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नेटवर्क बंद करने के अलावा कश्मीर को कैसे संभालना है भारत को इज़राइल से सीखना चाहिए

कश्मीर में संचार माध्यमों पर पाबंदी को लेकर गृहमंत्री अमित शाह भी उतने ही गलत हैं जितने भारत के सेलिब्रिटी टिप्पणीकार.

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कश्मीर में प्रतिबंधों के बाद श्रीनगर में तैनात सुरक्षा जवान | पीटीआई

भारत के सेलिब्रिटी टिप्पणीकारों की नीति संबंधी अज्ञानता और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी बेखबरी का स्तर चौंकाने वाला है. अपने एक ट्वीट में हाल ही में एक ‘कानूनी विशेषज्ञ’ ने कश्मीर में संचार माध्यमों पर रोक की तुलना मध्यकालीन घेराबंदी से की जब ‘आबादी को भूखे मारा जाता था और कुओं को विषाक्त किया जाता था’. वास्तव में संचार तंत्र को ठप किए जाने के खिलाफ एक ठोस मामला बनता है, पर जब लोग समस्या को समझने के बजाय प्रचार पाने के लिए अतिशयोक्ति पर उतर आते हैं– आधुनिकता और सार्वजनिक सुविधाओं की उपलब्धता की भ्रामक तुलना अनिवार्य सेवाओं पर पाबंदी से करने लगते हैं – तो सही आलोचनाओं का शोर में दबना तय है. अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले के बाद कश्मीर मामले में बिल्कुल यही हो रहा है.

हकीकत में, संचार माध्यमों पर पाबंदी एक गैर-औद्योगीकृत राष्ट्र का पक्का संकेतक है, जो कि सूचना प्रौद्योगिकी में कथित कुशलता के बावजूद सूचना के महत्व को और सुरक्षा के हित में उसके इस्तेमाल के बारे में कुछ नहीं जानता, भीड़ पर नियंत्रण या इसके मनोविज्ञान को समझना तो दूर की बात है.

दूसरे इंतिफादा से कैसे निपटा इज़राइल

इसे समझने के लिए, हमें ये देखना होगा कि इज़राइल ने दूसरे इंतिफादा को कैसे निपटाया और तीसरे को शुरू होने से पहले ही कैसे खत्म कर दिया. दूसरा इंतिफादा इज़राइलियों और फलस्तीनियों के बीच भारी हिंसा का काल था. दूसरे इंतिफादा (2000-2005) के खिलाफ इज़राइल की प्रतिक्रिया वैसी ही थी जो कि कश्मीर में भारत की है– भीड़ एकत्रित होने से रोकने के लिए कर्फ्यू, भीड़ इकट्ठा करने की प्रक्रिया पर रोक के लिए संचार माध्यमों पर पाबंदी, भीड़ जुटाने के काम नहीं आ सकें इसलिए स्कूलों और कार्यस्थलों को बंद कराना और हिंसक भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पैलेट गन और आंसू गैस का प्रयोग करना. इन चारों प्रकार की कार्रवाइयों में ‘भीड़’ समान कारक है— सारी कार्रवाइयां केवल उसे रोकने के लिए की जाती हैं, पर उनके कारण जनता को भारी परेशानी से गुजरना पड़ता है और उपद्रवियों की जमात में इजाफा होता है.

अब आते हैं तीसरे इंतिफादा (2014 के बाद से) पर. क्या आपने कभी इसके बारे में सुना है? नहीं. सोचिए क्यों कथित मूक इंतिफादा शुरू ही नहीं हो पाया? क्योंकि इज़राइलियों ने भीड़ के जमा होने से पहले ही दखल देना सीख लिया और ऐसा करते हुए संपूर्ण फलस्तीनी आबादी के लिए असुविधाएं पैदा करने की नौबत नहीं आने दी. ये कामयाबी संचार तंत्र को ठप करने से नहीं, बल्कि सूचनाओं का अबाध प्रवाह होने देने से मिली.


