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भारत की तरक्की का ज़रूरी हिस्सा बनने के लिए भारतीय मुसलमानों को अपनी पीड़ित मानसिकता को बदलना होगा

भारतीय मुसलमान पहले से बेहतर स्थिति में हैं, तो फिर उनमें ये मायूसी क्यों है, कि वो अब उतने ताक़तवर नहीं रहे, जितने काल्पनिक अतीत में हुआ करते थे?

प्रतीकात्मक तस्वीर |

5 आगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राम मंदिर भूमि पूजन के बाद से भारतीय मुसलमान मायूसी का शिकार हैं लेकिन ये उदासी कोई नई चीज़ नहीं है- वो बहुत लंबे समय से ऐसे अवसाद का शिकार रहे हैं. अब वो उस वास्तविकता से समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं जिसे क़ौम के बहुत से लोग, भारत में अपनी बदली हुई हैसियत कहते हैं.

पिछले 300 सालों से उप-महाद्वीप के आम मुसलमान, एक तबाही से दूसरी तबाही के बीच लड़खड़ाते रहे हैं. इतना ज़्यादा कि उनकी उदासी एक सांस्कृतिक अलंकार की शैली में ढल गई और उत्पीड़न उनका पसंदीदा नशा बन गया. होना तो ये चाहिए था कि भारत की आज़ादी से उनके अंदर एक नई ताक़त और जोश भर जाना चाहिए था जैसा दूसरे हर भारतीय के साथ हुआ था लेकिन बंटवारे के ख़ुद के दिए घाव ने बहुत सालों तक उन्हें अचंभे में डाले रखा.

एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था ने सामान्य स्थिति तक लंगड़ाकर आने में उनकी मदद की लेकिन जल्द ही वो अपनी उसी मानसिकता में चले गए जिसने पहले भी उन्हें दुख दिया था. पहचान एक नया नारा था. पहचानवाद व्यक्ति के ऊपर समुदाय को वरीयता देता है, लोकतंत्र के साथ टकराता है और अंत में अल्पसंख्यकों को नुक़सान पहुंचाता है.

ये अपराध व्यवसन तो होना ही था. ऊपरी तौर से, अलगाववाद एक सियासी सोच थी. असलियत में ये इस्लाम की एक ख़ास व्याख्या से विकसित हुई और वो थी शक्ति धर्मशास्त्र. जैसे-जैसे ज़्यादा से ज़्यादा लोग आधुनिक राजनीति के दायरे में आए, धर्म की राजनीति जिसे मुख्य धार्मिक प्रवचनों में शामिल किया जा रहा था, फैलती चली गई. लेकिन क्या मुसलमान ऐसी विशालकाय इकाई हैं कि इस कहानी को उनकी सामान्य चेतना में रिसकर आना ही था?


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खुद को पहुंचाया नुकसान

भारत का औपनिवेशिक निर्माण हालांकि पूरी तरह निराधार नहीं है लेकिन इतिहासकार जेम्स मिल का प्राचीन और मध्य भारत को हिंदू और मुस्लिम काल में बांटना लेकिन बाद के समय को ईसाई नहीं बल्कि ब्रिटिश कहने में समस्या है, क्योंकि धर्म के नाम पर पुकारे गए इन ज़मानों में, सभी हिंदुओं और मुसलमानों का ताल्लुक़ शासक वर्ग से नहीं था. एक प्रमुख मध्यकालीन इतिहासकार ज़िया बर्नी के मुताबिक़, शासक वर्ग के अंदर हर भारतीय चीज़ को लेकर, इतनी गहरी नफरत थी कि इस्लाम धर्म अपनाने वाले भारतीय लोगों को बहुत गिरी हुई निगाह से देखा जाता था और उन्हें सत्ता के दायरे से बाहर रखा जाता था.

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कई सदियों बाद, ये रवैया अभी भी नज़र आता है कि कैसे वो मुसलमान जो अपने विदेशी वंश पर गर्व महसूस करते हैं, आज भी अपने देसी सह-धर्मियों को गिरी हुई निगाह से देखते हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि उच्च जातियों के अधिकांश मुसलमान विदेशी मूल के हैं. अशरफ-अजलफ का विरोधाभास जिसमें प्रणाली और विश्लेषण संबंधी बहुत सी समस्याएं व्याप्त हैं, मुख्य रूप से भारतीय मुसलमानों के बीच बहिर्जात-स्वदेशी बाइनरी का संकेतक है.

