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आतंक के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई करना मुश्किल है, लेकिन बालाकोट के बाद भारत की प्रतिक्रिया अब तक काम आई है

2019 बालाकोट हवाई हमले के बाद से, हम 2001 के संसद हमले और 2008 के मुंबई हमलों के पैमाने पर किसी भी बड़ी आतंकी घटना से मुक्त हो गए हैं.

चित्रणः सोहम सेन । दिप्रिंट

क्या 2019 पुलवामा आतंकी हमले पर भारत की प्रतिक्रिया उचित प्रतिक्रिया थी? क्या हमें 2001 में संसद पर हमले के बाद भी कुछ ऐसा ही करना चाहिए था? क्या हम मुंबई पर 26/11 के हमले के प्रति अपनी प्रतिक्रिया में बहुत संयमित थे?

ये सवाल बार-बार उठाए गए हैं और अब अजय बिसारिया की एक नई किताब के विमोचन के बाद फिर से खबरों में हैं, जो पहले पाकिस्तान और फिर कनाडा में हमारे राजदूत थे.

आप इस बात पर हमेशा बहस कर सकते हैं कि पुलवामा नरसंहार के लिए बालाकोट पर हमारा जवाबी हमला कितना बेहतर तरीके से टारगेटेड था. पश्चिमी मीडिया को भारतीय हवाई हमले के स्थल पर ले जाने वाले पाकिस्तानियों के अनुसार, हम लक्ष्य से चूक गए और कुछ बकरियों को मार डाला और इसके बजाय कुछ पेड़ों पर हमला किया. हमारे अनुसार, हमने पुलवामा नरसंहार के पीछे आतंकवादी समूह के मुख्यालय को क्षतिग्रस्त कर दिया (हालांकि हमने बाद में मृतकों का आंकड़ा कम करके 500 कर दिया.)

उस प्रकरण को भारतीय वायु सेना के बहादुर लड़ाकू पायलट ग्रुप कैप्टन अभिनंदन वर्धमान को पकड़ने के लिए भी याद किया जाता है, जिन्हें पाकिस्तानियों ने उनके विमान को मार गिराने के बाद हिरासत में ले लिया था. जब ऐसा हुआ तब बिसारिया राजदूत थे और उन्होंने देखा कि कैसे पाकिस्तानियों ने अभिनंदन को तुरंत रिहा कर दिया. लेकिन, उनका कहना है, पाकिस्तानियों ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को बताया कि वे भारत के दबाव में थे क्योंकि सात भारतीय मिसाइलें सीधे पाकिस्तान की ओर थीं.

अगर पाकिस्तानी सच कह रहे थे तो जवाबी कार्रवाई काम कर गई. हो सकता है कि हमने आतंकवादी शिविर को नष्ट किया हो या नहीं. लेकिन हवाई हमला करके और आतंकवादी ठिकानों को नष्ट करने की अपनी इच्छा प्रदर्शित करके, हमने सही संदेश भेजा. और अगर यह वास्तव में मिसाइल कूटनीति थी जिसने अभिनंदन की रिहाई सुनिश्चित की, तो यह भारत की प्रतिक्रिया की ताकत को भी दर्शाता है.

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भारत ने दो मौके गंवाए

अफसोस की बात है कि जब आतंकवाद का जवाब देने की बात आती है तो बहुत से नहीं तो अधिकांश देश शायद ही कभी इसे सही कर पाते हैं. आइए अपना स्वयं का उदाहरण लें. संसद पर हमले के बाद हमने कोई जवाबी हमला नहीं किया. इसके बजाय, उस समय की भाजपा सरकार ने हजारों सैनिकों को पाकिस्तान की सीमा पर भेजा, जिसे ऑपरेशन पराक्रम के नाम से जाना गया. यह एक महंगा और अंततः निरर्थक एक्सरसाइज था जिसमें हमें सैकड़ों करोड़ खर्च करने पड़े और हासिल बहुत कम हुआ. निश्चित रूप से, इसने पाकिस्तानी आतंकवादी हमलों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया.

और इस आशय की एक कॉन्सपिरेसी थियरी भी है कि ऑपरेशन पराक्रम ने पाकिस्तान के हितों की पूर्ति की. इस अवधि के दौरान, अमेरिका पाकिस्तान पर अफगानिस्तान के साथ अपनी सीमा पर सख्ती से गश्त करने के लिए दबाव डाल रहा था क्योंकि ओसामा बिन लादेन सहित अल-कायदा के लड़ाके पाकिस्तान में घुसने की कोशिश कर रहे थे. सबसे पहले, पाकिस्तानियों ने कहा कि वे ऐसा करने को तैयार हैं. लेकिन पराक्रम के बाद, उन्होंने अपने सैनिकों को बाहर कर दिया और उन्हें भारतीय सीमा में भेज दिया, यह तर्क देते हुए कि उन्हें भारतीय सैन्य जमावड़े का मुकाबला करना था. शायद तभी ओसामा ने वह जगह छोड़ी जहां वह छिपा हुआ था, पाकिस्तान आया और उसे एबटाबाद में छिपने के लिए उसे एक अच्छा घर दिया गया.

इसी तरह, 2008 के मुंबई आतंकवादी हमलों पर कड़ी प्रतिक्रिया की हमारी कमी के बारे में भी हमेशा सवाल उठते रहेंगे. मूलतः, उस दुखद हमले से निपटने का भारतीय तरीका शुरू से अंत तक विनाशकारी था. हमें अमेरिकियों से एक सूचना मिली थी (संभवतः डेविड हेडली से, जो आतंकवादी समूह के भीतर एक अमेरिकी एजेंट था), लेकिन जब कुछ हफ्तों तक अपेक्षित हमला नहीं हुआ तो हमने सूचना में रुचि खो दी. इसके बाद हमने नाव पर आतंकवादियों की वास्तविक रेडियो बातचीत सुनी, जिसमें वे मुंबई जा रहे थे. इन्हें भी हमारे ख़ुफ़िया प्रतिष्ठान ने नज़रअंदाज़ कर दिया.

