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चीन-पाकिस्तान के बीच खुफिया साझेदारी भारत के लिए चिंताजनक, गलवान विवाद से पहले चीनी सेना को सूचना देने की बात आ रही है सामने

एक रिपोर्ट से संकेत मिले हैं कि लद्दाख के गलवान में चीन और भारत की सेनाओं के बीच तनातनी से पहले पाकिस्तान ने चीन को खुफिया सूचनाओं की साझेदारी के आपसी समझौते के तहत कुछ गुप्त सूचनाएं जरूर दी होंगी.

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की फाइल फोटो | Photo: @ForeignOfficePk | Twitter

चीन जब कि कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उठाने की कोशिश कर रहा था, पाकिस्तान के साथ इसके बढ़ते सहयोग के बारे में आई हाल की एक रिपोर्ट ने एक ऐसे पहलू को उजागर किया है जो भारत के लिए चिंता का कारण बन सकता है. एक अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट बताती है कि 15 जून को लद्दाख के गलवान में भारत-चीन सेनाओं की झड़प से पहले ही चीन को अच्छी तरह मालूम हो चुका था कि भारतीय सेना कहां-कहां तैनात है और उसकी गतिविधियां क्या हैं. माना जा रहा है कि पाकिस्तान ने भारतीय सेना के बारे में अपनी खुफिया जानकारियां चीन को दी थीं जिसके चलते चीनी फौजी कार्रवाई को काफी मजबूती मिली.

चीन-पाकिस्तान के बीच खुफिया सूचनाओं की साझेदारी कोई नयी बात नहीं है. पहले वह इस मामले में कुछ ज्यादा सावधान रहता था और विशेष फायदे के एवज में ही खुफिया सूचनाएं साझा करता था. और कभी वह अपने गहरे सूत्रों का खुलासा किसी विदेशी ताकत के सामने हो जाने के डर से कतराता था. लेकिन अब ऐसा लगता है कि चीन अपनी हिचक तोड़ चुका है और पाकिस्तानी सत्तातंत्र के ऊंचे स्तरों पर ही नहीं, जमीन पर भी काफी पैठ बना चुका है. पाकिस्तान-चीन की यह आपसी साझेदारी भारत के लिए एक चुनौती है क्योंकि यह बताती है कि यह रिश्ता इस हद तक बढ़ चुका है कि पाकिस्तान इसमें एक उपनिवेश से ज्यादा कुछ नहीं नज़र आ रहा है.


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उभरता रिश्ता

‘खुफिया यारी’ बढ़ने के संकेत पिछले कुछ वर्षों से साफ दिख रहे थे, जब से पाकिस्तानी फौज अपने ‘चुनींदा’ प्रधानमंत्री इमरान खान के कंधों पर बंदूक रखकर राज चलाने लगी थी. इसमें पाकिस्तानी फौज के मुखिया जनरल कमर जावेद बाजवा की केंद्रीय भूमिका है. बीजिंग ने उनका कार्यकाल बढ़ाए जाने का स्वागत किया है. चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने कहा, ‘जनरल बाजवा पाकिस्तानी फौज के बेमिसाल जनरल हैं. वे चीनी सरकार और फौज के पुराने दोस्त हैं.’

दूसरे देश में इस तरह की नियुक्तियों पर चीन कुछ कहने से प्रायः परहेज करता है इसलिए इस तरह का प्रशंसा वाला बयान काबिले-गौर बन जाता है. पहले हाल यह था कि संवेदनशील मसलों पर पाकिस्तान की कार्रवाई के चलते चीन उससे नाराज़ रहता था, जिनमें चीन द्वारा संचालित ग्वादर बंदरगाह में चीनी नागरिकों पर बलूच अलगाववादियों के हमले, शिंजियांग में धर्मगुरुओं के प्रवेश जैसे मसले शामिल हैं. वास्तव में, चीन ने अपनी नेशनल पीपुल्स कांग्रेस में पहली बार पाकिस्तान का नाम लेकर उसकी निंदा की थी और सरकारी मीडिया ने पाकिस्तान की ओर से कट्टरपंथी इस्लामी खतरे का भी जिक्र किया था. 2017 में तो उसने अपनी सीमाएं तक बंद कर दी थी.