चूंकि भारतीय मुसलमानों के पास, मुसलमान के नाते, कभी ज़्यादा ताक़त थी ही नहीं, इसलिए ये कहना ग़लत होगा कि उन्होंने कोई ताक़त गंवा दी. शासक वर्ग में विदेशियों की प्रधानता थी. वो तुर्की, फारसी, अफ़ग़ानी और अरब थे जिनका मज़हब इस्लाम था. मध्य से आधुनिक काल और सामंतवाद से पूंजीवाद के सफ़र में, उनमें से अधिकांश हारते चले गए. फिर भी, नई व्यवस्था में उन्हें एक आनुपातिक हिस्सा मिल सकता था लेकिन उन्होंने देश को बांटने का आसान विकल्प चुनना पसंद किया. भारत के शेष हिस्से में रह गए, बाक़ी बचे मुसलमान, जिन्हें एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष संविधान का आसरा मिला, के पास मौक़ा था अपनी एक पहचान बनाने का.

अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया है, तो थोड़े आत्ममंथन की ज़रूरत है. उन्हें ख़ुद से पूछना चाहिए, कि अपने हमवतनों की तरह, क्या उन्होंने अपने यहां सामाजिक-आर्थिक सुधार किए हैं और धार्मिक मदरसों की जगह, क्या उन्होंने देश में आधुनिक शिक्षा के संस्थान फैलाए हैं. अगर इसका जवाब न में है तो उन्हें बहुत कुछ करना है.

ये कहने के बाद, चलिए देखते हैं कि अतीत के मुक़ाबले, भारतीय मुसलमान आज बेहतर स्थिति में हैं या बदतर.

आज़ादी के बाद भारतीय मुसलमान

आज वो संख्या में पहले से कहीं ज़्यादा हैं. मस्जिदों, मदरसों और मौलवियों की तादात भी पहले से कहीं ज़्यादा है और पोशाक व दिखावे में धार्मिक प्रतीकवाद का मुज़ाहिरा भी पहले से कहीं ज़्यादा है. सच्चाई तो ये है कि सार्वजनिक क्षेत्र में इस्लामिक धार्मिकता और गहन हो गई है.

जहां तक दुनियावी मामलों का सवाल है, आज का मुसलमान बेहतर खा रहा है, बेहतर पहन रहा है, बेहतर पढ़ रहा है, और इतिहास में सबसे दौलतमंद है. आज एक आम मुसलमान जो खाता और पहनता है, अतीत में उसके पुरखे कल्पना भी नहीं कर सकते थे. साथ ही एक स्थिर, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक हुकूमत ने, जो अतीत की अशांति और आपसी संघर्षों से मुक्त है, हर किसी के जीवन को सुरक्षित किया है जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं.

अब बात सियासत की, चूंकि धर्म और राजनीति के इंटरफेस में बहुत कुछ घटित हो चुका है, आज एक आम मुसलमान जितना शक्तिशाली है, उतना कभी नहीं रहा. वो एक बराबर का नागरिक है, उसे पूरा मताधिकार है, वो वोट दे सकता है, और पंचायत से लेकर संसद तक चुना जाता है. इतिहास में कभी भी और मुस्लिम मुल्क में तो विरले ही, उसे ऐसे अधिकार नसीब नहीं रहे हैं.

मुसलमानों की ज़िंदगी और इज़्ज़त में आई बेहतरी, आधुनिकता का एक वरदान है. हर कोई, चाहे वो किसी भी धर्म का हो, इसका लाभ ले रहा है. लेकिन, ये मुमकिन न होता अगर संविधान मुसलमानों को समानता का सिस्टम न देता. और संविधान कैसे काम करता है, ये काफी हद तक भारत के सांस्कृतिक चरित्र से तय होता है, जो धर्म के आधार पर लोगों के साथ, वैमनस्य की इजाज़त नहीं देता.

धार्मिक वर्चस्व का नुक़सान

हालांकि भारतीय मुसलमान पहले से बेहतर स्थिति में हैं, फिर भी उनमें ये मायूसी क्यों है कि वो अब उतने ताक़तवर नहीं रहे, जितने काल्पनिक अतीत में हुआ करते थे? उन्होंने कुछ खोया नहीं है, न ही इस्लाम ने कुछ खोया है लेकिन सर्वोच्चता के धर्मशास्त्र को बेअसर कर दिया गया है. दूसरे लोग उनके बराबर हो गए, जिसे सर्वोच्चता के विचारों में डूबे धर्मशास्त्री, बर्दाश्त नहीं कर सके.

