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खुद को छिन्न-भिन्न करने में लीन विपक्ष, मोदी को अजेय कर रहा, पर 2022 में यूपी ला सकता है ट्विस्ट

अगर भाजपा यूपी में नहीं जीतती है, या फिर मामूली अंतर से ही जीतती है, तो 2024 के लिए चुनावी मूड एकदम अलग होगा. पंजाब में कांग्रेस की वापसी, बीएमसी पर शिवसेना और सहयोगी दलों का कब्जा बरकरार रहना भी मोदी की राह और कठिन कर सकता है.

चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट

राजनीति की सबसे अच्छी बात यह है कि यह कभी ठहरती नहीं है. नहीं तो हम जैसे टीकाकारों को संन्यास लेने पर मजबूर होना पड़ेगा, या समय बिताने के लिए गोल्फ खेलना सीखना होगा. जो वैसे तो एक ही बात हो सकती है.

आइये सबसे पहले तो यह देखें कि क्या ठहर चुका है और क्या अभी भी उबल रहा है. अपने दूसरे कार्यकाल के लगभग आधे रास्ते पर पहुंच चुके नरेंद्र मोदी के दबदबे में स्थिरता आ चुकी है. यह निर्विवाद है. जो अभी उबलने के क्रम में है, वह है उनकी प्रमुख और स्थायी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी और यह सिर्फ पंजाब के बारे में नहीं है. ये दोनों ही कथन सही हैं, लेकिन असल कहानी कहीं ज्यादा जटिल है. यही भारतीय राजनीति को रुचिकर बनाती है.

सबसे पहले तो, क्या मोदी की अपराजेयता स्थिर और अभेद्य है, टाइटेनियम के सांचे में ढली हुई, जैसा हम पूर्व में कहते रहे हैं? ऐसा प्रतीत होगा यदि आप इसी प्वाइंट पर टिके रहते हैं. यहां तक कि इंडिया टुडे के नवीनतम मूड ऑफ द नेशन पोल, जिसे मोदी के लिए एक झटका माना जा रहा था, ने भी उन्हें लोकसभा में आधे के आंकड़े से थोड़ा ही पीछे रखा था. उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए सौ के करीब सीटों पर सिमटा नजर आ रहा है.

क्रिकेट की भाषा में राजनीति की बात करें तो यह किसी सामान्य खिलाड़ी के लिए किसी वन डे में 40वें ओवर में 2 विकेट पर 200 के स्कोर जैसा होगा और बाकी 30 रन आपको 60 गेंदों पर बनाने हैं. अपने 50 ओवर का खेल पूरा करें, और अपने घर में जमे रहें.

मोदी उस तरह के खिलाड़ी नहीं हैं, जो कि हमने हाल ही में उनकी गतिविधियों में दिखी, तेजी से स्पष्ट तौर पर महसूस किया है. ‘हर घर नल से जल’ कार्यक्रम को स्लीक, शॉर्ट, सोशल मीडिया फ्रेंडली वीडियो के साथ जोरशोर से प्रचार के अगले चरण में पहुंचा दिया गया है.

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अब ‘कूड़े के पहाड़’ हटाने के आह्वान के साथ ‘स्वच्छ भारत’ अभियान को भी 2.0 वर्जन में बदला जा चुका है. भारत के हर शहर में अपने-अपने अवांछित ‘हिमालय’ या ‘अरावली’ या ‘घाट’ वाले कूड़े के पहाड़ होते हैं. चूंकि हम दिल्ली को बेहतर जानते हैं, इसलिए कल्पना कर सकते हैं कि अगर भलस्वां और गाजीपुर के धुंधलके पहाड़ आंखों के सामने से हट जाएं तो इसका कितना असर पड़ेगा.

ध्रुवीकरण और पुलवामा ने तो मदद की लेकिन मोदी और अमित शाह जानते हैं कि 2019 में उनकी जीत जहां मतदाताओं की आकांक्षाएं न्यूनतम थी, में एक सबसे बड़ा फैक्टर रसोई गैस, ग्रामीण आवास सहायता, शौचालय और मुद्रा ऋण योजनाओं पर कुशलता से अमल किया जाना था. 2024 के लिए पानी और स्वच्छता को वे अपना वाहक बना रहे हैं. वे जानते हैं कि हमेशा की तरह सीमा पर किसी कार्रवाई, खासकर पाकिस्तान के साथ, के बजाये चीन को लेकर मौजूदा नई तस्वीर अंतिम चरण में राष्ट्रवादी भावनाओं में उछाल ला सकती है.


