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बंगाल में बहुत काली देवियां हैं लेकिन TMC में उनके लिए गुंजाइश नहीं; UP, हरियाणा पर पार्टी की निगाह

मोइत्रा और TMC नेतृत्व को आपस में बात करने की ज़रूरत है. और बाक़ी सबको एक मेमो भेज दीजिए: अब पार्टी की लाइन केवल बंगाल की पहचान बचाना नहीं है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी | ANI

तृणमूल कांग्रेस ने ‘मांस खाने वाली, शराब स्वीकार करने वाली’ काली के बारे में, सांसद महुआ मोइत्रा की टिप्पणियों से भले ख़ुद को अलग कर लिया हो, लेकिन ज्यादातर बंगालियों के लिए ये कोई मुद्दा नहीं है. देवी के इतने अधिक रूप हैं कि उनका हिसाब रखना मुश्किल है- तारापीठ की आग उगलती उग्र तारा से लेकर, कालीघाट की महाकाली और दक्षिणेश्वर की कम उग्र आद्या काली तक. विवाद का अस्ली कारण, हमेशा की तरह राजनीति में है.

मांसघेर झोल (मटन करी) और व्हिस्की वास्तव में कोलकाता और बंगाल में बहुत से परिवारों में काली पूजो का एक अहम हिस्सा होती है, जो उत्तर भारत में दीवाली के समय आती है. जैसा कि मोइत्रा ने कहा, मां तारा को करोन सुधा या शराब देने की तारापीठ में एक स्थापित प्रथा है. कोलकाता में 23 साल तक रहने और बड़े होने के दौरान, मैंने हमेशा से पहला पेग देवी के क़दमों में रखा जाता देखा है.

इसलिए सवाल ये उठता है कि बंगाल की कोई पार्टी राज्य में एक स्वीकार्य प्रथा के बारे में, अपनी एक नेता के बात करने पर क्यों आपत्ति कर रही है? यही वो मौक़ा है जहां ममता बनर्जी की उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे उत्तर भारतीय राज्यों में राष्ट्रीय विस्तार की योजना, बंगाल में उनकी पार्टी की राजनीति से टकरा रही है.


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बंगाल की अनेकों काली देवियां

तारापीठ देवी सती की वो ‘शक्ति पीठ’ कही जाती है, जहां उसकी एक आंख तब गिरी थी जब भगवान विष्णु ने उसके शरीर के 51 टुकड़े किए थे. बाद में भगवान शिव उसकी मौत का दुख मनाते हुए, पूरे ब्रह्मांड में उसके शव को लेकर फिरे थे. कहा जाता है कि भारत में ऐसे 51 शक्तिपीठ हैं, जहां देवी के शरीर का एक एक हिस्सा गिरा था. यहां पर काली देवी की एक तांत्रिक रूप मां उग्र तारा की पूजा की जाती है.

माथे पर लगा सिंदूर, मुंह में भरा लाल रंग, और खोपड़ियों का हार पहने मां तारा को एक ऐसी देवी के तौर पर देखा जाता है, जो उन लोगों की कामनाएं पूरी करती है जो उसकी वेदी पर बलि चढ़ाते हैं. पशु बलि या बोली यहां एक जाना-माना अनुष्ठान है, और देवी को ख़ुश करने के लिए उसे मांस परोसा जाता है. देवी को शराब पेश करना भी, जिसे करोन सुधा कहा जाता है, यहां एक स्थापित प्रथा है.

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दक्षिणेश्वर के आद्यापीठ में आद्या काली ज़्यादा शर्मीली है, लेकिन फिर भी अपनी ज़बान बाहर निकाले, खोपड़ियों का एक हार पहने, और भगवान शिव पर खड़े हुए दानव देवी काली का रूप दिखाती है. लेकिन दक्षिणेश्वर में पशु बलि या शराब चढ़ाने की कोई प्रथा नहीं है.

कोलकाता का कालीघाट पश्चिम बंगाल के सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है. यहां पर काली का जो रूप दर्शाया गया है उसमें उसके ‘दानवी’ गुणों को हल्का कर दिया गया है. इस छवि में ‘मातृत्व’ ज़्यादा झलकता है. हिंदू स्टडीज़ की स्कॉलर संजुक्ता गुप्ता कालीघाट की काली के बारे में लिखते हुए, उसे ‘युवा आकर्षण और स्त्री सौंदर्य’ की पराकाष्ठा बताती हैं. फटी आंखें, खोपड़ियों से रहित, और मुंह बंद किए यहां की काली, तारापीठ या दक्षिणेश्वर की काली से काफी अलग है- मांसाहारी तांत्रिक परंपरा और शाकाहारी वैष्णव परंपरा दोनों का मेल, जिनका 17वीं सदी में बंगाल पर काफी प्रभाव था.

लेकिन सच्चाई ये है कि बरसों से देवियों के सभी रूपों की पूजा साथ साथ जारी रही है, भले ही कुछ रीतियां दूसरों से टकराती हों.

TMC की दुविधा

2021 के विधान सभा चुनावों में, राज्य में भारतीय जनता पार्टी के हिंदू धर्म के राम की पूजा करने वाले शकाहारी रूप को ज़्यादा लोगों ने स्वीकार नहीं किया. जैसा कि टीएमसी ने बार बार कहा है, बीजेपी ‘बंगाल को नहीं समझती’.

यही तर्क अब टीएमसी को उत्तर भारत के राज्यों में असुरक्षित बनाता है जिसे, संख्या को देखते हुए बीजेपी समझती है. और किसी भी देवी को मांस खाने या शराब के सेवन की प्रथा से जोड़ना, हिंदी क्षेत्र के किसी सूबे में स्वीकार्य नहीं होगा, जहां ममता बनर्जी अपना विस्तार करना चाहती हैं. तो फिर उस स्थिति में टीएमसी को किस तरह के हिंदू धर्म का समर्थन करना चाहिए?

ऐसी किसी भी क्षेत्रीय पार्टी के लिए, जो राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करना चाह रही है, ऐसी दुविधा का सामना करने की संभावना बन सकती है. ज़्यादातर पार्टियां अपनी क्षेत्रीय पहचान के आधार पर राज्यों में अपनी राजनीति करती हैं, और इसलिए उनके लिए एक राष्ट्रीय पहचान बनाना मुश्किल हो जाता है. ये समझने के लिए किसी राजनीतिक विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं है, कि क्रिकेट मैच में बहुत कुछ उन गेंदों पर निर्भर करता है जिन्हें आप जाने देते हैं.

लेकिन महुआ मोइत्रा की निंदा के बाद बहुत से लोग (बीजेपी समेत) अब टीएमसी से कह रहे हैं, कि केवल निंदा काफी नहीं है. बहरहाल, बीजेपी ने नुपुर शर्मा को निलंबित किया था.

टीएमसी ने हिंदू-विरोधी के रूप में देखे जाने के ख़तरे को फिलहाल टाल दिया है, लेकिन वो अब एक ऐसी व्यक्ति के खिलाफ ‘पर्याप्त न करने’ के जाल में फंस गई है, जिसने ख़ुद पार्टी की स्वीकारोक्ति के मुताबिक़, एक हिंदू देवी पर निंदनीय टिप्पणियां की हैं.

फिलहाल मोइत्रा और टीएमसी नेतृत्व को आपस में बात करने की ज़रूरत है. और शायद पार्टी को उन्हें और हर किसी को एक मेमो भेजना चाहिए: अब पार्टी की लाइन केवल बंगाल की पहचान बचाना नहीं है.

व्यक्त विचार निजी हैं

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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