ये तमाम बाते अब इतिहास के अंधेरे में समा चुकी हैं क्योंकि पाकिस्तान ने चीन के साथ खुफिया साझेदारी को अपने बूते अंजाम दिया है.

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खुफिया साझेदारी के सबूत

कराची में चीनी वाणिज्य दूतावास पर हमला करने वाले बलूच बागियों को एक महीने के अंदर कांधार में मार गिराया गया. जिसने भी यह कार्रवाई की उसे सटीक खुफिया सूचनाएं हासिल थीं क्योंकि बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) के सभी नेताओं का सफाया कर दिया गया था. इसी गुट ने जब कराची शेयर बाज़ार पर जिसमें चीन की 40 फीसदी हिस्सेदारी है, हमला करने की कोशिश की तो वे सभी चारों सदस्य मारे गए. सिंध रेंजर्स ने महज ‘आठ मिनट‘ में पूरे ऑपरेशन को अंजाम दे दिया था. जाहिर है, सुरक्षा सैनिक बागियों के सामने आने का इंतजार कर रहे थे. इससे जाहिर होता है कि उन्हें पहले ही भरपूर खुफिया सूचनाएं मिल चुकी थीं.

ऐसा लगता है कि पाकिस्तान की आईएसआई ने चीनी हितों की रक्षा के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया है. सूत्र बताते है कि खुद चीनी राजदूत इस मसले पर सुरक्षा एजेंसियों की उच्चस्तरीय बैठकों में भाग ले चुके हैं. चीन अब एक कदम और आगे बढ़कर पाकिस्तान को मजबूर कर रहा है कि वह बीएलए को संयुक्त राष्ट्र में आतंकवादी गुट के रूप में घोषित करवाने में मदद करे. यह पाकिस्तान के लिए सकते वाली स्थिति होगी क्योंकि वह ऐसे समय में मसले का ‘अंतरराष्ट्रीयकरण’ नहीं चाहता, जब वह बलूच युवाओं की हत्या करने में जुटा हुआ है.


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ऊइगर विवाद

इसके अलावा उइगर मुसलमानों का भी मसला है, जो अब सुर्खियों में आ गया है. कई उइगर मुसलमान पाकिस्तान में बस गए हैं और उन्होंने पाकिस्तानियों से शादी कर ली है. इस कारण सीमा पर लोगों का आना-जाना बढ़ गया है. उइगर के युवा चीन से लड़ने के लिए खुद को प्रशिक्षित करने में पाकिस्तान के सीमा क्षेत्र का इस्तेमाल कर रहे हैं. यह पाकिस्तान के आईएसआई की ‘आतंकवादियों की अदला-बदली’ की पुरानी नीति का ही एक हिस्सा है. आईएसआई नकदी या दूसरे फायदों के लिए ‘आतंकवादियों’ को सीमा से पार करवाता रहा है. मज़हबी मामलों के मंत्री नूर-उल- हक कादरी 2018 में चीनियों को उइगरों से संबंधित अपनी नीति के बारे में ‘सलाह’ दे चुके हैं.

लेकिन यह सब अब बदल चुका है. चीन के दबाव पर, उदाहरण के लिए, रावलपिंडी के उइगरों पर पाबंदियां बढ़ा दी गई हैं. उइगरों के लिए गेस्ट हाउसों के दरवाजे बंद हो गए हैं, हज की मंजूरी भी उन्हें नहीं दी जा रही है. इस साल जनवरी में प्रधानमंत्री इमरान खान ने मीडिया से बातचीत में उइगर मसले पर जवाब देने से मना कर दिया और तुरंत कश्मीर में ‘ज़्यादतियों’ का मसला उठा दिया था.

