होम मत-विमत नेशनल इंट्रेस्ट भारत के बारे में कमला हैरिस के विचार उनके DNA से नहीं,...

भारत के बारे में कमला हैरिस के विचार उनके DNA से नहीं, हमारी अर्थव्यवस्था की हालत से तय होंगे

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कमला हैरिस आधी भारतीय मूल की हैं, भारत के बारे में उनके विचार इससे नहीं तय नहीं होंगे कि वे किस मूल की हैं बल्कि इससे तय होंगे कि अगली जनवरी में भारतीय अर्थव्यवस्था किस हाल मैं होगी.

चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट

अमेरिकी राष्ट्रपति पद के अगले दावेदार जो बाइडेन ने अपनी सहयोगी के रूप में उप-राष्ट्रपति पद के लिए कमला हैरिस को उम्मीदवार बनाया, तो भारत में उत्साह की एक लहर देखी गई. हैरिस आधी भारतीय और आधी जमैका मूल की हैं, और आज वे पूरी अमेरिकी हैं. लेकिन कोई बात नहीं! बड़ा सवाल यह है कि भारतीय मूल की होने के कारण वे अपने ‘मादरे वतन’ का पक्ष लेंगी या खुद को अमेरिकियों से भी ज्यादा अमेरिकी साबित करने के लिए भारत विरोधी रुख अपनाएंगी? इस सप्ताह हम इस सवाल पर विचार करेंगे कि इस तरह की बहस बेमानी और बेकार क्यों है.

भारतीय मूल से किसी भी तरह जुड़ा कोई व्यक्ति दुनिया में मशहूर होता है तब हम भारतीय तुरंत दावा करने लगते हैं कि वह हमारा ही आधा हिस्सा है, खासकर तब तो और भी जब उसके दूसरे अभिभावक किसी छोटे देश के हों. इससे पहले सुनीता विलियम्स के मामले में यह हुआ, और अब हैरिस के मामले में यही हो रहा है. अगर वह भारतीय प्रवासी है, चाहे वह किसी भी पीढ़ी का हो, वह अगर शक्तिशाली, अमीर, और प्रसिद्ध है, तो वह हमारा है.


यह भी पढ़ें: विदेश नीति में पूर्वाग्रह और चुनावी सियासत–क्या मोदी सरकार को ‘स्ट्रैटिजिकली’ भारी पड़ रही है


मोंटेक सिंह अहलूवालिया मुझे उस वाक्य का उपयोग करने के लिए माफ करेंगे, जो इतना शानदार है कि उसे मैं बिना नाम बताए दोहरा नहीं सकता. एक क्रिकेट मैच के दौरान उन्होंने कहा था कि वहां बैट्समैन भी हैं और बॉलर भी लेकिन जब कोई सेंचुरी बनाता है तभी दर्शक कूद कर पिच तक पहुंच जाते हैं.

उन्होंने कहा था, हम भारतीय प्रायः ऐसे ही होते हैं. हरगोविंद खुराना को 1968 में जब चिकित्सा के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था तब मैं पानीपत के सनातन धर्म हायर सेकेंडरी स्कूल में नौवीं का छात्र था, और हमने तुरंत उस पुरस्कार को अपना बता दिया था. उस सुबह हमारे साइंस टीचर खूब खुश होकर क्लास में आए थे और न केवल ‘हरगोविंद’ को अपना पुराना स्कूली साथी बताया था बल्कि यह भी दावा किया था कि खुद वे उनसे बेहतर छात्र थे मगर पारिवारिक मजबूरीयन के कारण अमेरिका नहीं जा पाए थे. खुराना 1966 में ही पूर्ण अमेरिकी नागरिक बन चुके थे.

हम भारतीयों का वंश विशाल है और हम दुनिया भर में फैले हुए हैं. यह शानदार बात है. लेकिन बाहर जाकर हम विदेशी बन जाते हैं. क्या ब्रिटेन वाले यह मानेंगे कि ऋषि सुनक और प्रीति पटेल पहले भारतीय हैं, फिर और कुछ? या अमेरिका वाले बॉबी जिंदल, निक्की हेली, निशा बिस्वाल, रिचर्ड वर्मा को? यह सूची यहीं खत्म नहीं होती, और भारत में ऐसे कई लोग होंगे जो लंदन के मेयर सादिक़ खान को ‘कमबख्त’ पाकिस्तानी बताकर कटाक्ष करेंगे.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

