सत्ता के नरक के बीच की दीवार हैं.’

हम जानते हैं कि संविधान की प्रस्तावना में किए गए परिवर्तन को रद्द नहीं किया गया. और उस धारा को भी रहने दिया गया जिसमें नागरिकों के कर्तव्य गिनाए गए हैं. शायद उन्हें अहानिकर माना गया. अधिकारों के ऊपर कर्तव्यों को तरजीह देने का मूल विचार इंदिरा गांधी का था इसलिए उसे कागज पर बने रहने दिया गया, जिसे आज मोदी राजनीतिक पूंजी के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहे हैं.

अगर मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी चालों पर नज़र रखी होती तो उन्हें मोदी की वह बात पता लगती जिसे आप वास्तव में नहीं सुनते. वह बात यह है कि मोदी क्या करेंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. क्योंकि, अगर आप उनसे केवल चिढ़ने की जगह उनका गहराई से अध्ययन करते तो आपको दो बातें पता लगतीं. एक तो यह कि वे कहां से उठकर आए हैं और दूसरी यह कि वे इस कर्तव्य पथ पर भारत के नागरिकों को किस दिशा में ले जा रहे हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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