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एलएसी पर भारत का राजनीतिक मकसद तो कुछ हद तक पूरा हुआ, अब उसे सीमा विवाद के अंतिम समाधान की कोशिश करनी चाहिए

भारत ने चीन के लिए गतिरोध तो पैदा कर दिया मगर उसने 1959 वाली अपनी दावा रेखा का जो पेंच डाल दिया है उसका भारत को निबटारा करना ही पड़ेगा.

पीएलए सैनिकों ने पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग त्सो क्षेत्र से वापसी शुरू कर दी है/ इंडियन आर्मी/फाइल फोटो

सैन्य सिद्धांतकार कार्ल वॉन क्लाउज़वित्ज़ की एक मशहूर उक्ति है— ‘युद्ध दरअसल राजनीति को आगे बढ़ाने का ही दूसरा तरीका है.’ यानी टकराव या युद्ध का मूल कारण वह राजनीतिक मकसद है जिससे रणनीतिक और संचालन स्तर के सैन्य लक्ष्य निर्धारित होते हैं. सामरिक स्तर की कार्रवाई कई सैन्य कार्रवाइयों/ लड़ाइयों पर आधारित होती है जिन्हें सैन्य लक्ष्य हासिल करने के लिए संचालन के स्तर पर तालमेल से चलाया जाता है. सैन्य सिद्धांत कहता है कि अंततः जो स्थिति हासिल करने की कोशिश की जाए वह राजनीतिक लक्ष्य द्वारा जरूर स्पष्ट हो.

कई तरह के कारणों और एक सक्रिय दुश्मन के चलते युद्ध के बारे कोई अंतिम सत्य नहीं हो सकता, इसलिए एक प्रासंगिक चीज है ‘कन्फ्लिक्ट टर्मिनेशन’ (टकराव का खात्मा) यानी घटते लाभ के कारण और अनुकूल शर्तों के तहत शांति के लिए टकराव खत्म करना. यह देशों के लिए बहुत मुश्किल फैसला होता है, खासकर तब जबकि राजनीतिक लक्ष्य या तो हासिल नहीं किया गया है या आंशिक रूप से ही हासिल किया गया है, क्योंकि इससे देश की प्रतिष्ठा, भौगोलिक अखंडता और घरेलू राजनीति पर प्रतिकूल असर पड़ता है.

पूर्वी लद्दाख में अभी जो कुछ हम देख रहे हैं वह ‘कन्फ्लिक्ट टर्मिनेशन’ ही है लेकिन राजनीतिक लक्ष्य अधूरा ही हासिल हुआ है. यह दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व के राजनीतिक कौशल का ही परिचय देता है. दुर्भाग्य से, प्राचीन सभ्यता वाले दोनों देशों में उग्र राष्ट्रवाद से प्रेरित राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व फिलहाल अपनी-अपनी सामरिक जीत का ढिंढोरा पीटने पर ज़ोर दे रहा है ताकि वह राजनीतिक लक्ष्य के मामले में किए गए समझौते की सफाई अपने-अपने घरेलू नागरिकों को दे सके. अब हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि हिमालय में सीमाओं पर स्थायी नहीं तो बेहतर अमन बहाली का जो ऐतिहासिक मौका छह दशक बाद मिला है उसे यह नेतृत्व गंवा न दे.

मैं यहां सेनाओं की वापसी, दोनों देशों के अपने-अपने राजनीतिक लक्ष्यों, टकराव के खात्मे के लिए उनमें आए बदलाव, और भविष्य में बेहतर अमन बहाली की दिशा में हो रही प्रगति का विश्लेषण करूंगा.


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सेनाओं की वापसी में प्रगति

भारत और चीन पूर्वी लद्दाख में 11 महीने से जारी तनातनी को खत्म करने के कगार पर हैं. पैंगोंग सो के उत्तरी और दक्षिणी तटों से वापसी 19 फरवरी को पूरी कर ली गई. अब वहां फिंगर 4 और 8 के बीच ‘बफर ज़ोन’ बना दिया गया है, ऐसा क्षेत्र जहां न तो कोई फौजी गश्त होगी, न कोई तैनाती होगी और न इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की कोई गतिविधि होगी.