यह धारणा एक संकीर्ण राष्ट्रीयतावादी मनोग्रन्थि ही है कि पूर्ण विदेशी नागरिक बन चुका शख्स आपके प्रति झुकाव रखेगा; अपने नये पासपोर्ट पर आपकी तमाम धार्मिक, जातीय, स्थानीय और राष्ट्रीय मान्यताओं को दर्ज करवा लेगा. यह एक अजीब बात ही है कि हमारे उपमहादेश के बड़े, परमाणु शक्तिसम्पन्न देश भी इस तरह की भावनाओं में बहते रहते हैं. कई पाकिस्तानी और भारतीय, दोनों मानते हैं कि अमेरिकी नेता इलहान अब्दुल्लाही उमर चूंकि मुसलमान हैं इसलिए वे चाहती हैं कि कश्मीर पाकिस्तान का हो जाए; या बराक ओबामा भी, क्योंकि उनके नाम के साथ हुसेन जुड़ा है. इसी तरह, मोईन अली या मोंटी पनेसर को पाकिस्तान या भारत में तब ‘गद्दार’ घोषित कर दिया जाता है जब वे हमारे बल्लेबाज को आउट कर देते हैं. हां, चार्ल्स शोभराज को हम फ्रेंच जरूर घोषित करना चाहते हैं.

अमेरिकी सार्वजनिक हस्तियों के मामले में हमारी यह ‘भारत समर्थक’ या ‘भारत विरोधी’ वाली सनक ज्यादा तेज हो जाती है. इसलिए केनेडी हमारे सबसे बड़े दोस्त थे, तो निक्सन सबसे बड़े दुश्मन. और बिल क्लिंटन को आप किस खाते में डालेंगे? इस सिलसिले पर हम जल्दी ही वापस आएंगे.

1980 से 1990 के दशकों के बीच, जब अमेरिका के साथ भारत के संबंध कुछ खिंचे-खिंचे-से थे तब न्यू यॉर्क के प्रतिनिधि स्टीफन सोलार्ज भारत के साथ बेहतर रिश्ते के सच्चे पैरोकार बनकर उभरे थे. और उन्हें तुरंत भारत का दोस्त या ‘भारत समर्थक’ घोषित कर दिया गया था. कई लोगों का मानना था कि इसकी वजह यह थी कि वहां बसे भारतीय वोटरों में उनका बड़ा आधार है या वे यहूदी आस्था वाले हैं (भारत और इजराएल एक-दूसरे को प्यार जो करते हैं). इसी तरह, कुछ लोगों को कभी ‘पाकिस्तान समर्थक’ तक घोषित किया गया.


य़ह भी पढ़ें: डेमोक्रेट्स ने कमला हैरिस को बनाया उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार, जो बाइडेन ने की घोषणा


इसके बाद ऐसा हुआ कि दिवंगत प्रोफेसर स्टीफन पी. कोहेन ने हमें कुछ पाठ पढ़ाए. उन्होंने कहा कि आप लोग जब स्टीव सोलार्ज को ‘भारत समर्थक’ या किसी और को ‘भारत विरोधी’ घोषित करते हैं तब गलती कर रहे होते हैं क्योंकि ‘वे ऐसे कुछ भी नहीं हैं. वे बस अमेरिका समर्थक हैं.’ फर्क सिर्फ यह है कि कोई यह मानता है कि भारत के साथ बेहतर रिश्ता अमेरिका के लिए फायदेमंद होगा, तो कोई पाकिस्तान के साथ बेहतर रिश्ते को इसके लिए अच्छा मानता है.

इसी कसौटी पर हमें आज कमला हैरिस को कसने की जरूरत है. हम उनके बारे में तमाम कहानियां या वीडियो जरूर जारी करें कि वे मसाला डोसा बनाने में कितनी माहिर हैं या उन्हें इडली-सांभर कितना पसंद है. ‘तम-ब्रह्म’ ट्वीटर पर यह सब चल भी रहा है. उधर चेन्नै का मायलापुर और बसंतनगर उन्हें अपना बताने के दावे में उलझा है. लेकिन यह सोचना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि भारत के बारे में हैरिस के विचार उनके डीएनए से तय होंगे.

लोकतंत्र की सबसे अच्छी बात यह है कि जब तक नेता लोग आपके लिए महत्वपूर्ण होने की हैसियत तक पहुंचते हैं, तब तक इनके बारे में इतना कुछ बोला, लिखा जा चुका होता है कि आपको मालूम हो जाता है कि वे वास्तव में हैं क्या.

इसलिए रिपोर्टरों को हैरिस के किसी भारतीय अंकल के पास इस सवाल के साथ जाने की जरूरत नहीं है कि भारत के प्रति उनका रुख उनके मूल स्थान से तय होगा या मानवाधिकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से? इन तमाम मुद्दों पर वे बहुत कुछ बोल, लिख और काम भी कर चुकी हैं. वे कैलीफोर्निया की एटॉर्नी जनरल रह चुकी हैं और अपराधियों के प्रति बेहद सख्त रही हैं, चाहे वे अश्वेत क्यों न रहे हों.

