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एलएसी संघर्ष को ‘खुफिया विफलता’ कहना गलत है यह भारत की वास्तविक समस्या को नजरअंदाज करता है

जानकारी को इंटेलिजेंस में बदलने के लिए, निर्णय लेने वाले सूत्रों की तरफ से, कुछ पुष्टिकरण की ज़रूरत होती है. एक ऐसे देश के मामले में, जिसका अपारदर्शिता में कोई सानी नहीं है, ये काम असंभव नहीं, लेकिन मुश्किल ज़रूर है.

लद्दाख़ की सीमा पर चीन के साथ टकराव, और 20 भारतीय सैनिकों की नृशंस हत्या के बाद, कुछ रिटायर्ड सैनिक अधिकारियों और सोनिया गांधी जैसे विपक्षी नेताओं ने, ख़ुफिया तंत्र की ‘एक और’ नाकामी के बहुत उग्र आरोप लगाए हैं. ‘एक और’ से तात्पर्य 1999 में कारगिल में पाकिस्तान के अतिक्रमण से है, जिसने भारत को चौंका दिया था.

हालांकि उस दुर्भाग्यपूर्ण लड़ाई के साथ कुछ व्यापक समानताएं ज़रूर हैं, लेकिन इस समय पर ख़ुफिया तंत्र की नाकामी के बारे में ऐसा बयान देना उचित प्रतीत नहीं होता. इसके निकटतम हलक़ों के बाहर, ख़ुफिया तंत्र और उसकी कार्यप्रणाली की अपर्याप्त समझ के बावजूद, उनका शोर गूंजता रहेगा. गलवान घटना की मिसाल देकर मैं इसे स्पष्ट करूंगी, ताकि हम एक शुरूआती आंकलन पर पहुंच सकें, कि समस्या आख़िर कहां है.


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एक राजनीतिक स्कैनर

पहला है राजनीतिक इंटेलिजेंस, जो आमतौर से शुरूआती चेतावनी का आधार होती है; इस मामले में राष्ट्रपति शी जिनपिग और उनके क़रीबी सलाहकारों की अपेक्षाकृत अधिक ताकत और रुतबा, और दूसरी चीज़ों के अलावा, क्या इस मंडली को अंदर या बाहर से कोई ख़तरा था. बहुत सारी एक्सपर्ट स्टडीज़ की ओर से ज़ोरदार ‘हां’ ने एजेंसियों को सतर्क कर दिया होगा, क्योंकि कमज़ोर लीडर्स इंतज़ार में बैठे संभावित विरोधियों पर बढ़त लेने के लिए, जीत की ख़ातिर जोखिम भरा रास्ता अपना लेते हैं. लेकिन वो एक जानकारी है. उसे इंटेलिजेंस में बदलने के लिए, निर्णय लेने वाले सूत्रों की तरफ से, कुछ पुष्टिकरण की ज़रूरत होती है. एक ऐसे देश के मामले में, जिसका अपारदर्शिता में कोई सानी नहीं है, ये काम असंभव नहीं, तो मुश्किल ज़रूर है.

इसलिए भारत की बाहरी एजेंसी, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (आर एंड एडब्लू) ने अपने आंकलन में, बहुत एहतियात के साथ अनुमान लगाया होगा, कि चीन में सत्ता के शिखर पर बैठा इंसान, जुझारू मूड में है और ऑस्ट्रेलिया के साथ बदसलूकी, जिसकी सिर्फ एक मिसाल है. दूसरी मिसाल होगी 9 मई को उत्तरी सिक्किम में हुई झड़प को लेकर, बीजिंग में हमारे डिफेंस अटाचे की तलबी, क्योंकि उसने पहले ऐसा कभी नहीं किया है. राजनीतिक आंकलन ने चीन की नाराज़गी की ख़बर दे दी होगी, और भारत और अमेरिका के एक्सपर्ट्स इस बात पर सहमत थे, कि बीजिंग के लिए लड़ाई मोल लेने का ये उपयुक्त समय नहीं था. आख़िर वूहान में लॉकडाउन को उठाए, मुश्किल से दो हफ्ते ही हुए थे.

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एक मिलिट्री स्कैनर

निरंतर आंकलन की एक दूसरी परत होगी, चीनी सैन्य नेतृत्व और इसकी क्षमता. चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के बारे में, काफी हद तक खुले हुए सूत्रों का विभिन्न स्तरों पर विश्लेषण उपलब्ध है, और इसकी क्षमता पर उससे भी अधिक है. बीजिंग की आदत है कि वो अपनी क्षमताओं की कुछ ज़्यादा ही नुमाइश करता है. अमेरिका भी ऐसा ही करता है, और अपने दुश्मनों की भूमिका को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, जो कभी कभी सच्चाई से काफी दूर होती है. पतन से कुछ पहले ही, सोवियत संघ के बारे में सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के आंकलन, शर्मनाक हद तक भावुक थे. सच्चाई आमतौर पर कहीं बीच में होती है.