नुक़सान का ये अहसास एक कालग्रस्त धर्मशात्र से पैदा होता है जिसके पास वो वैचारिक यंत्र नहीं हैं कि वो दारुल-उलूम और दारुल-हर्ब से आगे की दुनिया को समझ सके- यानी वो ज़मीन जो जीती जा चुकी है और वो जो जीतनी बाक़ी हैं. इस कहानी में, धर्म में आस्था और रस्मो-रिवाज का पूरा करना काफी नहीं है, जब तक आस्तिक का सियासी ताक़त पर पूरा क़ब्ज़ा न हो जाए. शायर अल्लामा इक़बाल ने कहा था, ‘मुल्ला को जो है हिंद में सजदे की इजाज़त, नादां ये समझता है कि इस्लाम है आज़ाद’. पता नहीं इक़बाल अस्ल में क्या चाहते थे.

ये सही है कि इस्लाम अब राजनीतिक रूप से एक प्रमुख धर्म नहीं रह गया है लेकिन कोई दूसरा धर्म भी ऐसा नहीं है, जिसमें हिंदू धर्म भी शामिल है, जो धर्मशास्त्रीय हिसाब से खुद को, भारतीय राजनीति के निर्माता, और मध्यस्थ के तौर पर पेश नहीं करता. हिंदुत्व एक जातीय-राष्ट्रवादी आंदोलन है जो खुलकर राष्ट्रवाद का सहारा लेता है, धर्म का नहीं. दूसरी ओर, सुधार न होने की वजह से मुसलमान आज भी सियासत को धर्म के नज़रिए से देखते हैं.


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और इसलिए, जिस तरह इसका मतलब हिंदू, ईसाई, या किसी भी दूसरे धर्म को मानने वालों के लिए, ताक़त का नुक़सान नहीं है, ठीक उसी तरह मुसलमानों के लिए भी नहीं है. अधिकांश बड़े धर्म अब धर्मनिरपेक्ष हो गए हैं. आम लोगों के लिए, धर्म से धर्मनिरपेक्षता का सफर, तरक्क़ी है, नुक़सान नहीं है.

कहानी का ताना-बाना इसलिए बुना जाता है कि उसमें किसी किरदार को बसाया जा सके. भारतीय मुसलमानों ने एक झूठी कहानी गढ़ी और ख़ुद को उसमें डुबो लिया. ये कहानी कुछ और हो सकती थी. भारत की तरक्की की. अगर वो अपनी कहानी फिर से लिख लें तो इस कथानक का एक ज़रूरी हिसा बन सकते हैं.

नजमुल हुदा एक आईपीएस अधिकारी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

2 टिप्पणी

  1. महोदय आप जैसे ज्ञानी व्यक्ति को बहुत दिनों बाद पड़ा।।
    आपने बहुत ही बढ़िया तरीके से आज के हालात और उसमे मुस्लिमो का किरदार ।।।इस बात को बहुत ही बढ़िया रेखांकित किया।।।।आपके विचार बहुत ही उच्च कोटि के है।।।।।।आप मुस्लिमो के नेता के तौर पर आगे आय और वर्तमान हालात मै मुसलमान को उसका किरदार समझाए।।।।।।यह इस देश के लिए बहुत अच्छा होगा।।।।अपको सादर नमन।।।।।

  2. क्या विश्लेषण है_एकदम सटीक, गहराई युक्त, बेबाक और शुतुरमुर्ग मानसिकता से परे । जानदार, शानदार, लाजबाव। श्रीमान आप कोटि-कोटि बधाई के पात्र हैं ।आप जैसे विचार वान ही भारतीय मुस्लिम जगत के लिए एकमात्र उम्मीद हैं।आप जैसे लोगों को नेतृत्व के लिए खुलकर सामने आना चाहिए , तभी मुस्लिम जगत मुख्य धारा के साथ कदमताल कर पाएगा । हालांकि आप जैसे लोगों का सख्त विरोध भी तय है पर किसी को तो बिल्ली के गले में घंटी बांधने का खतरा मोल लेना पड़ेगा । बेशक ईश्वर का आशीर्वाद आपके साथ है ।

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