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भारत ने ब्लैक टॉप पर कब्जा किया, हेलमेट चोटी भी नियंत्रण में- चीन अब 1962 की रणनीति अपना सकता है

छोटे-मोटे ऑपरेशन में कामयाबी से भारत को बहुत खुश नहीं होना चाहिए क्योंकि चीन इसका उस तरह जवाब नहीं देगा जिस तरह हम पिछले चार महीनों से उसे देते आ रहे हैं.

लद्दाख में पैंगोंग झील की फाइल फोटो | विशारद सक्सेना, विशेष व्यवस्था से

छल, दुष्प्रचार, और लफ्फाजी से हटकर हमारी सेना ने 29-30 अगस्त के बीच की रात रणनीतिक महत्व की सामरिक कार्रवाई की और चुशूल ‘बाउल’ के सामने कैलाश पहाड़ों में अपनी जगह सुरक्षित कर ली. चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) मई 2020 से देपसांग, गलवान, हॉट स्प्रिंग-गोग्रा-कुग्रांग और पैंगोंग झील के उत्तर किनारे पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का जिस तरह उल्लंघन करती आ रही है, उसका माकूल जवाब लंबे समय से अपेक्षित था.

प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो और रक्षा मंत्रालय ने 31 अगस्त की सुबह 10.35 बजे सेना के प्रवक्ता कर्नल अमन आनंद की दस्तखत वाला यह अधिकृत बयान संयुक्त रूप से जारी किया— ’29-30 अगस्त के बीच की रात पीएलए ने पूर्वी लद्दाख में जारी तनातनी के दौरान सैनिक तथा राजनयिक बातचीत में बनी आम सहमति को तोड़ा और यथास्थिति को बदलने के लिए उकसाऊ फौजी हरकतें की. भारतीय सैनिकों ने पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर अपनी स्थिति मजबूत करने के कदम उठाए और जमीनी स्थितियों को एकतरफा तरीके से बदलने के चीनी इरादों को नाकाम कर दिया.’

इस ऑपरेशन से, पिछले चार महीने में पहली बार हमारी सेना ने पहल अपने हाथ में ली और पीएलए को रक्षात्मक मुद्रा अपनाने को मजबूर किया और उसने पहले कार्रवाई करके जो रणनीतिक बढ़त बनाई थी उसे आंशिक रूप से नाकाम कर दिया. मैं यहां इस ऑपरेशन के रणनीतिक तथा सामरिक महत्व का विश्लेषण करूंगा और पीएलए की संभावित जवाबी सैनिक कार्रवाई का आकलन करूंगा.


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जवाबी कार्रवाई

हमारे सेना ने कैलाश के पहाड़ों में पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे से लेकर त्साका ला तक सामरिक महत्व की सभी चोटियों पर अपनी पकड़ बना ली है जिनमें हेलमेट, ब्लैक टॉप, गुरुंग हिल, मागर हिल, रेज़ांग ला, और रेचिना ला चोटियां शामिल हैं. ये सारी एलएसी के अंदर भारतीय इलाके में हैं, जहां 1962 की भारत-चीन लड़ाई में जोरदार जंग हुई थी. चीन ने इन क्षेत्रों में एलएसी को मान्य किया है, सिवा ब्लैक टॉप के जिसके बारे में उसका दावा है कि वह उसके दावे वाली रेखा के पूरब में है.

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चूंकि चीन 1959 के अपने दावे वाली रेखा पर अड़ा है और उन क्षेत्रों में घुस रहा है जो पहले उसके कब्जे में नहीं थे, तो ऐसे में शांति बनाए रखने का 1993 का समझौता और इसके बाद के समझौते भी बेमानी हो चुके हैं. अब ‘जिसने खोजा उसकी भैंस’ वाला नियम चल रहा है हालांकि राजनयिक चैनल खोले रखने के लिए एलएसी का आडंबर बनाए रखा गया है (देखें, नक्शा 1).

