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क्या देश कांच का बना है? राजद्रोह पर अगली सुनवाई में CJI रमन्ना को मोदी सरकार से पूछना चाहिए

राजद्रोह का कानून केवल औपनिवेशिक काल की देन ही नहीं है, यह एक निकम्मी सरकार का वह हथियार है जिसे लहराकर वह खुद को राष्ट्र का पर्याय घोषित करती है और इसका इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ करती है .

चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट

राजद्रोह का कानून, जो औपनिवेशिक काल का एक अवशेष है उसकी आज़ादी के 75 साल बाद आज क्या कोई जरूरत रह गई है? बृहस्पतिवार को यह सवाल भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने मोदी सरकार के एटर्नी जनरल से किया. यह सवाल सारगर्भित भी है और रस्मी भी. वैसे, यह मसले का केंद्र बिंदु भी नहीं है, और इसकी वजह है. राजद्रोह का कानून इसलिए भयानक नहीं है कि यह हमें ब्रिटिश राज की गुलामी में मिला बल्कि हमारे अधिकतर कानून उसी दौर से चले आ रहे हैं. उनमें आइपीसी यानी भारतीय दंड संहिता भी शामिल है, जो 1860 से लागू है.

राजद्रोह कानून के साथ समस्या यह है कि इसे बनाने का मकसद औपनिवेशिक था. किसी भी देश के लोग जबरन थोपे गए शासन से नफरत ही करते हैं, चाहे उन्हें जबरन राष्ट्रगान गाने के लिए कहा जाए या फिर राजा को सलाम ठोकने के लिए ही क्यों न कहा जाए. वे गाने का दिखावा करते हुए मन-ही-मन कोसते भी रहेंगे. इसलिए आपको ऐसे कानून की जरूरत महसूस होती है, जो आपकी प्रजा को आपके प्रति वफादार बनाए. राज्यसत्ता के खिलाफ असंतोष पैदा करने वाले शब्द किसी लोकतंत्र के कानून में नहीं पाए जाने चाहिए. अगर आप अपनी सरकार को नापसंद करते हैं, जैसा कि बड़ी संख्या में भारत के लोग किसी भी काल में करते पाए जा सकते हैं, तो बेशक आप उसकी आलोचना कर सकते हैं, उसके खिलाफ मुहिम चला सकते हैं, उसे हराकर उसे सत्ता से बाहर कर सकते हैं. यह अधपके लोकतंत्र के लिए भी सामान्य बात है. और हमें यह मान लेना चाहिए कि हम इससे बेहतर हैं.

किसी निर्वाचित सरकार को, चाहे वह किसी भी पार्टी की सरकार हो, जनता से सुरक्षा के लिए कानून की जरूरत क्यों पड़नी चाहिए? यह एक दुखद सत्य है कि हमारी टूटी-फूटी व्यवस्था में जिन कानूनों को दोनों पक्ष का समर्थन हासिल है वे सबसे बुरे कानून हैं. यही वजह है कि 74 वर्षों में 14 प्रधानमंत्रियों की सरकारों में से किसी ने राजद्रोह कानूनों को रद्द नहीं किया.

मेरे संपादकत्व में प्रकाशित किसी सामग्री में किसी सरकार के लिए ‘हुकूमत’ शब्द का इस्तेमाल वर्जित है और उसका कोई भी सबसे नाराज, सबसे तल्ख आलोचक अगर इस शब्द का प्रयोग करता है तो उसे संपादित कर दिया जाता है. इसकी वजह यह है कि संवैधानिक लोकतंत्र अपनी सरकार चुनते हैं, कभी ‘हुकूमत’ नहीं चुनते. आप अपनी सरकार को पसंद-नापसंद करने को स्वतंत्र हैं. इसलिए, यह बदनुमा कानून, जिसका सहारा लेकर कोई सरकार अपने बचाव के लिए अपनी आलोचनाओं को अपराध घोषित कर सकती है, वह कानून आधुनिक दौर के लिए औपनिवेशिक कानून नहीं बल्कि एक अश्लील निर्लज्जता है.


