होम मत-विमत सामाजिक भेदभाव के शिकार बन गए भारत के पहले राष्ट्रवादी इतिहासकार

सामाजिक भेदभाव के शिकार बन गए भारत के पहले राष्ट्रवादी इतिहासकार

ज्ञान की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त काशी प्रसाद जायसवाल क्यों फ़ुट नोट्स बन कर रह गए? उनका कृतित्व क्यों इतिहास के पन्नों में दबा दिया गया?

काशी प्रसाद जायसवाल की फोटो । फोटो साभार : आकर पब्लिकेशन

बीसवीं सदी में जिन भारतीय विद्वानों ने विमर्श की दिशा को प्रभावित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, उनमें काशी प्रसाद जायसवाल (1881-1937) अग्रणी हैं. उनके जीवन के कई आयाम हैं और कई क्षेत्रों में उनका असर रहा है. जायसवाल पेशे से सफल वकील थे, लेकिन दुनिया उन्हें ‘राष्ट्रवादी’ इतिहासकार के रूप में जानती है. उनकी लेखनी की व्यापकता को देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि उनका कौन सा रूप प्रमुख है – ‘राष्ट्रवादी’ इतिहासकार, साहित्यकार, पुरातत्वविद, भाषाविद, वकील या पत्रकार.

उनके व्यक्तित्व की व्याख्या उनके संबंधियों, मित्रों, विरोधियों और विद्वानों ने तरह-तरह से की है – ‘घमंडाचार्य’ और ‘बैरिस्टर साहब’ (महावीरप्रसाद द्विवेदी), ‘कोटाधीश’ (रामचंद्र शुक्ल), ‘सोशल रिफ़ॉर्मर’ (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद), ‘डेंजरस रेवोलूशनरी’ और तत्कालीन भारत का सबसे ‘क्लेवरेस्ट इंडियन’ (अंग्रेज शासक), ‘जायसवाल द इंटरनेशनल’ (पी. सी. मानुक) ‘विद्यामाहोदधि’ (मोहनलाल महतो ‘वियोगी’) और ‘पुण्यश्लोक’ (रामधारी सिंह ‘दिनकर’). इसके अलावा औपनिवेशिक दस्तावेज़ों में उनका नाम ‘Politico-Criminal: Who’s Who’ में भी दर्ज है.

कभी-कभी विवादास्पद और व्यंग्यात्मक सामग्री लिखते समय जायसवाल ‘महाब्राह्मण’ और ‘बाबा अग्निगिरी’ का छद्म नाम भी प्रयोग करते थे. इतिहासकारों ने जायसवाल पर ‘राष्ट्रवादी इतिहासकार’ का लेबल चस्पा‍ किया है. बिहार सरकार ने 1950 में उनके नाम पर काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान की स्थापना की. बिहार सरकार ने 1981 में जायसवाल की जन्म शती कार्यक्रम का आयोजन करते हुए उनके सम्मान में केपी जायसवाल कमेमोरेशन वॉल्यूम प्रकाशित किया और इसी अवसर पर भारत सरकार के तत्कालीन उपराष्ट्रपति हिदायतुल्लाह ने जायसवाल के नाम पर डाक टिकट जारी किया.

जायसवाल की आरंभिक शिक्षा मिर्ज़ापुर, फिर बनारस और इंग्लैंड में (1906-10) हुई. इंग्लैंड में अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने तीन डिग्रियां प्राप्त कीं – बैरिस्टर, इतिहास (एम.ए.) और चीनी भाषा की डिग्री. जायसवाल पहले भारतीय थे, जिन्हें चीनी भाषा सीखने के 1,500 रुपए की डेविस स्कालरशिप मिली. जायसवाल की सफलता के संबंध में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती में कई संपादकीय टिप्पणियां और लेख लिखे. इंग्लैंड में जायसवाल का संपर्क वी.डी. सावरकर, लाल हरदयाल जैसे ‘क्रांतिकारियों’ से हो गया था, जिसकी वजह से वे औपनिवेशिक पुलिस की नज़र में चढ़े रहे.


