होम मत-विमत क्या जनेऊ उतारकर ओबीसी कार्ड खेलने जा रहे हैं राहुल गांधी?

क्या जनेऊ उतारकर ओबीसी कार्ड खेलने जा रहे हैं राहुल गांधी?

ओबीसी को साथ लिए बिना कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है. देश की आधी से ज़्यादा आबादी का बड़ा हिस्सा पिछले चुनाव में भाजपा के साथ था.

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राहुल गांधी पर अरिंदम मुखर्जी द्वारा बनाया गया रेखाचित्र/ दिप्रिंट

केंद्र में हर हाल में सत्ता में वापसी करने को कटिबद्ध कांग्रेस नए-नए उपाय करने में लगी है. प्रियंका वाड्रा को सक्रिय राजनीति में उतारने के ऐलान के बाद, अब कांग्रेस ओबीसी के आरक्षण को आबादी के अनुपात में बढ़ाकर 52 प्रतिशत करने के वादे को घोषणापत्र में शामिल करने पर विचार कर रही है.

कांग्रेस अपने स्थापना काल से ही, मूल रूप से हिंदू सवर्ण नेतृत्व की ही पार्टी रही है और कई राज्यों में तथा फिर केंद्र में उसके हाशिये पर जाने का कारण उसकी ओबीसी से संवादहीनता ही रही है. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. सवर्णों की इस समय की पसंदीदा पार्टी भाजपा है. दूसरी ओर, ओबीसी अलग-अलग राज्यों और केंद्र में कभी तीसरे मोर्चे के समाजवादी-लोहियावादी दलों तो कभी भाजपा को जिताता है. बदले हालात में मजबूरी के ही तहत कांग्रेस ओबीसी को लेकर अब अपनी नीति बदल सकती है.

कितना बदल पाएगी कांग्रेस?

वर्तमान में राहुल गांधी के आसपास सलाहकारों में ओबीसी नेताओं की संख्या बढ़ी है. एक और भी कारण है जिससे कांग्रेस ओबीसी के प्रति अपना रुझान बदल सकती है. अभी 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिन तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी, उनमें ओबीसी का बड़ा और निर्णायक समर्थन कांग्रेस को मिला है. कांग्रेस की स्वाभाविक इच्छा है कि ये समर्थन बरकरार रखे. कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट को आगे करके ओबीसी नेतृत्व पर भरोसा जताया है. मध्य प्रदेश में भी किसी घोषित सवर्ण नेता को कांग्रेस ने कमान नहीं सौंपी.

भाजपा ने अपने सवर्ण चरित्र को बरकरार रखते हुए, पिछले कई सालों में ओबीसी नेताओं को अपने साथ जोड़ा है. अब इस तबके को भाजपा से स्थायी रूप से विमुख करने के लिए कांग्रेस के पास यही मौका है. कांग्रेसी खेमे से जो खबरें आ रही हैं, उसके अनुसार, लोकसभा चुनावों के पहले कांग्रेस ओबीसी को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 52 प्रतिशत आरक्षण के वादे का ऐलान कर सकती है.

अभी कितना है राज्यों में ओबीसी आरक्षण

ओबीसी को आबादी के अनुपात में आरक्षण का फैसला कितना क्रांतिकारी हो सकता है, ये जानने के लिए देश भर के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मौजूदा आरक्षण की स्थिति को समझना चाहिए.

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मौजूदा समय में विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ओबीसी आरक्षण की स्थिति इस प्रकार है:

आंध्रप्रदेश- 29%

अरुणाचल प्रदेश- 0

असम-27%

बिहार-30%

चंडीगढ़-14%

दिल्ली-27

गोवा-27%

गुजरात-27%

हरियाणा– 27% तृतीय-चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में, 10% प्रथम और द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में

हिमाचल प्रदेश-12% प्रथम और द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में. 18% तृतीय-चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में

जम्मू और कश्मीर– 25%

झारखंड– 14%

कर्नाटक– 32%

केरल– 40%

मध्यप्रदेश-14%

महाराष्ट्र-21 %

मणिपुर-17%

मेघालय– 0

मिज़ोरम-0

नागालैंड-0

ओडिशा-27%

पंजाब– 12% नौकरियों में. शिक्षण संस्थानों में 5%

राजस्थान-21%

सिक्किम– 21%

तमिलनाडू 50%

त्रिपुरा-0

उत्तरप्रदेश– 27%

उत्तराखंड-14%

पश्चिम बंगाल-17%

अंडमान निकोबार-38%

चंडीगढ़-27%

दमन और दीव-27%

दादर और नगर हवेली-5%

लक्षद्वीप-0

पुदुच्चेरी--34%

साफ दिख रहा है कि अधिकतर राज्यों में ओबीसी को अभी तक 27 प्रतिशत यानी आबादी के अनुपात से आधा आरक्षण भी नहीं दिया गया है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में तो ओबीसी आबादी 50 फीसदी से भी ज्यादा है. ऐसे में आबादी के अनुपात में यानी 52 प्रतिशत आरक्षण देने का कांग्रेस का संभावित ऐलान उसकी संभावनाओं में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी कर सकता है.