एक बार जब हम नयी तरह से शुरुआत करते हैं, जो जरूरी भी है, और हैरिस को एक अमेरिकी मान लेते हैं तब हम इस विचार को और आगे बढ़ा सकते हैं. और तब हम बिल क्लिंटन वाले सूत्र को पकड़ सकते हैं, कि वे भारत के लिए अच्छे अमेरिकी राष्ट्रपति थे या नहीं. इस सवाल का जवाब हां भी है और ना भी. वास्तव में शीतयुद्ध के बाद जितने अमेरिकी राष्ट्रपति बने उनमें क्लिंटन अपने पहले कार्यकाल में सबसे बुरे रहे, तो दूसरे कार्यकाल में सबसे अच्छे. उनका पहला कार्यकाल तब शुरू हुआ था जब बर्लिन की दीवार गिरने से उड़ी धूल अभी बैठी भी नहीं थी. उस दौरान भारत एक लंबे राजनीतिक-आर्थिक संकट से गुजर रहा था. 1989-91 के बीच तीन साल में हमें चौथे प्रधानमंत्री के रूप में पी.वी. नरसिंहराव मिले थे.

1991 की गर्मियों में हम कर्ज की मांग करते हुए अपना सोना लेकर आइएमएफ के दरबार में जा खड़े हुए थे. पंजाब में अलगाववादी हिंसा और खूनखराबा अपने चरम पर था, कश्मीर भी उबलने लगा था. राव की सरकार ने पूरे संकल्प के साथ जबरदस्त मुक़ाबला किया. पश्चिम के मानवाधिकार समुदाय ने इसका काफी विरोध किया. क्लिंटन का पहला प्रशासन इसी विवाद के बीच उलझा रहा. यह वो समय था जब भारत में कश्मीर के विलय पर भी सवाल उठाया जा रहा था.

इसके साथ ही परमाणु अप्रसार खेमा दबाव डाल रहा था कि भारत परमाणु घेरे से बाहर रहे. इस पर यह व्यापक धारणा भी बनी थी कि 1995 की सर्दियों में राव परमाणु परीक्षण करना चाहते थे मगर क्लिंटन ने उन्हें रोक दिया था. याद रहे कि 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने जब परमाणु परीक्षण किया तब क्लिंटन का दूसरा कार्यकाल चल रहा था. यह सब भारत-अमेरिका संबंधों कैसे आगे बढ़ा यह खासकर दो प्रमुख वार्ताकारों— जसवंत सिंह और स्ट्रोब टैलबॉट— की किताबों में बताया जा चुका है. क्लिंटन के राज में ही भारत को धमकी देकर ‘रोका’ भी गया, और उन्हीं के राज में भारत को परमाणु हथियार वाले देशों के एक जिम्मेदार क्लब में आसानी से शामिल भी किया गया.

1999 में क्लिंटन ने पाकिस्तान को करगिल में अपनी सीमा में रहने को भी मजबूर किया, इस उपमहादेश का दौरा किया मगर पाकिस्तान में चंद मिनट से ज्यादा नहीं रुके और इसी दौरान उसे कुछ धमकाते हुए यह भी जता दिया कि इस उपमहादेश के नक्शे पर जो लकीरें खींच दी गई हैं उन्हें अब खून से दोबारा नहीं खींचा जा सकता. ये अपने पहले कार्यकाल वाले क्लिंटन नहीं थे.

क्लिंटन के दो कार्यकालों में क्या फर्क आ गया था? क्या वे ज्ञान देने वाले बोधिवृक्ष जैसे किसी वृक्ष के नीचे बैठे थे? फर्क यह आया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था बदल गई थी, और दुनिया में अपना रुतबा बना रही थी. राव-मनमोहन के आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1991 में हुई. भारत एक चिंता सबब नहीं रहा था, बल्कि दुनिया भर के लिए एक अवसर का प्रतीक बन गया था. भारत बदल गया था, क्लिंटन वही थे. वे वही कर रहे थे, जो उन्हें अमेरिका के लिए सबसे अच्छा लगत था.

आज के लिए यही सबक है. भारत को अगर दुनिया की शक्तिशाली राजधानियों में अपना रुतबा और अपनी इज्ज़त बढ़ानी है, तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था, आंतरिक समरसता और बाह्य सुरक्षा पर ध्यान देना होगा. पिछले तीन साल में हमारा देश इन तीनों मामलों में फिसलकर पीछे चला गया है. मोदी सरकार के चहेते यह नहीं मानेंगे, लेकिन इतना तो वे मानेंगे ही कि पिछले तीन साल में हमारी अर्थव्यवस्था लस्तपस्त हो चुकी है. अगली जनवरी में इसकी जो भी हालत रहेगी, भारत के बारे में कमला हैरिस के विचार उसी से तय होंगे, न कि उनके वंशाणु से. वह भी तब, जब बाइडेन का टिकट जीतता है.


यह भी पढ़ें: ट्रंप की चुनावी टीम का उपराष्ट्रपति की उम्मीदवार कमला हैरिस पर हमला- नैतिक और बौद्धिक स्तर पर दिवालिया बताया, नकली भी


(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

Exit mobile version