कोर कमांडर स्तर की 10वीं वार्ता 20 फरवरी को मोल्दो में 16 घंटे चली. संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति से संकेत मिलते हैं कि इस तरह की वापसी देप्सांग के मैदानी इलाके, हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा और डेमचोक से भी कुछ सप्ताह में हो जाएगी, जब इसके तौर-तरीके पर बातचीत पूरी हो जाएगी. इसके बाद युद्ध क्षेत्र से गतिरोध को खत्म किया जाएगा. लेकिन मैं सावधान कर दूं कि कैलाश पर्वत क्षेत्र से हटने के कारण बाकी क्षेत्रों से सेना की वापसी की वार्ताओं में दवाब बनाने की सहमती हो गई है.

हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) और 1959 वाली चीनी दावा रेखा एक ही है, और चीनी घुसपैठ इसलिए हुई थी क्योंकि हम कुग्रांग नदी और चांगलुंग नाला के साथ सड़क बना रहे थे जिसके चलते गलवान नदी के ऊपरी क्षेत्र के लिए रास्ता खुल रहा था. चीन इसे अपनी लिए बहुत बड़ा खतरा मानता है और चाहता है कि वहां ‘बफर ज़ोन’ बने या इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर रोक लगे ताकि गलवान नदी के ऊपरी क्षेत्र के लिए खतरा न पैदा हो. भारत के लिए इस पर राजी होना मुश्किल होगा.

देप्सांग के मैदानी इलाके, और डेमचोक पर वार्ताएं और भी बड़ी समस्या साबित होने वाली हैं. देप्सांग के मैदानी इलाके का आधा उत्तरी भाग में—काराकोरम से लेकर चिप चाप नदी के दक्षिण में 6 किमी तक— एलएसी और 1959 वाली चीनी दावा रेखा में कोई फर्क नहीं है. आधे दक्षिणी हिस्से में 1959 वाली दावा रेखा बॉटल नेक/वाइ जंक्सन तक है, और एलएसी पूरब में 18-23 किमी पर पैट्रोलिंग पॉइंट 10, 11, 12,13 के साथ-साथ है. बॉटल नेक/वाइ जंक्सन के पूरब में चीनियों ने हमें मई 2020 से गश्त लगाने से रोक दिया है. ‘बफर ज़ोन’ में करीब 600-800 वर्गकिमी क्षेत्र आ जाएगा. भारत के लिए, यह क्षेत्र पूरे दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) सेक्टर की सुरक्षा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि बर्त्से में ‘चोक पॉइंट’ (दमघोंटू स्थल) बॉटल नेक/वाइ जंक्सन से केवल 7 किमी दूर है. चीन देप्सांग को अकसाई चीन में भारतीय आक्रमण के लिए अड्डा मानता है, इसलिए वह उसकी सुरक्षा के लिए बेहद अहम है.

डेमचोक में घुसपैठ का क्षेत्र इसके दक्षिण में स्थित चार्डिंग-निंग्लुंग नाला है. वैसे, 1959 वाली दावा रेखा फुक्चे तक है, जो सिंधु घाटी में डेमचोक के करीब 30 किमी पश्चिम में है. चीन को लगता है कि डेमचोक से नगारी को खतरा है, जो एलएसी से 60 किमी पूरब में स्थित है और जहां से होकर तिब्बत-झिंजियांग हाइवे गुजरता है.

चीन ने 1962 में डेमचोक के उत्तर में स्थित पहाड़ियों पर कब्जा कर लिया था. डेमचोक के उत्तर और दक्षिण के पहाड़ों पर कब्जा रखकर चीन भारतीय आक्रमण को नाकाम कर सकता है. मेरे ख्याल से, चूंकि डेमचोक, फुक्चे और कोयुल घाटियों में आबादी की बसाहट है इसलिए चीन इन इलाकों में विवाद नहीं करना चाहेगा. वह डेमचोक के दक्षिण में ‘बफर ज़ोन’ बनाने के लिए राजी हो सकता है सिंधु घाटी में 1959 वाली दावा रेखा पर अंतिम फैसले के लिए असहमत होने पर सहमत हो सकता है.

आगे की वार्ताओं में चीन अगर सख्त रुख अपनाते हुए बाकी क्षेत्रों से सेना की वापसी पर कोई सहमति से इनकार कर देता है, तो ‘कन्फ़्लिक्ट टर्मिनेशन’ की प्रक्रिया तुरंत रुक जाएगी.