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गिरफ़्तारी की आशंका को देखते हुए, जायसवाल जल-थल-रेल मार्ग से यात्रा करते हुए 1910 में भारत लौटे और यात्रा-वृतांत तथा संस्मरण सरस्वती और मॉडर्न रिव्यू में प्रकाशित किया. वे पहले कलकत्ता में बसे और फिर 1912 में बिहार बनने के बाद 1914 में हमेशा के लिए पटना प्रवास कर गए. उन्होंने पटना उच्च न्यायालय में आजीवन वकालत की. वे इनकम-टैक्स के प्रसिद्ध वकील माने जाते थे. दरभंगा और हथुआ महाराज जैसे लोग उनके मुवक्किल थे और बड़े-बड़े मुकदमों में जायसवाल प्रिवी-कौंसिल में बहस करने इंग्लैंड भी जाया करते थे.

विद्वता से छोड़ी समय पर छाप

काशी प्रसाद जायसवाल कई भाषाओं – संस्कृत, हिंदी, इंग्लिश, चीनी, फ्रेंच, जर्मन और बांग्ला जानते थे. लेकिन अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार वे हिंदी और अंग्रेजी में ही लिखते थे. अंग्रेजी बाह्य जगत के पाठकों और प्रोफेशनल इतिहासकारों के लिए तथा हिंदी, स्थानीय पाठक और साहित्यकारों के लिए. जायसवाल ने लेखन से लेकर संस्थाओं के निर्माण में कई कीर्तिमान स्थापित किए. दर्ज़न भर शोध-पुस्तकें लिखीं और सम्पादित कीं, जिसमें हिन्दू पॉलिटी, मनु एंड याज्ञवलक्य, हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया (150 A.D.–350 A.D.) बहुचर्चित रचनाएं हैं.

उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य तथा प्राचीन भारत के इतिहास और संस्कृति पर तकरीबन दो सौ मौलिक लेख लिखे, जो प्रदीप, सरस्वती, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, जर्नल ऑफ़ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, इंडियन एंटीक्वेरी, द मॉडर्न रिव्यू, एपिग्रफिया इंडिका, जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, एनाल्स ऑफ़ भंडारकर (ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट), जर्नल ऑफ़ द इंडियन सोसाइटी ऑफ़ ओरिएण्टल आर्ट, द जैन एंटीक्वेरी इत्यादि में प्रकाशित हैं.

उन्होंने मिर्ज़ापुर से प्रकाशित कलवार गज़ट (मासिक, 1906) और पटना से प्रकाशित पाटलिपुत्र (1914-15) पत्रिका का संपादन भी किया और जर्नल ऑफ़ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी के आजीवन संपादक भी रहे. इसके अलावा अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए जिनमें टैगोर लेक्चर सीरीज (कलकत्ता, 1919), ओरिएण्टल कॉन्फ्रेंस (पटना/बड़ोदा,1930/1933), रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन (1936, पहले भारतीय, जिन्हें यह अवसर मिला), अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन, इंदौर (1935) इत्यादि महत्वपूर्ण हैं. नागरी प्रचारिणी सभा, बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, पटना म्यूजियम और पटना विश्वविद्यालय जैसे महत्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना से लेकर संचालन तक में जायसवाल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.


