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झारखंड के विधानसभा चुनाव में ओबीसी आरक्षण के मुद्दे ने हलचल पैदा कर दी है

पिछले दो दशक से झारखंड में ओबीसी आरक्षण बढ़ाने का मुद्दा उठता रहा है. पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने इसकी पहल की थी. अब झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन ने ओबीसी आरक्षण दोगुना करने का वादा किया है.

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हेमंत सोरेन की फाइल फोटो । ट्विटर

झारखंड विधानसभा का चुनाव करीब आते ही राज्य में ओबीसी आरक्षण का मामला जोर पकड़ने लगा है. बीते 26 अगस्त को नेता प्रतिपक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की ‘बदलाव यात्रा’ का आरम्भ सिदो-कान्हू की जन्मस्थली भोगनाडीह से किया. साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखण्ड के इस गांव से शुरू हुई ‘बदलाव यात्रा’ में हेमंत सोरेन के संबोधन ने झारखंड की राजनीति को गरम कर दिया है. झारखंड में इसी साल सर्दियों में विधानसभा चुनाव होंगे.

हेमंत सोरेन ने अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के आरक्षण में दो-दो फीसदी और ओबीसी के आरक्षण में 13 फीसदी की बढ़ोतरी का वादा किया है. मालूम हो कि अभी झारखंड में अनुसूचित जनजाति को 26 फीसदी, अनुसूचित जाति को 10 फीसदी और ओबीसी को 14 फीसदी आरक्षण दिया जाता है. अब इसमें आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण जातियों को दिया जाने वाला 10 फीसदी आरक्षण भी शामिल कर दिया गया है. हेमंत सोरेन ने कहा है कि उनकी सरकार बनी तो वह 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था करेंगे.

झारखंड में ओबीसी आरक्षण का मुद्दा

हेमंत सोरेन के इस दावे के बाद ओबीसी आरक्षण झारखंड में बहस का मुद्दा बन गया है. ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. सरकार में रहते हुए आजसू पार्टी (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) ने झारखंड में ओबीसी आरक्षण बढ़ाकर 27 फीसदी करने की मांग सितंबर 2016 में की थी. आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो जो खुद भी पिछड़ी जाति के हैं. उन्होंने अखिल झारखंड पिछड़ी जाति महासम्मेलन के मंच से अपनी ही सरकार से यह मांग की थी.

जेवीएम के विधायक प्रदीप यादव ने यह मांग सदन में उठाई थी. उन्होंने राज्य में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाकर 73 फीसदी करने की मांग सदन के सामने रखी थी, जिसमें पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की मांग शामिल थी. पिछड़ी जाति से ही आने वाले मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 2001 में झारखंड हाई कोर्ट द्वारा लगाए गए स्थगन आदेश का हवाला देकर इस मांग पर विचार करने से मना कर दिया था.

बाबूलाल मरांडी ने की थी पहल

नवगठित झारखंड राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने राज्य की आरक्षण नीति में बदलाव करते हुए राज्य में एसटी को 32 फीसदी, एससी को 14 फीसदी और पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया था. यह नियम झारखंड में लागू नहीं हो पाया क्योंकि झारखंड हाई कोर्ट ने 50 फीसदी से अधिक आरक्षण देने के प्रावधान को निरस्त कर दिया और तदर्थ यानी अस्थायी व्यवस्था करते हुए एसटी, एससी और पिछड़ों के लिए क्रमशः 26, 10, 14 फीसदी के आरक्षण की व्यवस्था को ही मंजूरी दी. ध्यान रहे कि यह एक अस्थायी व्यवस्था थी, पर उसके बाद सरकारें उदासीन हो गईं और राजनीतिक पार्टियों ने भी लगभग चुप्पी साध ली. कभी-कभार पिछड़ों के सम्मेलनों से आवाज़ उठती पर, कार्यक्रम के समापन के साथ ही ओबीसी आरक्षण की मांग भी विसर्जित हो जाती.