चीन ने टकराव क्यों खत्म करना चाहा

मौजूदा संकट की जड़ एलएसी— भारत की धारणा के मुताबिक और जैसी कि वह 1993 के समझौते के समय थी— और 1959 वाली चीनी दावा रेखा के, जिसके लिए एलएसी शब्द चुना गया था, बीच का क्षेत्र है. भारत ने कभी इस दावा रेखा को मान्य नहीं किया. इस रेखा के छोरों के नियामकों का खुलासा 1960 में दोनों देशों के अधिकारियों की वार्ता में हुआ था. यह रेखा भूभाग के आश्चर्यजनक विश्लेषण की प्रतीक है क्योंकि यह अक्साई चीन और 1962 की लड़ाई में चीन द्वारा कब्जाए दूसरे इलाकों के लिए खतरे की संभावना को खत्म करती है. भारत ने 1959 वाली दावा रेखा के आगे के इलाकों में धीरे-धीरे गश्त शुरू कर दी थी, क्योंकि उसने 1986-87 में सुम्दोरोंग चू की घटना के बाद आगे बढ़ने की नीति अपना ली थी. जब तक भारत ने इन इलाकों में सेना नहीं तैनात नहीं की या इन्फ्रास्ट्राक्स्चर का विकास नहीं शुरू किया था तब तक शांति रही. इन इलाकों मे बारे में अलग-अलग धारणाएं थीं और इनके बारे में चर्चा भारत-चीन सीमा मसले पर सलाह और समन्वय के लिए गठित संयुक्त कार्य व्यवस्था के तहत संयुक्त सचिव स्तर की बैठक में विशेष प्रतिनिधियों ने की थी. पूर्वी लद्दाख में ऐसे 8-10 इलाके हैं, जिनमें सबसे बड़ा देप्सांग के आधे दक्षिणी भाग में पैंगोंग तथा डेमचोक के उत्तर में फिंगर 4 और 8 के बीच है.

लेकिन भारत ने जब इन क्षेत्रों के इर्दगिर्द सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास शुरू किया और अपना नियंत्रण पर ज़ोर देना शुरू किया तो चीन ने इसे भारत की नयी ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ मानते हुए इसे अपने लिए खतरे के रूप में देखा. चीन की चिंता के पहले संकेत 2013 में देप्सांग में उभरे. इसके बाद से झड़पें बढ़ गईं और इन इलाकों में दोनों सेनाओं में हाथापाई तक हुई. भाजपा सरकार ने 2014 से ही सीमा पर और खासकर इन इलाकों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर ज़ोर देना शुरू कर दिया. इसके साथ ही राजनीतिक दावे उसकी इस पुरानी मंशा को उजागर करने लगे कि वह अपनी खोयी जमीन वापस हासिल करना चाहता है.डोकलम संकट ने चीन को और सतर्क कर दिया. यह पूर्वी लद्दाख में मौजूदा संकट की शुरुआत की मुख्य वजह बनी.

चीन का दीर्घकालिक लक्ष्य तो भारत की अंतरराष्ट्रीय/क्षेत्रीय हैसियत को कमजोर करके उस पर अपना दबदबा कायम करना रहा है, लेकिन फौरी राजनीतिक मकसद उन इलाकों में 1959 वाली दावा रेखा को मजबूत करना था जिनके बारे में दोनों देशों की धारणाओं में अंतर है. ऐसा वह अपनी सामरिक बढ़त हासिल करने और सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को रोकने के लिए करना चाहता है. सैन्य दृष्टि से, उसकी रणनीति सामरिक महत्व के इन इलाकों को पहले ही सुरक्षित करना और इसके बाद टकराव बढ़ाने के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराना थी. मुझे आश्चर्य भी है और निराशा भी कि हम उसकी रणनीति का राजनीतिक और सैन्य स्तरों पर पहले अंदाजा नहीं लगा पाए. राजनीतिक और सामरिक, दोनों महकमे ‘ऑन रेकॉर्ड’ कबूल कर चुके हैं कि उन्हें अभी भी समझ में नहीं आ रहा कि चीन ने यह संकट आखिर क्यों पैदा किया.

भारत को सामरिक स्तर पर हैरत में डालते हुए चीन ने बिना एक गोली चलाए इन इलाकों को कब्जे में कर लिया. लेकिन भारत ने भी इसके प्रवेश को इसे रोकने ले लिए जिस तेजी से जोरदार जवाब दिया उसने चीन के लिए गतिरोध पैदा कर दिया.