 

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जब गैरकानूनी गतिविधियों का समन्वय मोबाइल नेटवर्कों और इंटरनेट मैसेजिंग के ज़रिए हो रहा हो, तो आप संबंधित सूचनाओं का अबाध प्रवाह सुनिश्चित करना चाहते हैं ताकि कंप्यूटर गणनाओं के ज़रिए आप समझ सकें कि हो क्या रहा है, कहां से शुरुआत होने वाली है, आयोजक कौन है, नियंत्रण किनके हाथों में है, और आखिर क्या योजना है उनकी. इस दशक के आरंभ से, जब चेहरा पहचनाने की तकनीक इस्तेमाल होने लगी, आप दंगाई विशेष को पकड़ कर दंडित कर सकते हैं, बजाय इसके कि पूरे इलाके को बंद कर उन लोगों को भी असुविधा पहुंचाई जाए जो शायद पहले ही से दंगाइयों द्वारा पैदा असुविधा को सहन कर रहे हों. इज़राइलियों ने पाया कि नए उपायों की मदद से वे दंड और प्रोत्साहन की व्यवस्था को सटीक बना सकते हैं, जिसके बल पर भीड़ नियंत्रण की अत्यंत प्रभावी रणनीति बनाई जा सकती है.

इससे तुलना करने पर पता चल जाता है कि भारतीय सुरक्षा बल कैसे गुजरे ज़माने में जी रहे हैं, और न तो उन्हें भीड़ नियंत्रण के बुनियादी सिद्धांतों की समझ आ पाई है, न ही वे आधुनिक तकनीकों का फायदा उठा पाते हैं.

कश्मीर में सुरक्षा व्यवस्था की नाकामी

सर्वप्रथम, कश्मीर में तैनात हमारे सुरक्षा बलों को हेलमेट कैमरा उपलब्ध नहीं कराया गया है. ये कैमरा सुरक्षाकर्मी विशेष को अनुशासित रखने का माध्यम है, और सुनिश्चित करता है कि वह तय प्रक्रियाओं का पालन करे और सिर्फ मजबूर किए जाने पर ही बल प्रयोग करें. इससे भी अहम, मनोबल के संदर्भ में यह अक्षम और भ्रष्ट अधिकारियों को जवानों को बलि का बकरा बनाने से रोकता है. यह जवान को गैरकानूनी आदेश के पालन या अवैध कदम उठाने से तो रोकता ही है, साथ ही उसे अवैध आदेशों के पालन से इनकार करने और उचित कदम उठाने का हौंसला भी देता है.

दूसरी बात है, सुरक्षा कैमरों की अनुपस्थिति – ऐसे कैमरे जो कि उपद्रवियों के चेहरे की पहचान कर सकें, या यदि उनके चेहरे ढंके हों तो ये तय कर सकें कि वे किन घरों से निकल कर आए हैं, ताकि बाद में कार्रवाई की जा सके. हाल के दिनों में पत्थरबाज़ों के घरों में छुपने और वहां से पत्थर चलाने का चलन देखा गया है. ये कैमरे ऐसे घरों की पहचान में सहायक हो सकते हैं.

तीसरी बात, हमारे पासे ऐसे सॉफ्टवेयर और प्रोग्राम नहीं हैं कि जिनकी मदद से उपद्रवियों के मोबाइल फोन को खुद उनके खिलाफ ही लगाया जा सके. सामान्यतया सोशल मीडिया पोस्ट भ्रम की स्थिति बनाने में योगदान देते हैं, जैसा कि 2011 के लंदन दंगों के दौरान देखा गया था, पर सिर्फ ब्लैकबेरी मैसेंजर की ट्रैकिंग भी एक निश्चित पैटर्न का अंदाज़ा दे सकती है. ट्रैकिंग प्रोग्राम मैसेज की उत्पत्ति वाले इलाके की या सोशल मीडिया पोस्ट या वाट्सएप संदेश की शुरुआत से जुड़ी जानकारियां जुटा कर भीड़ इकट्ठा होने की जगह का पता कर सकते हैं – और इस तरह भ्रम फैलाने का प्रयास उलटे यथास्थिति को स्पष्ट करने में मददगार साबित होता है.

और आखिर में, आतंकवादियों के घरों को ध्वस्त करने और बैंक अकाउंटों को जब्त करने की बजाय, हम जनाज़े के जुलुस को एकजुटता का माध्यम बनने देते हैं और आतंकवादियों के परिजनों को आतंकवाद का आर्थिक लाभ पाने की अनुमति देते हैं.