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ओबीसी आरक्षण पर देश भर में चर्चा

ऐसे में झारखंड की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और नेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन द्वारा आरक्षण की सीमा को बढ़ाने एवं उसमें ओबीसी आरक्षण को लगभग दोगुना करने के वादे ने हलचल पैदा कर दी है. यह पहली बार है कि राज्य की किसी बड़ी पार्टी ने इतनी मजबूती से ओबीसी आरक्षण को बढ़ाने की बात की है. हेमंत सोरेन अपने इस दावे पर किस हद तक कायम रहते हैं, ये देखना होगा. लोग कांग्रेस शासित मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य का उदाहरण भी सामने रख रहे हैं.

छत्तीसगढ़ भी झारखंड के समान ही आदिवासी बहुल राज्य है. वहां भी पहले ओबीसी को 14 फीसदी आरक्षण प्राप्त था, जिसे वहां की भूपेश बघेल सरकार ने बढ़ाकर 27 फीसदी कर दिया है. मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार यह कर चुकी है. एक के बाद एक कांग्रेस की सरकारें ओबीसी आरक्षण में बढ़ोतरी कर रही है, जिससे ओबीसी आरक्षण एक बार फिर से देश भर में बहस का मुद्दा बन गया है.

मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने से लेकर आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था आने के बीच बहुत पानी बह गया है. मोहन भागवत की आरक्षण की समीक्षा वाली बात भी आई, जिस पर बीजेपी के नेताओं को सफाई भी देनी पड़ी. इस बीच आरक्षण की सीमा जो 50 फीसदी पर रुकी थी, वह आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को समायोजित करने के लिए बढ़ा दी गई. इससे यह संदेश भी गया कि जरूरतमंद तबकों के लिए आरक्षण जरूरी है. इससे आरक्षण को एक नैतिक वैधता भी मिली है. साथ ही ये तर्क भी आया है कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा हो सकता है.

क्या ओबीसी आरक्षण बनेगा झारखंड चुनाव का मुद्दा

झारखंड का राजनीतिक मिजाज अन्य हिंदी भाषी राज्यों से थोड़ा अलग रहा है. जाति एवं आरक्षण का मुद्दा कभी यहां चुनाव का प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाया है. हालांकि सत्ता में आने वाली पार्टियों ने पिछड़ी जातियों को कायदे से साधने में कोई कमी नहीं की है. राज्य की सबसे बड़ी ओबीसी आबादी (लगभग 52 फीसदी ) का योगदान सरकार बनाने में सबसे अहम होता है. इसे समझने में हेमंत सोरेन को थोड़ा वक्त लगा, पर अब वह अपनी इस गलती को दुरुस्त करने का मन बना चुके हैं. हेमंत सोरेन का यह दावा कमलनाथ और भूपेश बघेल सरकार द्वारा लागू की गई नई आरक्षण नीति का ही अगला कदम है.

हेमंत वही कह रहे हैं, जिसकी 1978 में मंडल आयोग ने सिफारिश की थी. आबादी में हिस्सेदारी के आधार पर नौकरियों और एडमिशन में भागीदारी की व्यवस्था जातियों में बंटे इस देश के लिए वैज्ञानिक व्यवस्था मानी जाएगी. जातिवार जनगणना की रिपोर्ट को जारी नहीं करना और आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को आरक्षण के दायरे में लाने के केंद्र सरकार के कदम ने बहस को गर्म तो कर ही दिया है. ऐसे में आदिवासी बहुल राज्य के प्रमुख आदिवासी नेता के इस हस्तक्षेप ने झारखंड की राजनीति को नया मोड़ दे दिया है.


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अब देखना यह है कि इस पर सत्तारूढ़ दल बीजेपी का दांव क्या होता है? यह भी देखना दिलचस्प होगा कि ओबीसी जातियां खुद आरक्षण के सवाल को कितना महत्वपूर्ण मानती हैं. यह सब तो आने वाले चुनाव का परिणाम ही स्पष्ट करेगा पर एक बात तो तय है कि कांग्रेस के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा की इस पहल ने भारतीय जनता पार्टी को भी अपनी आरक्षण नीति की समीक्षा करने के लिए मजबूर जरूर कर दिया है.

(लेखक असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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