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हमारा लोकतंत्र इतना समझदार तो है ही कि राष्ट्रहित और सरकार-हित में फर्क कर सके. तानाशाही के मुक़ाबले लोकतंत्र इसलिए ज्यादा मजबूत और ज्यादा लचीला होता है क्योंकि उसके नागरिक अपनी सरकार की गलतियों पर उंगली उठा सकते हैं, उसे भयंकर भूल से बचा सकते हैं. ऐसे नागरिक दूसरे नागरिकों की तरह ही देशभक्त होते हैं, बल्कि उनसे ज्यादा स्मार्ट और ज्यादा साहसी होते हैं.

वह तो जनमत है. क्या आप इन आलोचकों को खामोश करने के लिए ऐसे कानून का इस्तेमाल कर सकते हैं, जो उन्हें उम्रकैद दे दे और जीवन भर के लिए उन पर एक कलंक चस्पां कर दे?

उत्तर प्रदेश सरकार ने पत्रकारों पर राजद्रोह का मामला सिर्फ इसलिए दायर कर दिया कि उन्होंने यह खबर दी थी कि किसान आंदोलन का एक कार्यकर्ता पुलिस की गोलीबारी में मारा गया जबकि पोस्ट मार्टम रिपोर्ट बता रही थी कि वह हादसे में मारा गया होगा. मामला इसके बावजूद दायर किया गया कि उन पत्रकारों ने अपने पिछले ट्वीट में सुधार भी किया. प्रदेश की पुलिस ने इन एफआइआर पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है. लेकिन यह सब रेकॉर्ड में दर्ज है और अगर किसी पत्रकार ने आगे कभी सत्ताधीशों को नाराज किया तो मामले को फिर खोला जा सकता है. उन पर आइपीसी की धारा 505 (बवाल को उकसाना) जैसी धारा लगाई जा सकती थी जिससे उतना खौफ नहीं पैदा हो सकता है.

हरियाणा में करीब 100 आंदोलनकारी किसानों पर सरकारी वाहनों पर, खासकर उस वाहन पर जिसमें विधानसभा के उपाध्यक्ष रणवीर सिंह गंगवा सिरसा में यात्रा कर रहे थे, हमला करने के लिए राजद्रोह का मामला दायर किया गया है. इसकी जगह उन पर दंगा करने, सरकारी सेवकों को अपनी ड्यूटी करने में बाधा डालने से संबंधित आइपीसी की सख्त धाराओं को क्यों नहीं लागू किया जा सकता था?

राजद्रोह कानून, यूएपीए, एनएसए जैसे भयानक कानूनों के मामले में सभी राजनीतिक दलों ने मिलीभगत वाली चुप्पी साध रखी है. कुछ सप्ताह पहले छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने एक वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी, एडीजीपी जी.पी. सिंह पर अन्य कानूनों के साथ-साथ राजद्रोह कानून के तहत मामला दायर कर दिया. इसकी वजह जान कर आप हैरान हो जाएंगे कि इस पर हंसें या रोएं. दरअसल, राज्य की पुलिस को उनके मकान के पिछवाड़े ताजा फाड़े गए ऐसे कागजात के टुकड़े मिले थे जिनसे राज्य सरकार को अस्थिर करने की भयानक साजिश का संकेत उभरता था. है न किसी काल्पनिक विजय जासूस वाली कहानी से उठाया गया प्रसंग?

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं लेकिन तीन ही काफी होंगे, खासकर इसलिए कि ये सभी राजनीतिक खेमों से जुड़े हैं. एक समय महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर इसके तहत मामला दायर किया गया था, 2003 में राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने विहिप के प्रवीण तोगड़िया के खिलाफ, तो अन्नाद्रमुक ने जयललिता का मज़ाक उड़ाने के लिए गायक कोवन के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया था. आज भाजपा की सरकारें ट्रैफिक के चालान की तरह देशद्रोह के एफआइआर छाप रही हैं.

यह हमें मुख्य न्यायाधीश के अगले सवाल के सामने लाकर खड़ा करता है, कि जब इस कानून के तहत सजा देने की दर इतनी कम है तो इस कानून का इस्तेमाल ही क्यों किया जाए? इसकी वजह यह है कि मंशा  कानूनी तौर पर सजा देने की नहीं बल्कि कानूनी प्रक्रिया में ‘रगड़ने’ की होती है. क्योंकि, कोई एफआइआर जब दर्ज होती है, खासकर राजद्रोह के मामले में, तो उसे रेकॉर्ड से हटाने में अंतहीन समय लगता है. यही वजह है कि जब कोतवाल ही अपने मातहत है और जवाबदेही कोई नहीं है, तो मुख्यमंत्री कहता है कि बेटा ज्यादा मत बोलो नहीं तो राजद्रोह में डाल दूंगा.