गलवान घाटी की घटना15-16 जून 2020 को हुई, भारत ने कैलाश पर्वत की ऊंचाइयों पर अपना कब्जा स्थापित किया. पहाड़ी इलाके में अपना प्रमुख लक्ष्य हासिल करने के बावजूद चीन भारत पर अपनी मर्जी नहीं थोप सका और न चाहते हुए भी सीमित लड़ाई किए बिना अपनी जीत की घोषणा नहीं कर सका. बेहद दुष्कर क्षेत्र और जलवायु में लंबे टकराव के फायदे घटते ही जा रहे थे. इसे ध्यान में रखकर उसने वार्ताओं के जरिए जितनी ज्यादा अनुकूल शर्तों पर हो सकता था, उसने टकराव को खत्म करने का विकल्प चुना.

आखिर चीन को क्या हासिल हुआ? इसमें कोई संदेह नहीं है कि डेमचोक को छोड़ सभी क्षेत्रों में, बेशक ‘बफर ज़ोन’ के साथ ही सही, उसने 1959 वाली अपनी दावा रेखा को वास्तविक रूप से सुरक्षित कर लिया है. और अनुभव तो यही कहता है कि बफर ज़ोन ताकतवर पक्ष के फायदे की ही चीज होती है. भारत की सेना को गश्त लगाने, तैनाती करने और इन्फ्रास्ट्राक्चर का विकास करने से रोक दिया गया है. और चीन अपनी श्रेष्ठतर सैन्य शक्ति और बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर के बूते हमेशा सामरिक बढ़त ले सकता है. मुक़ाबले में कमजोर होने के कारण भारत को ऐसी कोई पहल करने से पहले दो बार सोचना पड़ेगा.


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भारत टकराव खत्म करने को राजी क्यों हुआ?

भारत ने पहली गलती तो यह की कि संवेदनशील क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्राक्चर का विकास शुरू करने से पहले वहां अपनी सेना नहीं तैनात की और चीन को सस्ते में फौजी पहल करने का मौका दे दिया. दूसरे, उसने राजनीतिक स्तर पर धमकियां देने की गलती की जबकि उन पर अमल करने की सैन्य क्षमता उसके पास नहीं थी. चीन के लिए इसे पचाना मुश्किल था, आखिर वह खुद भी उग्र राष्ट्रवाद की टेक लेकर चलता है. तीसरे, चीन के इरादों को भांपने में भारत रणनीतिक और सामरिक तौर पर का विफल रहा.

भारत की शुरुआती कोशिश यह रही कि खंडन और अंधेरे में तीर चलाकर समस्या से पल्ला झाड़ लिया जाए. पिछले अनुभव पर भरोसा करते हुए वह यह उम्मीद लगाए रहा कि चीन अंततः अपनी सेना वापस कर लेगा. लेकिन जब चीन के इरादे साफ दिखने लगे तो भारत को एहसास हुआ कि वह चीन से सीधे भिड़ने की सैन्य क्षमता नहीं रखता, इसलिए उसने सीमित लड़ाई का जोखिम उठाया. इसमें झटका राजनीतिक रूप से कयामत ढाने वाला हो सकता था. इसलिए सैन्य स्तर पर भारत ने चीन को आगे बढ़ने से रोकने के लिए अपनी सेना का जबरदस्त जमावड़ा कर दिया.

भारत का प्रकट राजनीतिक लक्ष्य अप्रैल 2020 वाली स्थिति को बहाल करना था. हालांकि उसने यह कभी जाहिर नहीं किया, लेकिन वह एलएसी को स्पष्ट करने के लिए शायद चीन पर दबाव भी डाल रहा था. भारत में सीमित लड़ाई करके यथास्थिति बहाल करवाने की सैन्य क्षमता नहीं थी, और इस लड़ाई के कारण सीधी फौजी कार्रवाई और तेज हो सकती थी. इसलिए उसने सेना के भारी जमावड़े के साथ राजनयिक वार्ताओं के जरिए दबाव बनाने की रणनीति अपनाने का फैसला किया.