इस बीच, कारगिल युद्ध के बाद एनटीआरओ (राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन) की स्थापना के साथ ही, भारत की तकनीकी खुफिया जानकारी जुटाने की क्षमता काफी हद तक सुधर गई है, और इस बात की संभावना कम है, कि बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों की हरकत पता नहीं चलेगी. जनवरी में चीन का अभ्यास भारत की सीमा से, अपेक्षा से कहीं अधिक क़रीब था, जिसने लॉजिस्टिक्स में उसकी ज़बर्दस्त क्षमता को दर्शाया, जो पहले ही ज़ाहिर हो गई थी, जब 2018 में कुनलुन पहाड़ियों के दक्षिण में भारी सैन्य उपकरण ढो कर ले जाए गए थे. चीन पर नज़र रखने वाले सभी लोगों ने इस अभ्यास की ख़बर दी थी, और डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (डीआईए) ने उसका विस्तार से विश्लेषण किया होगा. इसके बाद, नियोजित अभ्यास के हिस्से के तौर पर, किसी समय अप्रैल में, पश्चिम की ओर हरकत भी अप्रत्याशित नहीं थी.

चीन के प्रचार साधनों ने दावा किया कि ह्यूबे से, जिसकी राजधानी वूहान समुद्र तल से 53 फीट ऊपर है, सैनिकों और वाहनों के मूवमेंट को ‘कुछ घंटों के अंदर’ अंजाम दिया गया, जो कि संभव नहीं लगता क्योंकि 13,000 फीट ऊंची चढ़ाई चढ़ने के लिए, नई जलवायु से अभ्यस्त होना पड़ता है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि लॉजिस्टिक्स को लेकर चीन की क्षमताएं प्रभावशाली हैं. इसलिए, वास्तविक नियंत्रण रेखा तक का 200 किलोमीटर (मोटे तौर पर रूटोग से अनुमानित) का आख़िरी हिस्सा, उन्होंने चिंताजनक हद तक तेज़ी से पार किया होगा.


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रिपोर्ट के मुताबिक़, अप्रैल तक उनकी हरकतों की ख़ुफिया जानकारी और निश्चित हो गई थी, जब ज़मीनी स्तर से इसकी पुष्टि के लिए कहा गया था. ये गुप्त जानकारी पैंगॉन्ग के बारे में ही रही होगी, जहां मध्य मई तक दो झड़पें हो चुकीं थीं, उनमें कम से कम एक में, चीनी सैनिक लोहे की छड़ों वग़ैरह से लैस होकर आए थे. गलवान हमेशा की तरह शांतिपूर्ण रहा.

गलवान एरिया में ग्राउंड इंटेलिजेंस इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) और इंटेलिजेंस ब्यूरो के लोकल स्टेशंस के पास होती है. ये स्पष्ट नहीं है कि लद्दाख़ में आईटीबीपी को, किसी और जगह भारत-चीन तनावों का पता भी था कि नहीं. गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली ये बहादुर फोर्स, बहुत लम्बे समय से एलएसी पर होने वाली धक्का-मुक्की की आदी रही है. लेकिन 21 मई को होने वाली घटना, जब चीनियों ने सुधारी हुई डारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड के पेट्रोलिंग प्वॉइंट 14 पर गश्त लगाने पर एतराज़ किया, तो वो एक सामान्य बात नहीं थी, और उसकी तुरंत ख़बर दी गई होगी.

गलवान के सामने चीनियों की मौजूदगी में कोई भी इज़ाफा आईटीबीपी के जासूसों ने सबसे पहले देखा होगा. ये स्पष्ट नहीं है कि क्या ये अहम खुफिया जानकारी, राज्यस्तर पर होने वाली नियमित बहु-एजेंसी बैठकों में साझा की गई या नहीं. लेकिन हालात तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे. चार दिन बाद दो अन्य प्वॉइंट्स पर अतिक्रमण देखा गया. तब भी मई के अंत में स्थानीय कमांडरों के बीच हुई बातचीत, में चिंताओं को शांत किया गया होगा, और विदेश मंत्रालय की ओर से की गई एक मीडिया ब्रीफिंग में भी, सीमा के मुद्दे का कोई उल्लेख नहीं हुआ. चीनी विदेश मंत्रालय के दिलासा देने वाले बयान, कोरोनावायरस से लड़ने के लिए जैक मा फाउण्डेशन और अली बाबा फाउण्डेशन के दान, और चीनी राजदूत के मैत्रीभाव ने भी, आशंकाओं को बढ़ने नहीं दिया.

लेकिन ज़मीनी स्तर पर, अलग अलग होने के वादे के बावजूद, जैसा कि 6 जून को हुई सीनियर लेवल की सैन्य वार्ता में तय हुआ था, 16 बिहार के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल संतोष बाबू, गलवान में चीनियों के अतिक्रमण को हटाने में लगे थे. 15 जून को जब जानलेवा हमला हुआ, तो पूरे हालात को देखते हुए, उसकी अपेक्षा करने का कोई रणनीतिक कारण नहीं था, सिवाए इसके, कि वो हमला ‘ताज़ा सैनिकों’ की ओर से हुआ था.