क्या फायदा हो सकता है कांग्रेस को

ये मांग ऐसी है जिसे ओबीसी बुद्धिजीवी और नेता लंबे समय से उठाते आ रहे हैं. 13 पॉइंट रोस्टर और सवर्ण आरक्षण के मसले पर ओबीसी का बड़ा और जागरूक तबका समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के रवैये से निराश है.

ऐसे में हाल ही में दो ओबीसी मुख्यमंत्री दे चुकी कांग्रेस के पास, खासकर यूपी में ओबीसी को अपने साथ जोड़ने का बेहतरीन मौका मिला है. अन्य उपायों में देखें, तो कांग्रेस के पास ओबीसी को जोड़ने और सपा-बसपा से ओबीसी को अलग करने का कोई आसान तरीका नहीं बचा है.

कांग्रेस इस मामले में एक कदम और आगे जाकर, ओबीसी को लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषदों में आरक्षण देने का वादा कर सकती है.

इस पूरे वादे को वह पूरा नहीं भी कर पाए, तो कम से कम, विधान परिषद और राज्यसभा में भी आरक्षण का प्रावधान कराना ओबीसी को आकर्षित कर सकता है. इतना ही नहीं, यह एससी और एसटी समुदायों को भी प्रभावित कर सकता है क्योंकि अगर ओबीसी को राज्यसभा और विधान परिषदों में आरक्षण मिलेगा तो एससी और एसटी को भी मिलेगा ही. अभी एससी-एसटी को सिर्फ लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण मिलता है.

बदल जाएगा उत्तर प्रदेश का गणित

खासतौर पर उत्तरप्रदेश की बात करें तो मोटे तौर पर 1967 से ओबीसी समुदाय कांग्रेस से विमुख हुआ था और बाद में ये विमुखता बढ़ती चली गई. 1967 से पहले यूपी में कांग्रेस कभी किसी ओबीसी को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाती थी. चौधरी चरण सिंह ने इस बात का लाभ उठाया और ओबीसी तबके को अपने साथ ऐसा जोड़ा कि उसके बाद जनता पार्टी, जनता दल, समाजवादी पार्टियां अब तक उसका लाभ उठाती आ रही हैं.

कांग्रेस ने ओबीसी से संवादहीनता की अब तक कतई परवाह नहीं की. यहां तक कि केंद्र में उत्तर भारत के तो ओबीसी नेता शायद ही कभी दिखाई दिए. कभी-कभार किसी को मौका दिया भी गया तो वह महत्वपूर्ण स्थिति में नहीं रहा. कभी कैबिनेट मंत्री रहे बेनीप्रसाद वर्मा को राज्य मंत्री बनाना तो ओबीसी और खासकर कुर्मियों को बुरी तरह खल गया. अब लगता है कि राहुल के सलाहकारों ने इस कमी को पकड़ा है.

कांग्रेस भी है सवालों के घेरे में

हालांकि, कांग्रेस इस मामले में कितनी गंभीर है, और उसे कितना गंभीरता से लिया जाएगा, इसका आंकलन तुरंत लगा पाना मुश्किल है, फिर भी इतना तय है कि कांग्रेस पर कई सवाल भी उठाए जाएंगे.

कांग्रेस पर सबसे बड़ा सवाल तो यही उठेगा कि वह ओबीसी की इतनी बड़ी समर्थक है तो मंडल आयोग की रिपोर्ट का उसने विरोध क्यों किया था. याद रहे कि राजीव गांधी ने मंडल रिपोर्ट के विरोध में लोकसभा में धुआंधार भाषण दिया था जो लोगों को अब भी याद है. एक और बड़ा सवाल ये भी है कि विभिन्न राज्यों में अपने शासन में उसने ओबीसी का 27 प्रतिशत कोटा ही कभी ईमानदारी से पूरा नहीं किया.

इतना ही नहीं, कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारों के रहते ही, ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण नहीं मिल पाया. मध्यप्रदेश में यह केवल 14 प्रतिशत है जो कि कांग्रेस की सरकार के जमाने से ही चल रहा है. यही स्थिति छत्तीसगढ़ की है. उत्तर भारत के राज्यों में मौजूदा समय में ओबीसी आरक्षण की जो स्थिति है उसके लिए मोटे तौर पर कांग्रेस को ही जिम्मेदार माना जाता है. सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ओबीसी आरक्षण को 27 प्रतिशत तक ले जाएगी. केंद्र में सवर्ण आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की सीमा तोड़े जाने के बाद ऐसा करने का रास्ता साफ हो गया है. कांग्रेस अगर ऐसा करती है तो ओबीसी मामलों में उसकी गंभीरता साबित हो जाएगी.

फर्क तो पड़ेगा

कांग्रेस इस सबके बावजूद अगर अपना ओबीसी कार्ड खेलती है तो फर्क तो पड़ना तय है. हो सकता है, इसका असर देशव्यापी हो जाए और रातोंरात उसकी स्थिति में सुधार आ जाए. एक संभावना यह भी है कि इस ओबीसी कार्ड से पैदा ज्वार को भाजपा की सरकार संभाल ही न पाए.

राहुल की इच्छा भी कुछ ऐसा ही करके, रातों-रात स्थिति सुधारने की लगती है. ऐसे में यह संभावना प्रबल बनी हुई है कि वो ओबीसी कार्ड खेल सकते हैं.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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