मैप-1 चुसुल सेक्टर का कैलाश रेंज | गूगल अर्थ की तस्वीर

1962 के बाद से इन क्षेत्रों पर हमारा कब्जा नहीं था क्योंकि एलएसी चोटी पर से गुजरती है और हम टक्कर के लिए हालात नहीं पैदा करना चाहते थे जैसा कि एलएसी पर होता है. यह क्षेत्र हवाई दूरी के हिसाब से करीब 30 किलोमीटर का है.

मैप-2 कैलाश रेंज की इंडस घाटी | गूगल अर्थ की तस्वीर

संक्षेप में, यह सर्जिकल सामरिक कार्रवाई थी और पूरी तरह से अचानक की गई थी. हमने करीब एक ब्रिगेड—3500 सैनिकों—का प्रयोग किया और पीएलए की जवाबी कार्रवाई की आशंका में इतने ही सैनिकों को रिजर्व में तैयार रखा. इनमें से किसी ठिकाने पर पीएलए का कब्जा पहले नहीं था मगर इन्हें कब्जे में लेने की हमारी तैयारी यह मान कर की जानी थी कि या उसके कब्जे में हैं. रणनीतिक और सामरिक, स्तरों पर धोखा देने में और सेना की सामरिक चाल के मामले में बिलकुल सटीक कार्रवाई की गई. एक बार फिर यह साबित हुआ कि हवाई या जमीनी इलेक्ट्रोनिक निगरानी की व्यवस्था की अपनी सीमाएं हैं.

कैलाश रेंज की अहमियत

कैलाश रेंज नाम इसलिए है कि ये पहाड़ दक्षिण-पश्चिम में 360 किमी की लंबाई में कैलाश पर्वत तक फैले हैं. चुशूल सेक्टर में यह पश्चिम में चुशूल ‘बाउल’ और पूरब में स्पंग्गुर सो के ऊपर फैले हैं. तिब्बत-झिंजियांग हाइवे (जी-219) से 90 किमी पूरब रूडोक से जाने वाली सड़क स्पंग्गुर सो के दक्षिण से स्पंग्गुर गैप तक जाती है. भारत और तिब्बत की अंतरराष्ट्रीय सीमारेखा स्पंग्गुर सो के बीच से गुजरती है (देखें नक्शा 1). कैलाश रेंज में पैंगोंग सो से रेचिन ला तक की चोटियों पर जिसका कब्जा होगा वह पूरब से पश्चिम के सभी मार्गों पर हावी रहेगा और विरोधी को अपना सैनिक अड्डा 6-8 किमी दूर की पहाड़ियों पर या निचली पहाड़ियों पर बनाने के लिए मजबूर करेगा.

इस सेक्टर में कैलाश रेंज पर 1962 में हमारा कब्जा था, जिसे रेजांग ला और गुरुंग हिल गंवाने के बाद हमें खाली करना पड़ा था, और चुशूल तक की सड़क भी हमसे कट गई थी. चुशूल हवाई पट्टी भी बेकार हो गई थी. 1962 के बाद हमारा डिफेंस पीछे खिसक आया था. 1986 में जाकर भारत ने आगे बढ़कर पैंगोंग और लद्दाख रेंजोन में अपना डिफेंस बनाया. सीधी टक्कर से बचने के लिए कैलाश रेंज पर कब्ज नहीं किया गया. लेकिन जब टक्कर अवश्यंभावी हो जाए तब उसे पहल करके कब्जे में लेने की योजना तैयार की गई.