और आतंकवाद विरोधी अभियान उलझाऊ था: इसमें बहुत लंबा समय लगा, हमने संवेदनशील जानकारी लीक होने दी, और हालांकि अब यह पता चला है कि हम रियल टाइम में पाकिस्तान में आतंकवादियों और उनके आकाओं के बीच बातचीत को पकड़ रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं लगता है इससे हमें बंदूकधारियों को जल्दी बाहर निकालने में मदद मिली.

इसके बाद, मनमोहन सिंह ने अमेरिकियों की बात सुनी जिन्होंने संयम बरतने का आग्रह किया और परिणामस्वरूप, भारतीय शहर पर सबसे घातक आतंकवादी हमला करवाने वालों में से किसी को भी न्याय के कटघरे में नहीं खड़ा किया गया.

और फिर भी, प्रतिशोध को बहुत लंबे समय तक खींचना संभव नहीं है. जब 9/11 हुआ, तो सभ्य दुनिया अमेरिका के पीछे एकजुट हो गई. जब अमेरिकियों ने तालिबान से ओसामा को सौंपने के लिए कहा और फिर तालिबान के इनकार के बाद अफगानिस्तान पर आक्रमण किया, तो दुनिया खुश हो गई. हमारा मानना था कि 9/11 के लिए कुछ बदला लेना होगा.

और वास्तव में, अमेरिकियों ने अल-कायदा को नष्ट कर दिया और तालिबान को खत्म कर दिया. (लेकिन उसके सिर्फ दो दशक बाद तालिबानियों की अगली पीढ़ी को सत्ता में वापस आ गई; हालांकि, यह अलग कहानी है.)

दुर्भाग्य से अमेरिकियों ने इस जीत के बाद इराक पर आक्रमण किया और अपने लोगों को यह झूठ बताया कि सद्दाम हुसैन 9/11 में शामिल था और उसके पास सामूहिक विनाश के हथियार थे, जो कि एक और झूठ या संभवतः एक गलत धारणा थी.

इस प्रक्रिया में, अमेरिकियों ने पूरे क्षेत्र को अस्त-व्यस्त कर दिया, लाखों जिंदगियों को नष्ट कर दिया, और 9/11 के बाद उन्हें जो वैश्विक समर्थन और सहानुभूति मिली थी, उसे ख़त्म कर दिया.

प्रतिशोध कठिन काम है

इजरायल के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. जब भयानक हमास आतंकवादी हमले हुए, तो हममें से अधिकांश लोग स्तब्ध थे और उस प्रतिशोध की उम्मीद कर रहे थे जिसके लिए इज़रायल प्रसिद्ध है. लेकिन तेज, तीखे हमलों के बजाय, जिसके लिए इज़रायल जाना जाता है, हमने नरसंहार की एक पूरी सीरीज़ देखी.

मैं इजरायल के इस दावे पर सवाल नहीं खड़ा कर रहा कि हमास के आतंकवादी गाज़ा में नागरिक आबादी के बीच छिपे हुए हैं और अनिवार्य रूप से कुछ आकस्मिक क्षति होगी. लेकिन शिशुओं और छोटे बच्चों की हत्या के साथ लगातार इजरायली हमले ने यह धारणा बना दी है कि इजरायल फिलिस्तीनी नागरिकों के जीवन को कोई महत्व नहीं देता है. दूसरों ने सुझाव दिया है कि शायद इज़रायल का अंतिम इरादा गाजा को नष्ट करना और अपने अनुसार इसका पुनर्निर्माण करना है.

इससे भी बुरी बात यह है कि इजरायल के सुरक्षा बलों की अच्छी प्रतिष्ठा के बावजूद, यह स्पष्ट नहीं है कि वह हजारों निर्दोष लोगों को मारने के बाद भी हमास को पंगु बनाने में कामयाब रहा है. इजरायल के अंदर सरकार के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा है, जो तमाम हत्याओं के बाद भी उन बंधकों की रिहाई नहीं करा पाई है, जिन्हें हमास के आतंकियों ने इजरायल पर हमले के दौरान पकड़ लिया था.

यहां तक कि इजरायल का सबसे करीबी और सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी अमेरिका भी अब संयम बरतने का आह्वान कर रहा है और जैसे-जैसे फ़िलिस्तीनी शवों का ढेर लग रहा है, दुनिया हमास द्वारा किए गए कृत्य की भयावहता को भूलने लगी है और इज़रायलियों की निंदा करने लगी है.

इसलिए, आतंकवाद का जवाब देना या उस पर प्रतिक्रिया देना एक कठिन काम हो सकता है. दुनिया के अधिकांश लोग अक्सर इसे ग़लत समझते हैं. और एक तरह से, आतंकवादी यही चाहते हैं. जितनी ज्यादा जन-धन की हानि होती है, जितने अधिक नागरिक हताहत होते हैं, आतंकवादियों को उतनी ही अधिक सहानुभूति मिलती है.

बालाकोट के बाद से, हम संसद हमले और 26/11 जितनी बड़ी किसी भी बड़ी घटना से मुक्त रहे हैं. यह हमारी ख़ुफ़िया सेवाओं के लिए एक तारीफ वाली बात हो सकती है और इस धारणा का परिणाम हो सकता है कि अगर हम पर हमला किया गया तो भारत बुद्धिमानी और दृढ़ता से जवाब देगा.

आशा करते हैं कि यह इसी तरह बना रहेगा.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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