चीन पर दबाव बनाने के लिए भारत ने 29-30 अगस्त 2020 को कैलाश पर्वत की ऊंचाइयों पर कब्जा जमा लेने की अपनी शानदार कार्रवाई पर भरोसा किया. 1959 वाली चीनी दावा रेखा, एलएसी और कैलाश क्षेत्र में एक हो गए हैं. सो, चीनी सेना भी वहां पहुंच गई, जहां से पूरब की ओर ढलवां पठार शुरू होता है. इस तरह रेचिन ला, रेजांग ला और मुखपरी में दोनों सेनाएं एकदम आमने-सामने आ गईं और सीमित लड़ाई का खतरा बढ़ गया.

लेकिन दोनों पक्ष लड़ाई नहीं चाहता था. सुपर पावर चीन अपनी सेना पीएलए के लिए कोई झटका मोल नहीं लेना चाहता था, क्योंकि अभी तक उसे कहीं आजमाया नहीं गया था. भारत सीमित लड़ाई जीतने की ताकत नहीं रखता था. टकराव बढ़ने से घाटा बढ़ने का ही खतरा था इसलिए चीन ने ‘कन्फ़्लिक्ट टर्मिनेशन’ का रास्ता चुना, और भारत ने भी बुद्धिमानी दिखाते हुए यही किया.

मेरा आकलन यह है कि भारत ने अपना राजनीतिक लक्ष्य आंशिक रूप से हासिल कर लिया है. उसने चीन को टकराव खत्म करने के लिए मजबूर कर दिया और यथास्थिति बहाल कर ली गई है जिसमें ज़्यादातर बफर ज़ोन उन इलाकों में हैं जिन्हें एलएसी के पास हम अपना इलाका मानते हैं. इससे भी बढ़कर, भारत ने दबाव के आगे न झुकते हुए चीन को गतिरोध पर मजबूर करके दुनिया में अपनी प्रतिष्ठा बनाई है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिहाज से इसे श्रेष्ठतर ताकत की हार कहा जा सकता है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि सैन्य लिहाज से बफर ज़ोन मजबूत देश के लिए फायदे की ही चीज है.

अब नये रणनीतिक अवसर

पहले मैं जो चेतावनी दे चुका हूं उसे दोहराना चाहूंगा. कैलाश क्षेत्र से हटने के बाद भारत ने देप्सांग के मैदानी इलाके, हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा और डेमचोक क्षेत्र में सेनाओं की वापसी के मामले में अपना सैन्य दांव कमजोर किया है. टकराव खत्म करने के मामले में अब उसे चीन पर किए गए भरोसे के आसरे ही रहना होगा. उम्मीद की बात यह है कि अगर सेनाओं की वापसी अपेक्षित रूप में होती है तो कहा जा सकता है कि पूर्वी लद्दाख में उभरे संकट ने भारत और चीन को सीमा पर शांति कायम करने और सीमा विवाद का अंतिम समाधान करने के लिए विवादित सीमा रेखा के स्पष्ट निर्धारण का अवसर उपलब्ध करा दिया है.

एलएसी और 1959 वाली चीनी दावा रेखा उन क्षेत्रों को छोडकर बाकी सभी क्षेत्रों में एक ही है, जहां उनको लेकर दोनों देशों की धारणाएं अलग-अलग हैं. ऐसे ज़्यादातर बफर जोन को सेना वापसी को लेकर दोनों सेनाओं के लिखित समझौते में चिह्नित कर दिया गया है या कर दिया जाएगा. विशेष प्रतिनिधियों और राजनयिकों को अब शांति कायम करने के लिए विवादित सीमा रेखा के औपचारिक निर्धारण की वार्ता शुरू करनी ही चाहिए. इस तरह की कोशिश सेंट्रल और उत्तर-पूर्व सेक्टरों के मामले में शुरू की जा सकती है.

प्राचीन सभ्यता वाले दोनों देशों को पिछले 11 महीने से युद्ध के कगार पर खड़े रहने का जो अनुभव हासिल हुआ है उसने उन्हें संयत कर दिया है. वे ताकत के इस्तेमाल की सीमाओं को अच्छी तरह समझते हैं की अब नक्शे दोबारा नहीं खींचे जा सकता. इसलिए विवेकसम्मत यही होगा कि पूरे सीमा विवाद का अंतिम समाधान करने पर विचार किया जाए.
यह मौका हमने 1959 में गवां दिया था, अब उसे बिलकुल नहीं गवांना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)


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