स्पंग्गुर गैप के उत्तर में ब्लैक टॉप सबसे अहम ठिकाना है. 1962 में भारत ने चूक से इस पर कब्जा नहीं किया था और पीएलए को गुरुंग हिल के दक्षिण में निचली चोटियों पर हमला करने का मौका दे दिया था. पैंगोंग सो के दक्षिणी किनारे तक जाने वाली जो चीनी सड़क ब्लैक टॉप से 1.5 किमी पूरब से और हेल्मेट से 1.5 किमी उत्तर से गुजरती है, वह अब टकराव के दौर में बेकार हो जाएगी. अब हम चूंकि ब्लैक टॉप और हेलमेट पर काबिज हैं, इसका अर्थ यह होगा कि पीएलए इस रास्ते से पैंगोंग झील के दक्षिण किनारे तक नहीं पहुंच पाएगी. चीन को अब दुर्गम क्षेत्र से नया रास्ता बनाना पड़ेगा, जिसे भी हमारा डिफेंस काट दे सकेगा. अब दक्षिणी किनारे के 3 किमी पर अच्छी तरह काबिज है, जिस पर अब तक पीएलए का कब्जा था. बलिक टॉप, गुरुंग हिल, और मागर हिल 4 किमी चौड़े और 6 किमी लंबे स्पंग्गुर गैप पर पूरी नज़र रखती हैं. मागर हिल, मुखपरी, रेजांग ला, और रेचिन ला स्पंग्गुर सो के 10 किमी दक्षिणी किनारे पर नज़र रखती हैं.

कैलाश रेंज स्पंग्गुर सो के उत्तरी और दक्षिणी किनारों और रूडोक तक हमला करने के लिए लॉंचपैड का कर सकते हैं. अगर हमने रेचिन ला के दक्षिण-पश्चिम में कैलाश रेंज के 45 किमी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है तो हम स्पंग्गुर सो और रूडोक के बीच के क्षेत्र में अपनी स्पेशल फोर्स तैनात कर सकते हैं.

स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का प्रयोग

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इस ऑपरेशन में स्पेशल फ़्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) या विकास रेजीमेंट (जो देशनिष्काषित तिब्बतियों से बनी है) का प्रयोग किया गया. एसएफएफ के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. यहां इतना कहना काफी है कि बेहद मोटिवेटेड स्पेशल फोर्स है जिसका गुप्त और खुली कार्रवाइयों का शानदार रेकॉर्ड है. इस ऑपरेशन में उसका काम असाधारण रहा है. वैसे, बेहतर यही होगा कि इसका उपयोग दुश्मन की लाइन के पीछे सामरिक/रणनीतिक भूमिका के लिए किया जाए, पारंपरिक सैन्य कार्रवाइयों के लिए नहीं.

सामरिक कार्रवाई से ज्यादा, इससे चीन को यह संदेश गया है कि तिब्बत का मसला जीवित है और भारत उसका समर्थन करता है. यह भारत की तिब्बत नीति में बड़ा बदलाव भी जाहीर करता है. नरेंद्र मोदी सरकार जब चीन के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ा रही थी तब उसने तिब्बत के मसले को जिस तरह दरकिनार कर दिया था उसमें अब वह सुधार कर रही है.


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चीन का संभावित जवाब

एक बड़ी ताकत होने के नाते चीन के लिए इस कड़वी घूंट को पीना मुसकिल होगा और वह अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति पर राजी होने के लिए राजनयिक समाधान का रास्ता ढूंढ सकता है. चुशूल सेक्टर में हमारी बढ़त सामरिक महत्व की है. डेपसांग, गलवान, हॉट स्प्रिंग-गोग्रा-कुग्रांग और पैंगोंग झील के उत्तर किनारे पर चीन ने पहले ही बढ़त ले ली है उससे उसे सीमित युद्ध की स्थिति में दौलत बेग ओल्डी, हॉट स्प्रिंग, गोग्रा-कुग्रांग और पैंगोंग झील के उत्तर में भौगोलिक क्षेत्र पर कब्जे के मामले में लाभ हो सकता है. चीन के बयानों के तेवर तीखे हैं. हमें हिंसक जवाब के लिए तैर रहना होगा.
मेरा अनुमान है कि शुरुआत चुशूल सेक्टर में स्थानीय कार्रवाई के रूप में हो सकती है. यह सीमित युद्ध की शक्ल ले सकती है. सामरिक रूप से पीएलए ब्लैक टॉप खोने का झटका बर्दाश्त नहीं कर सकता, और हमें रेजांग ला/ रेचिन ला को लॉंचपैड बनाकर हमें आइबी तक पहुँचने और स्पंग्गुर गैप में अपने डिफेंस को घेरने की छूट नहीं दे सकता.

