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‘हिंदी-रूसी भाई भाई’ के रिश्ते को मजबूत कर सकता है भारत, चीन से लेकर EU तक सभी संतुलन साधने में लगे

अमेरिकी प्रतिबंधों की परवाह न करके रूस से कारोबार करने पर मजबूर भारत को अब, जी-20 जैसे समूहों का नेतृत्व करने और इंडो-पैसिफिक के विचार को आगे बढ़ाने की तैयारी करनी चाहिए.

रूस के उप-प्रधानमंत्री डेनिस मंटुरोव विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ बातचीत करते हुए | एएनआई फोटो

नई दिल्ली की अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संतुलन साधने की कोशिशें पूरी बुलंदी पर हैं. भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर की मास्को में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लवरोव के साथ द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर सफल वार्ता हुई. यूक्रेन संकट शुरू होने के बाद पांचवीं बार दोनों मिले. पुतिन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संदेश दिया था कि ‘आज का दौर युद्ध का नहीं’, इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए भारतीय विदेश मंत्री रूसी विदेश मंत्री को बातचीत और सुलह-सफाई के जरिए यूक्रेन संकट का हल निकालने की दिशा में काम करने को समझा सकते थे.

यूक्रेन के खेरसॉन में नीपर नदी के पश्चिमी तट से रूसी फौज की वापसी कोई संकेत है, तो संकट के निकलने की दिशा में कुछ और सकारात्मक कदम उठ सकते हैं. शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी दुनिया के दुश्मन के साथ भारत की गलबहियां से यकीनन कई भौंहें टेढ़ी हुई हैं. इस वजह से भारत के लिए संतुलन साधने की कोशिश को तेज़ करने की जरूरत बढ़ गई है.

शुरुआत में, नई दिल्ली के लिए रूस के यूक्रेन पर हमले के फौरन बाद मास्को की ओर हाथ बढ़ाने के रास्ते पर अकेले बढ़ना आसान नहीं था, जब बाकी लोकतांत्रिक दुनिया रूस को अलग-थलग करना चाहती थी. भारत ने न केवल पश्चिमी दुनिया के इशारे पर रूस की निंदा करने से परहेज किया, बल्कि आगे बढ़कर अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद अपनी तेल खरीद का जोरदार बचाव किया.

हालांकि, 2022 की पहली तिमाही तक भारत में रूसी तेल आयात लगभग 0.2 प्रतिशत ही था, जो अक्टूबर तक उछलकर 22 प्रतिशत या करीब 9.35 लाख बैरल प्रति दिन हो गया. यह भारत की इराक (20.5 फीसदी) या सऊदी अरब (16 फीसदी) की खरीद से ज्यादा है.


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संयोग से, नई दिल्ली रूस के साथ व्यापार करने वाली अकेली नहीं है, जिसे अमेरिका पराया कहना चाहेगा. चीन मास्को के साथ अपने आर्थिक संबंधों में कतई पीछे नहीं है. अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद कथित तौर पर 116 से अधिक बहुराष्ट्रीय कंपनियां धड़ल्ले से रूस के साथ कारोबार कर रही हैं. उनमें से कई अमेरिका आधारित हैं जिनकी यूरोपीय संघ के देशों में मजबूत उपस्थिति है.

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जनवरी की शुरुआत में, जब अमेरिका यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर चेतावनी दे रहा था और आर्थिक प्रतिबंधों के जरिए जवाबी कार्रवाई की तैयारी कर रहा था, कथित तौर पर इतालवी कंपनियों के लगभग 20 शीर्ष अधिकारियों ने रूस के साथ आर्थिक संबंधों को मज़बूत करने के उपायों और तरीकों पर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ वीडियो के जरिए मुलाकात की थी.