लेकिन साथी मुस्लिमों के प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी बढ़ रही है क्योंकि चीन में पाकिस्तानी बीवियों और बच्चों के लापता होने की खबरें आ रही हैं और मीडिया शिंजियांग में बड़े-बड़े बंदी शिविरों और लोगों पर निगरानी रखे जाने की खबरें भी दे रहा है. चीन को यह सब मालूम है और उसने पाकिस्तान से उसकी आंतरिक स्थिति के बारे में जानकारी देने की असाधारण मांग की है. कोई भी संप्रभुता संपन्न देश ऐसी मांग को ठुकरा देगा लेकिन पाकिस्तान ने ऐसा नहीं किया.

खुफिया आकलन के मुताबिक, प्रमुख इस्लामी पत्र-पत्रिकाएं उइगर मसले को उछाल रही हैं और चीन में मुसलमानों के हालात पर चिंता जता रही हैं. चीन ने चेताया है कि पाकिस्तान इस धारणा को ‘ठीक’ करे वरना दोनों देशों के रिश्ते प्रभावित हो सकते हैं. इस बीच पाकिस्तान अपने यहां से उइगरों को निष्कासित कर रहा है, अफगानिस्तान में तालिबान समेत अपने दूसरे समर्थक गुटों से वहां सक्रिय उइगरों की हत्याएं तक करवा रहा है. इस तरह की खुफिया साझेदारी की दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती.

यही नहीं, पाकिस्तान चीन को अफगानिस्तान में पैठ बनाने में भी मदद दे रहा है. उसने तालिबान को बीजिंग की बैठकों में भी कई बार शामिल करवाया है. वह चीन को नेपाल जैसे गैर-इस्लामी देशों में खुफिया गतिविधियां चलाने में भी मदद दे रहा है. वहां के.पी. शर्मा ओली की सरकार को बनाए रखने की कोशिशें इसका ताज़ा उदाहरण हैं. हाल में चीन, अफगानिस्तान, नेपाल और पाकिस्तान की संयुक्त बैठक कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.


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भारत के लिए चिंता

जाहिर है, खुफिया सूचनाओं की यह साझेदारी भारत को चिंतित कर रही है. खुफियागीरी की तकनीकी क्षमता के मामले में चीन पाकिस्तान से कहीं आगे है और उसे इसमें कोई मदद नहीं चाहिए. जहां तक चीन के लिए जासूसी करने वाले लोगों की बात है, वह धर्मशाला, तवांग, हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में बंगलूरू जैसी जगहों पर तिब्बतियों की मौजूदगी का फायदा उठाता है.

लेकिन पाकिस्तान भारत में दशकों से खुफिया गतिविधियां चलाता रहा है, खासकर फौज की तैनाती के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए निचले स्तर के साधनों का इस्तेमाल करता रहा है. सूत्र बताते हैं कि गलवान में तनाव के दौरान पाकिस्तानी खुफिया गतिविधियां बढ़ गई थीं और चीन ने पाकिस्तानी जासूसों के जरिए सूचनाएं हासिल करने की कोशिशें बढ़ा दी थीं. इसका संबंध इन खबरों से भी जुड़ता है कि हाल में आईएसआई के अफसरों को चीनी मिलिटरी कमीशन के ज्वाइंट स्टाफ विभाग में तैनात किया गया है और पाकिस्तान-चीन की फौजी गतिविधियों में खुफिया साझेदारी पर ज़ोर दिया जा रहा है.

सबसे चिंताजनक बात यह है कि पाकिस्तान ने अपनी मर्जी से या दबाव में आकर चीन के साथ खुफिया सूचनाओं की साझेदारी उन मामलों में भी बढ़ा दी है जिन्हें किसी भी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का केंद्रीय तत्व माना जाता रहा है. ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर’ (सीपीईसी) के लिए चीन 62 अरब डॉलर देने वाला है. कीमत चुकाने का यह भी एक तरीका है.

(लेखिका नेशनल सिक्यूरिटी काउंसिल सेक्रेटेरियट की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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