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देश और उसकी सरकार, देशद्रोह और राजद्रोह एक ही चीज नहीं हैं. फिर भी यह सब घालमेल वाला मामला है, जिसे अब पक्षपाती सोशल मीडिया और ध्रुवीकरण करने वाले टीवी चैनल और उलझाऊ बना रहे हैं. कुछ लोग राजद्रोह और देशद्रोह को बड़े आराम से और जानबूझकर एक ही चीज मान लेते हैं. दिलचस्प बात यह है कि हिंदी बहुत प्रयोगशील भाषा है, और बड़े लोकतांत्रिक ढंग से. इसलिए उसके पास राजद्रोह और देशद्रोह जैसे स्पष्ट शब्द हैं. एक ही नज़र में आपको दोनों के बीच अंतर समझ में आ जाता है. लेकिन हमारी बेहद पक्षपाती बहस में इसकी अनदेखी कर दी जाती है.

अंग्रेजों ने 2009 में इस कानून को रद्द कर दिया, हालांकि इससे पहले कई दशकों से इसका शायद ही इस्तेमाल किया गया था. लेकिन हम इससे चिपके हुए हैं. हम ही नहीं, हमारे पड़ोसी भी. अंग्रेज़ हमें रेलवे, संसदीय व्यवस्था, स्वतंत्र न्यायपालिका की तरह राजद्रोह कानून भी दे गए, जिनके लिए हम खुद को उनका शुक्रगुजार मानते हैं. कहीं भी निकम्मी सरकार के लिए पहला बहाना होता है— राष्ट्र को खतरा है! ज़ोया अख्तर की फिल्म ‘गली ब्वॉय’ में गीतकार ने इस रैप में ठीक ही लिखा है— दो हजार अठ्रा है, देश को खतरा है, इसलिए जो ज्यादा बोले उसे खामोश करा दो, उसे फाड़ डालो.

इसलिए यह समझना आसान है कि सरकारें इस कानून को क्यों इतना पसंद करती हैं. यह उन्हें देश का पर्याय बताने में मदद जो करता है! इमरजेंसी के दौरान देवकांत बरुआ ने जो ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ वाला बयान दिया था उसे याद करके आज भी हमें गुस्सा आने लगता है. राजद्रोह कानून के प्रति मोह के मामले में हमेशा जो कुछ होता रहता है वह उसी की कड़ी है.

लेकिन कुछ प्रगति भी हुई है, जिस पर जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के पहले ही दिन एटर्नी जनरल ने इस कानून का खुल कर बचाव नहीं किया. बेशक उन्होंने यह जरूर कहा कि इस कानून को रद्द न किया जाए, बल्कि इसके लिए कुछ निर्देश तय किए जाएं ताकि इसका दुरुपयोग न हो. तथ्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट इस धारा की दो बार समीक्षा कर चुका है— 1962 में केदारनाथ सिंह मामले में और 1995 में बलवंत सिंह मामले में. इसके बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार पत्रकारों पर उनके ट्वीट के लिए यह धारा लागू कर देती है. 2021 में यह कानून एक घृणास्पद चीज बन चुकी है. इसे जाना ही चाहिए.

यह मुझे करीब 30 साल पहले खैबर दर्रे की ओर जाते हुए पेशावर के करीब 50 किमी बाहर एक गांव में हुई बातचीत की याद दिलाता है. यह तब की बात है जब भारतीय पत्रकारों को पाकिस्तान के क़बायली इलाकों में जाने की शायद ही मंजूरी दी जाती थी. एक पख्तून दुकानदार ने, जो खुद को ‘कांग्रेसी’ और खान अब्दुल गफ्फार (बादशाह) खान का सिपाही बता रहा था, मुझे और फोटोग्राफर प्रशांत पंजियार को भाषण पिलाया था कि ‘ये क्या बात हुई? मुंह खोलो तो बोलते हैं कि पाकिस्तान टूट जाएगा, इस्लाम टूट जाएगा. क्या शीशे का बना है मेरा पाकिस्तान, मेरा इस्लाम?’

अगली सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश महोदय को एटर्नी जनरल से भारत के बारे में ऐसा ही सवाल पूछना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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