रूस के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार यूरोपीय संघ (ईयू) की 2020 में रूस के वैश्विक व्यापार में 37 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी. उसमें रूस से गैस निर्यात करीब 70 प्रतिशत और तेल निर्यात का आधा हिस्सा शामिल था. यूरोपीय संघ के कई सदस्य देश अपने स्थानीय व्यापारिक घरानों के दबाव में हैं कि वे उनके उत्पादों को प्रतिबंधों से छूट दिलाएं. अगर यह सफल होता है, तो रूस को प्रतिबंधों से दंडित करने का ख्याल जल्द ही कमजोर करना पड़ सकता है.

दुनिया नैतिक ताकत देखती है

संतुलन साधने के इस बदलते रुझान का एक नतीजा यह भी है कि उभरती हुई नई विश्व व्यवस्था का जायजा लें. दुनिया धीरे-धीरे लेकिन पक्के तौर पर बहुध्रुवीय होती जा रही है और सभी देश अपने आर्थिक हितों के अनुरूप अपनी विदेश नीतियों को बदलने को तैयार हैं. नतीजतन, अपने-अपने देशों में रूढ़िवादी विचारधाराओं वाली पार्टियों को व्यावहारिक राजनीति की दिशा में बढ़ना पड़ सकता है.

शीत युद्ध के दौरान 60 के दशक की शुरुआत और 70 के दशक में, तत्कालीन सोवियत संघ के साथ भारत के संबंध बुलंदी पर थे. उन मैत्रीपूर्ण संबंधों से पहले, सोवियत संघ की तत्कालीन राष्ट्रपति निकिता ख्रुश्चेव ने (बेंगलुरु में 26 नवंबर 1955 को) लोकप्रिय नारा ‘हिंदी-रूसी भाई भाई’ उछाला था. इस तरह एक नए भू-राजनैतिक रिश्ते की नींव रखी गई थी. तब से बहुत कुछ हो चुका है. मसलन, सोवियत संघ का विघटन, अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था को चुनौती देने वाले नए दावेदार के रूप में चीन का उदय, और भारत-प्रशांत क्षेत्र में भारी अवसरों के मद्देनजर चार प्रमुख लोकतांत्रिक देशों का एक मंच पर आना.

बदलती भू-राजनैतिक स्थितियों ने कुछ ऐसे संकेत दिए हैं जिनका कुछ साल पहले तक अनुमान लगाना मुश्किल था. सबसे पहले तो यही स्पष्ट हो गया है कि अस्तित्व रक्षा के लिए राष्ट्रीय या वैचारिक हितों से आर्थिक हित कहीं ज्यादा जरूरी हैं. ठीक जैसे कॉर्पोरेट घरानों को अपनी आलीशान जीवन शैली को कायम रखने के लिए धन की जरूरत होती है, उसी तरह देशों को भी अपने आय-व्यय खातों को दुरुस्त रखने के लिए सस्ते तेल की जरूरत होती है. अगर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए संघर्षरत कोई महाशक्ति इस हकीकत को मानने से इनकार करती है, तो वह अपने सहयोगियों और दोस्तों को खो देगी. वह भारत से एक-दो सबक सीख सकती है. जब विदेश मंत्री मास्को में थे, उसी वक्त भारत के विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा वाशिंगटन में अमेरिकी उप विदेश मंत्री वेंडी शेरमेन के साथ गंभीर बातचीत कर रहे थे.

बहुध्रुवीय दुनिया के बढ़ते महत्व के संदर्भ में, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भारत की ‘रणनीतिक तटस्थता और स्वायत्तता’ उसकी विदेश नीति और आर्थिक फैसलों को बड़े राष्ट्रीय हित ही दिशा देंगे. साथ ही, नई दिल्ली को जी20 जैसे अंतरराष्ट्रीय समूहों में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए खुद को तैयार करना होगा और भारत-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा को मूर्त रूप देने की गंभीर कोशिशों में जुटना होगा.

(अनुवाद: हरिमोहन मिश्रा)

(संपादन: इन्द्रजीत)

(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. जिनका ट्विटर हैंडल @seshadrichari है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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