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बबुई तुलसी के बीजों के बिना अधूरी है कश्मीर में रमजान की इफ़्तारी

रमजान के पवित्र महीने के दौरान रोज़ा रखने वाले व्यक्ति में पानी की कमी को पूरा करने के लिए भी ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का इस्तेमाल किया जाता है. इसके सेवन से प्यास को रोकने में मदद मिलती है.

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दिल्ली के जामा मस्जिद में विदाई की नमाज़/ सूरज सिंह बिष्ट

तुलसी के पौधे को हर हिन्दू के घर की शोभा और सबसे पूजनीय पौधा है मगर बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ़ हैं कि तुलसी की ही एक प्रजाति ऐसी भी है जिसके बीजों के सेवन के साथ ही जम्मू कश्मीर में हर मुस्लिम रमज़ान के पावन महीने में अपना रोज़ा खोलता है. इस प्रजाति का नाम है-‘बबुई तुलसी’ जिसे कईं अन्य नामों से भी जाना जाता है.

‘बबुई तुलसी’ प्रजाति के यह बीज जम्मू कश्मीर में हर मुस्लिम के घर में उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं जितना की किसी हिन्दू के घर-आंगन में तुलसी का पौधा रखता है. रमजान के पवित्र महीने में तो ‘बबुई तुलसी’ के बीज हर घर में खास महत्व मिलता है और ‘बबुई तुलसी’ के बीजों के बिना रमजान में इफ़्तारी मुमकिन ही नही मानी जाती. रमजान में जिस तरह से ‘बबुई तुलसी’ के बीज प्रयोग में लाए जाते हैं उससे हिन्दू-मुस्लिम की मिली-जुली साझी संस्कृति का एक ओर प्रमाण सामने आता है.

‘बबुई तुलसी’ के बीजों को कश्मीर में ‘बब्बरी-ब्योल’ के नाम से जाना जाता है. ‘बबुई तुलसी’ (बब्बरी-ब्योल) की कुछ भाषाओं में ‘बब्बरी’ और ‘सब्ज़ा’ व ‘तुकमलंगा’ के नाम से भी पहचान है. संस्कृत में ‘सुरासा’ व ‘मुंजारिका’ के रूप में इसे जाना जाता हैं. जबकि कईं जगह ‘तुलसी के बीज’ के रूप में ही इसका नाम प्रचलन में है. कश्मीरी भाषा में ‘ब्योल’ का अर्थ है बीज, यानी ‘बब्बरी के बीज’ मतलब ‘तुलसी के बीज’.

‘बब्बरी-ब्योल’ के सेवन से ही खोला जाता है रोज़ा

आजकल पवित्र रमजान का महीना चल रहा है और जम्मू कश्मीर के लोग रमजान महीने की हर शाम को इफ़्तार के समय सबसे पहले ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का सेवन ही करते हैं. सबसे पहले ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) के सेवन से ही रोज़ा खोला जाता है. इसके बाद ही अन्य किसी खाद्य सामग्री का सेवन किया जाता है.

कश्मीर घाटी में सदियों से रोज़ा खोलने के लिए ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का उपयोग किया जा रहा है. मगर,अब रमजान के पवित्र महीने में ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का इफ़्तार के समय सेवन करने का चलन पूरे जम्मू कश्मीर की संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन चुका है.

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रोज़ा खोलने के समय ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का सेवन पारंपरिक तौर पर भी बेहद शुभ माना जाता है. कहीं न कहीं ‘बब्बरी-ब्योल’ का इफ़्तारी के समय सेवन अब आस्था के साथ भी जुड़ चुका है.

रमजान माह में ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का कितना महत्व है और इसे लेकर लोगों में कितनी श्रद्धा भी है इसकी मिसाल इस बात से भी मिलती है कि बड़ी संख्या में लोग मस्जिदों में ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) को गरीबों व बेसहारा लोगों में बांटते भी दिखाई दे जाते हैं. सड़क-चौराहों में भी ‘बब्बरी-ब्योल’ को मिला कर शर्बत बांटा जाता है.

बाबरी ब्योल- तुलसी बीज जिसे खाने से प्यास कम लगती है.
फोटो- मनु श्रीवत्स

देश के अन्य हिस्सों में रोज़ा खोलते समय जाय़केदार पेय, फलों के रस या निंबू पानी को लिए जाने का प्रचलन है, लेकिन जम्मू कश्मीर में इफ़तार के समय ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) के सेवन की ही परंपरा रही है. कश्मीर घाटी में ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) को ही पसंद किया जाता है और नई पीढ़ी भी ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) की ही शौकीन है. जम्मू कश्मीर में इफ़्तार के समय ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) के अलावा किसी भी तरह के अन्य पेय के सेवन के बारे में सोचा भी नहीं जाता है.