ये स्पष्ट नहीं है कि क्या इसके बारे में स्थानीय जासूस चेतावनी दे पाए थे. मरने वालों की संख्या ज़्यादा नहीं रही, तो सिर्फ इसलिए कि सेना ने पहले ही अपने सैनिक जुटा लिए थे. लेकिन बचाव टुकड़ियां एक कच्चे रास्ते से होकर ही घटना स्थल तक पहुंच पाईं. चीन ने तक़रीबन आख़िरी प्वाइंट तक सड़कें बना रखीं हैं, और अगर हालिया ख़बरों पर यक़ीन करें, तो उसने गलवान नदी पर भी एक पुलिया बना ली है. ये है लॉजिस्टिक्स की फुर्ती.


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असली बुरे लोगों की पहचान

जैसा कि देखा जा सकता है, इस स्थिति की कारगिल से कोई समानता नहीं है, जहां पूरी कार्रवाई एक सरप्राइज़ थी. पहली बात तो ये कि आखिरी चरण से पहले तक, तमाम गतिविधियों के पीछे रूटीन इंटेलिजेंस लगी रही होगी. निश्चित ही, राजनीतिक आंकलन उतने ही जोखिम भरे थे, जितने 1999 में थे, जब किसी ने नहीं सोचा था, कि वित्तीय संकट से जूझ रहा पाकिस्तान, एक कारगिल कर देगा.

लोगों की तरह देश भी अप्रत्याशित होते हैं. दूसरे, तकनीकी ख़ुफिया जानकारी हरकतों को पकड़ सकती है, लेकिन उनका अंतिम सत्यापन ही मायने रखता है. अगर पहले से ही ये संदेह था कि चीनियों की नीयत ठीक नहीं थी, तो स्थानीय इंटेल ने अपनी क्षमताओं में इज़ाफा कर किया होगा. कारगिल कमीटी रिपोर्ट का मुख्स फोकस था, खुफिया जानकारी को आगे और पीछे शेयर करने में तेज़ी लाना.

लेकिन कुछ साल बाद इसमें पीछे हटने के लक्षण देखे गए, ख़ासकर जहां एजेंसियां विभिन्न मंत्रालयों को रिपोर्ट करती हैं. इसे बदलने की ज़रूरत है, तीसरे, खुफिया जानकारी जल्दी मिलने से सुरक्षा बल जल्दी तैनात किए जा सकते थे, लेकिन इनफ्रास्ट्रक्चर के धीमे विकास के चलते, उनके कारगर होने पर संदेह बना रहता. 2013 के मध्य में देपसंग अतिक्रमण के बाद, एनएके ब्राउन की अगुवाई में एयर फोर्स ने तुरंत फैसला किया, और सेना को सपोर्ट देने के लिए, तीन महीने बाद ही, पहली बार स्पेशल ऑप्स विमान सी-130-जे को, दौलत बेग ओल्डी पर उतार दिया. इसे कहते हैं ऑपरेशंस की फुर्ती. लेकिन नयोमा में लड़ाकू विमानों के लिए मुकम्मल बेस, और कारगिल रनवे के विस्तार की सिफारिशें, अभी तक मंजूरी की बाट जोह रही हैं, जिसकी वजह से हमारी निर्भरता, लेह और थोएस के सिर्फ दो हवाई अड्डों पर है.

सेना की माउंटेन स्ट्राइक कोर फंड्स की कमी से प्रभावित है, और आईटीबीपी की पैंगॉन्ग पर हर मौसम के लिए उपयुक्त सीमा चौकियां बनाने की ज़रूरत भी, बहुत लम्बे समय से पूरी नहीं हुई है. चौथी, और सबसे अहम बात ये है, कि रक्षा मामलों की संसदीय स्थाई समिति ने निराशाजनक देरी पर प्रकाश डाला- सेना के 68 प्रतिशत उपकरण ‘पुरानों’ श्रेणी में आते हैं- ये और दूसरे डॉक्युमेंट्स इस बात पर ज़ोर देते हैं, कि हम अभी भी पिछली लड़ाई लड़ रहे हैं. एक परमाणु वातावरण में, जनशक्ति पर आधारित लड़ाई की संभावना बहुत कम है.

क्षमताओं की नई तरह से कल्पना करनी होगी, जिसमें ख़ुफिया जानकारी जुटाना भी शामिल है, और सबसे अहम ये है कि इन क्षमताओं को, अपने उस वास्तविक दुश्मन की दिशा में करना होगा, जो हमारे दरवाज़े पर है, बजाय पाकिस्तान की ओर करने के, जो एक परेशानी भर है.

और अंत में, पहचानिए कि ये वो चीन है, जो अपनी सलामी स्लाइसिंग करता रहेगा. एडॉल्फ हिटलर इतिहास का विक्षेप नहीं था; इसलिए तुष्टीकरण की जगह स्टिक उठाना होगा. आने वाले बजट में और कटौती की संभावना हो सकती है, इसलिए बुरे लोगों की अपनी लिस्ट की प्राथमिकता तय करके, उस स्टिक को और पैना करना होगा.

(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार उनके अपने हैं.)

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