मुझे 1962 दोहराए जाने की संभावना दिख रही है, ताकि वह ब्लैक टॉप वापस ले सके और हमें हेलमेट और गुरुंग हिल से बेदखल कर सके. पीएलए रेजांग ला और रेचिन ला को कब्जे करना चाहेगा और फिर आगे बढ़कर मुखपरी और मागर हिल को खाली कराना चाहेगा. अगस्त तक स्पंग्गुर सो इलाके में पीएलए की थोड़ी ही मौजदगी थी. मेरा ख्याल है कि जब उसकी रिजर्व सेना आगे आ जाएगी तब वह तुरंत कार्रवाई करेगी क्योंकि वह नहीं चाहेगी कि हमारी डिफेंस मजबूत हो. 11 बीत चुके हैं और मुझे कभी भी जवाबी कार्रवाई की उम्मीद है.

हमने कुछ चूक की है. हमें एलएसी की अनदेखी करके उन पठारी क्षेत्रों पर अपनी स्थिति और मजबूत करनी चाहिए थी, जो उन क्षेत्रों से पूरब में पड़ते हैं जिन पर हमने कब्जा किया है ताकि पीएलए एलएसी के पूरब में कैलाश रेंज की निचली पहाड़ियों पर आकर हम पर हमले के लिए मजबूत अड्डा न बना ले. पीएलए ने हमारी चूक का लाभ उठाया है और कैलाश रेंज की नीची पहाड़ियों पर अपने मजबूत अड्डे बनाए हैं ताकि जवाबी हमला कर सके. इस मामले में 7-8 सितंबर के बीच की रात में मुखपरी में जो हुआ उसे एक उदाहरण माना जा सकता है.

हमारी सेना को पीएलए के साथ गैर-फौजी टकराव से बचना चाहिए, जैसा 15 जून को गलवान में हुआ था और मुखपरी में भी जिसकी कोशिश हुई. यह दूसरी जगहों पर भी हो सकता है. यह पीएलए की चाल हो सकती है ताकि गलवान टाइप घटनाएं हों और हमें वहां से हटना पड़े और हम कैलाश रेंज को खाली कर दें और जवाबी हमला किए बिना कैलाश पर कब्जे की उसकी मंशा छिपी रहे.

कैलाश रेंज पर अपनी स्थिति मजबूत करके हमने पीएलए को चौंका दिया है, और हमें इसे हाथ से जाने नहीं देना है. पीएलए के ‘स्ट्रीट वारीयर्स’ को परे रखने के लिए हम बारूदी सुर्ङ्गेन आदि बिछा सकते हैं. जरूरत हुई तो उपयुक्त फौजी ताकत भी इस्तेमाल की जा सकती है. 1962 के थागला रिज और 1967 के नाथु ला को याद कीजिए, जब ऐसी ही स्थितियों में पीएलए ने गोलीबारी की थी.

भारत का जवाब देना देश के मनोबल को और अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए जरूरी था. यह एक सामरिक कार्रवाई थी जिसे सफाई से अंजाम दिया गया. लेकिन इस छोटे से ऑपरेशन से बहुत खुश होना नादानी होगी, क्योंकि चीन इसका उस तरह जवाब नहीं देगा जिस तरह हम उसे पिछले चार महीने से देते आ रहे हैं. पीएलए काफी हिंसक जवाब दे सकती है. हमें लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा, जो कभी भी शुरू हो सकती है.

 

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की है. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

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