यह कहना गलत नही होगा कि आधुनिक जीवन शैली के बावजूद ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) ने कश्मीरी समाज में अपनी पहचान बनाए रखी है. आधुनिक युग में भी ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) की लोकप्रियता कम नही हुई है, विषेशकर रमजान के पवित्र महीने में इसकी मांग और भी बढ जाती है. इफ़्तारी के समय ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) को दूध या शर्बत में डाल कर पिया जाता है.

गुणों का भंडार है ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी)

‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) काफी गुणकारी है. इसके सेवन से कई बिमारियों व रोगों से लड़ने में मदद मिलती है. ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) को पेट के लिए बहुत ही लाभकारी माना जाता है और शरीर में मोटापे को कम करने में भी मदद करती है. इसके सेवन से व्यक्ति का शरीर पूरी तरह से स्वस्थ व ब्लड शुगर नियंत्रित रहती है. इसके सेवन से पाचन प्रक्रिया भी सही रहती है और बैचेनी नही होती. ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) शरीर की त्वचा को साफ व सुन्दर रखने में भी मदद करती है. यह सख़्त गर्मी से राहत देती है.

जानकारों का मानना है कि रमजान के पवित्र महीने के दौरान रोज़ा रखने वाले व्यक्ति में पानी की कमी को पूरा करने के लिए भी ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का इस्तेमाल किया जाता है. इसके सेवन से प्यास को रोकने में मदद मिलती है.

रमजान के दौरान लंबे समय तक खाली पेट रहने से शरीर में गर्मी भी पैदा होने की आशंका रहती है, इसमें भी ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) राहत देती है, क्योंकि ‘बब्बरी-ब्योल’ की तासीर ठंडी होने के कारण यह शरीर को ठंडक प्रदान करती है. यही कारण है कि इसके सेवन से शरीर का तापमान सही रहता है.


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जानकारों का मानना है कि अपने औषधीय गुणों से भरपूर ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का कभी भी बिना भिगोए सेवन नही करना चाहिए. ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) को दूध या शर्बत में मिलाने से पहले कम से कम 15 से 25 मिनट तक भिगोए रखना चाहिए. भिगोने से ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) के बीज आकार में थोड़े बड़े हो जाएंगे.

देश भर में इन दिनों जारी भीषण गर्मी को देखते हुए 

भीषण गर्मी में जानकार ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का सेवन करने की भी सलाह देते हैं. इसके नियमित सेवन से गर्मी से बचा जा सकता है.

आसान है सेवन

‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) का सेवन भी बड़ा आसान है. तुलसी के बीजों को पानी में कुछ लेर के लिए भिगो कर रख दिया जाता हैं जब तुलसी के बीज थोड़े फूल जाते है तो फिर इन बीजों को दूध में मिलाया जाता है और बादाम, काजू आदि डाल कर इसका सेवन किया जाता है. कुछ लोग इसे शर्बत और रूह-अफ़्ज़ा आदि में डाल कर भी पीते हैं. कुछ लोग सिर्फ पानी में घोल कर भी इसका सेवन करते हैं.

कश्मीर कैसे पहुंची ‘बब्बरी-ब्योल’ 

कश्मीर में ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) के बीज कैसे पहुंचे और यह कश्मीर में कैसे लोकप्रिय हुई, इसे लेकर इतिहासकार एकमत नही हैं. कुछ इसे मध्य एशिया के साथ जोड़ कर देखते हैं और मानते हैं कि कश्मीर घाटी में ‘बब्बरी-ब्योल’ को लाने का श्रेय मध्य एशिया के विभिन्न भागों से कश्मीर में आने वाले सूफी संतो और हकीमों को जाता है.
लेकिन,कईं अन्य ऐसा नही मानते. अलबत्ता एक बात पर लगभग सभी सहमत दिखाई देते हैं कि चूंकि कश्मीर ऋषि-मुनियों, पीर-फ़क़ीरों की धरती रही है, इसलिए यह संभव है कि किसी ऋषि-मुनि, पीर-फ़क़ीर के साथ ही ‘बब्बरी-ब्योल’ (बबुई तुलसी) कश्मीर पहुंची.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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