कानून का पालन करने वाले कश्मीरियों का हाल

अब ये सोच कर देखें कि आप कानून का पालन करने वाले कश्मीरी हैं – ज़रूरी नहीं कि भारत समर्थक हों, पर कानून का पालन करते हैं. सर्वप्रथम ये सोचें कि आप किसी अक्षम अधिकारी या अनुशासनहीन जवान के रहमोकरम पर हैं. दूसरे, आपके इलाके में पत्थरबाज़ी की घटना होने पर आपके व्यवसाय को नुकसान पहुंचता है. तीसरे, पत्थरबाज़ को पकड़ कर दंडित किए जाने के विपरीत, उसे या उसके रिश्तेदार को सरकारी नौकरी मिलती है. चौथे, प्रोत्साहन प्राप्त वही पत्थरबाज़ स्वत: ही स्थानीय ‘दादा’ बन जाता है और आपको निर्देश देने लगता है कि कब दुकान बंद करनी है, किसे शरण देनी है…और आपको उसकी बात माननी पड़ती है क्योंकि एक तो उपद्रव के आयोजक उसके साथ हैं और उसे परिणाम भुगतने का डर भी नहीं है. पांचवें, चूंकि कुछेक उपद्रवी हंगामा फैलाने के लिए व्हाट्सएप और मोबाइल फोनों का इस्तेमाल करते हैं, आपको संचार माध्यमों पर पाबंदी का खामियाज़ा भुगतना पड़ता है और आप सोचते हैं ‘मेरी क्या गलती थी’. हालांकि मोबाइल संचार चालू रखना उपद्रवियों और उसके समर्थकों की पहचान में अहम भूमिका निभा सकता है. और आखिर में, आप देखते हैं कि पत्थरबाज़ आगे चल कर आतंकवादी बन जाता है, नायकों जैसा पूजा जाता है, उसका अंतिम संस्कार अर्द्धसरकारी स्तर का होता है, और सामुदायिक सहायता और विदेश से भेजे जाने वाले धन के सहारे उसके परिवार की वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है.


 


उपरोक्त परिस्थितियों में, किसी सामान्य कश्मीरी कानून का पालन करने का कोई फायदा नज़र आएगा? हमारे नकारा सुरक्षा प्रबंधकों को प्रोत्साहन और दंड की नीति की समझ कभी नहीं हो पाई, और वे कानून का पालन करने वाले नागरिकों को दंडित करने या उन्हें उपद्रवियों और आतंकवादियों के चंगुल में फेंकने पर तुले लगते हैं. आतंकवादियों के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है. ए.एस. दुलत सिद्धांत के मुताबिक, पत्थरबाज़ के रूप में काम शुरू करते समय उन्हें दंडित नहीं किया जाता, और उससे भी बुरा, उन्हें प्रशिक्षित आतंकवादी बन जाने के बाद मुखबिर वाले फंड से उदार आर्थिक सहायता और मॉल खड़ा करने के लिए अच्छी जगहों पर ज़मीन दिए जाते हैं.

अनुच्छेद 370 समाप्त हो चुका है, पर यदि गृहमंत्री अमित शाह को लगता है कि वह आतंकवाद और अवैध गतिविधियों को पुरस्कृत करने और कानून का पालन करने वाले कश्मीरियों को दंडित करने वाली लचर सुरक्षा नीतियों के ज़रिए कश्मीर को शांत कर सकते हैं, तो यह उनकी भूल है. और भी बुरी बात ये है कि सुरक्षा प्रतिष्ठान इस बात को नहीं समझता है. और शर्मिंदगी का आखिरी कारण इन नीतियों का विरोध करने वाले वे लोग हैं जिन्हें सुरक्षा का ककहरा तक नहीं मालूम है और जो बचकाने, बेसिरपैर के और अर्द्धशिक्षितों वाले तर्क पेश करते हैं.

इसका मतलब ये है कि सार्वजनिक बहसों में दो परस्पर असंबद्ध दलीलें ही दिखती हैं – बल प्रयोग करना या नहीं करना. संक्षेप में, यदि शासन ने कश्मीर को निराश किया है, तो कश्मीर-समर्थक एक्टिविस्टों ने भी यही किया है जो खुद समस्या के मूल में हैं, भले ही उनकी मान्यता इसके विपरीत हो.

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval से ट्वीट करते हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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