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काशी प्रसाद जायसवाल का बौद्धिक प्रभाव

पटना स्थित जायसवाल का घर अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों का अड्डा हुआ करता था और शोध के क्षेत्र में उभरती नई प्रतिभाओं को वे वित्तीय सहित हर तरह की मदद किया करते थे, जिसका ज़िक्र राहुल सांकृत्यायन और दिनकर ने किया है. सांकृत्यायन की तिब्बत यात्रा के खर्च का बंदोबस्त जायसवाल ने ही किया था. जायसवाल की मृत्यु पर सांकृत्यायन ने लिखा, ‘हा मित्र! हा बंधु! हा गुरो! अब तुम मना करने वाले नहीं हो, इसलिए हमें ऐसा संबोधन करने से कौन रोक सकता है? हो सकता है, तुम कहते – हमने भी तो आपसे सीखा है, किन्तु तुम नहीं जानते (कि) मैंने कितना तुमसे सीखा है. इतनी जल्दी प्रयाण! अभी तो अवसर आया था, अभी तो तुम्हारी सेवाओं की इस देश को बहुत जरूरत थी. आह! सभी आशाएं खाक में मिल गईं… तुम्हारा वह सांगोपांग भारत का इतिहास तैयार करने और साम्यवाद के लिए मैदान में कूदने का ख्याल!!! हा, वंचित श्रमिक वर्ग, सहृदय मानव! निर्भीक, अप्रतिम मनीषी, दुनिया ने तुम्हारी कदर न की!!!

राहुल के इन वाक्यों पर टिप्पणी करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है, ‘समूचे राहुल वाङ्मय में उनके ऐसे भावुक उद्गार और किसी के प्रति न मिलेंगे. राहुल की यह भावुकता सिर्फ़ जायसवाल के लिए है. यह मार्क्स-एंगेल्स की मित्रता की कोटि की मित्रता है. इसे पढ़कर तथागत के वे शब्द याद आते हैं जो उन्होंने मौदगल्यायन की मृत्यु पर कहे थे – भिक्षुओं, मुझे आज यह परिषद् शून्य-सी लग रही है.’

बौद्धिक जगत में जायसवाल की अनदेखी

बहरहाल, जायसवाल की मृत्यु को 81 वर्ष हो चुके हैं. जायसवाल के शिष्यों, मित्रों की न केवल संकलित रचनाएं प्रकाशित हुईं, बल्कि उनपर न जाने कितने शोध-प्रबंध और किताबें और लेख लिखे गए. अनगिनत सभाएं, संगोष्ठी, कार्यक्रम बदस्तूर जारी हैं. जायसवाल युग-निर्माताओं में से एक थे और अपने कृतित्व के आधार पर आज भी बेजोड़ हैं. इतिहास उनके कार्यों की समीक्षा और पुनर्पाठ तो करेगा ही, लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ज्ञान की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जायसवाल का क्या हुआ? क्या वे फ़ुट नोट्स और इतिहास के पन्नों में दबा दिए गए? क्या इतिहास और साहित्य के मठाधीशों ने जायसवाल के मामले में कोई ‘सामाजिक-लीला’ की है? यह सवाल तो बनता ही है.

जायसवाल का इतिहास लेखन भारतीय इतिहास की दक्षिणपंथी दृष्टि के आस-पास रखा जा सकता है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना से पहले ही जायसवाल प्राचीन भारत की ‘हिंदूवादी’ व्याख्या कर रहे थे. उनकी बहुचर्चित हिन्दू पॉलिटी राष्ट्रवादियों के आन्दोलन के लिए गीता समझी जाती थी. सनद रहे! अस्मिता के नाम पर सरकार तो बनाई जा सकती है, राष्ट्रवाद के घनघोर नारे दिए जा सकते हैं. लेकिन वैचारिक वर्चस्व के सभी संस्थान अभी भी ‘जनेऊ राष्ट्रवाद’ के कब्ज़े में है, जिसमें काशी प्रसाद जायसवाल के लिए भी कोई स्थान नहीं है! हालांकि, जायसवाल की विद्वता से प्रभावित होकर अंग्रेजी हुकूमत के समय ही पटना विश्वविद्यालय ने 1936 में उन्हें पीएचडी की मानक उपाधि प्रदान की थी.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्होंने काशी प्रसाद जायसवाल पर शोध किया है.)

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