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विपक्ष की तरफ से कोई भी जमीनी स्तर पर मोदी की योजनाओं के प्रदर्शन पर सवाल नहीं उठा रहा है. कोई भी विपक्षी नेता या कार्यकर्ता गड़बड़ियों या घोटालों का पता लगाने, शिकायत करने वालों की सूची तैयार करने, उनकी आवाज बुलंद करने के लिए गांव-गांव की खाक नहीं छान रहा. कोई भी नहीं. विपक्षवाद तो बेचारे, संकटग्रस्त न्यूज मीडिया को आउटसोर्स कर दिया गया है. और यहां तक कि जब कोई साहस दिखाकर कुछ गड़बड़ियां उजागर करता है और पब्लिश करता है—जैसे बिहार में पेयजल योजना पर इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल—तो अखबार के अपने एडिटोरियल की वजह से पूरी स्टोरी दम तोड़ देती है. अगर नीतीश कुमार यूपीए-जदयू के मुख्यमंत्री होते और भाजपा विपक्ष में होती, तो वह इसे नीतीश का ‘चारा घोटाला’ बनाने की ही कोशिश करती.

आप जायज कारणों से यह पूछ सकते हैं कि यदि यह सब सच है तो क्या इससे यह साबित नहीं होता कि हमारी राजनीति में वास्तव में कहीं ठहर चुकी है? आइए इस परत को थोड़ा खोलें और देखें कि मैं खुद अपनी ही बात को काट क्यों नहीं रहा हूं.

बस कुछ और महीने, और 2022 के बसंत से पांच राज्यों में चुनाव प्रचार अभियान जोर पकड़ लेगा. अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में नहीं जीतती है, या फिर कम अंतर से ही जीतती है, तो यह कुछ ऐसा होगा कि आप लक्ष्य पर नजर रखते हुए आराम से खेल रहे हों और 40 से 42 ओवरों में अचानक चार विकेट गिर जाएं.य़ा फिर ये  2024 के मूड को भी बदल सकता है.

इसी तरह, जब हम राज्यों की बात करते है, जिसमें उत्तराखंड और मिजोरम जैसे छोटे राज्य भी शामिल हैं, तो हम किसी म्युनिसपलिटी की अहमियत को नजरअंदाज कर देते हैं. लेकिन बृहन्मुंबई नगर निगम महज म्युनिसपलिटी नहीं है. अगर शिवसेना और उसके सहयोगी दलों को हराकर भाजपा इसे जीत लेती है तो राज्य में महा विकास अघाड़ी की सरकार बैसाखी पर आ जाएगी.

भाजपा को तब भरोसा हो जाएगा कि भारत के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक राज्य (48 लोकसभा सीटें) को उसने अपने लिए सुरक्षित कर लिया है. लेकिन अगर शिवसेना बीएमसी में बाजी मार लेती है तो यह इस बात का संकेत होगा कि भाजपा विरोधी ताकतें महाराष्ट्र में उसके पूर्व सहयोगी के नेतृत्व में मजबूत हो रही हैं. यह 45वें ओवर में एक और विकेट गिरने जैसी स्थिति होगी.

भाजपा को कोई और बात इतना परेशान नहीं करेगी. लेकिन अगर कांग्रेस नेतृत्व पंजाब फिर से जीत लेता है तो गांधी भाई-बहन की तरफ से बड़े बदलावों और पार्टी की सफाई की कवायद को स्वीकार्यकता और सराहना मिलेगी. राजनीति में सब कुछ उसी का है जो खेल में जीते. किसी भी स्थिति में, चाहे जो भी कांग्रेस से बाहर चला जाए, गांधी परिवार के पास अपने लगभग 20 प्रतिशत मूल राष्ट्रीय वोट को बचाए रखने का एक बेहतर मौका होगा.

यह भाजपा के लिए बुरी खबर होगी. उसे पंजाब की परवाह नहीं है, लेकिन वह अब भी मानती है कि अगर कोई पार्टी विश्वसनीय तरीके से उसे चुनौती दे सकती है तो वह कांग्रेस ही है. कृपया ध्यान दें कि जिन राज्यों में कांग्रेस गिनती के नाम पर महज सिफर या फिर नगण्य ही रह गई है, वहां भी भाजपा के प्रचारक ज्यादातर कांग्रेस पर ही निशाना साधते हैं. यहां तक कि उत्तर प्रदेश, जहां मौजूदा हाल में कांग्रेस को दहाई के आंकड़े तक पहुंचने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, में भी वही योगी आदित्यनाथ का मुख्य निशाना है. यही हाल जम्मू-कश्मीर का है.


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हालांकि, अब यह संभव नहीं लग रहा, लेकिन पंजाब में जीत राहुल को वो दे सकती है जिसकी दो दशक की उनकी राजनीति में खासी कमी रही है, एक अदद चुनावी जीत. उत्तर प्रदेश की सफलता—2009 में लोकसभा की 21 सीटों पर जीत—ही उनकी एकमात्र स्पष्ट छाप बनी हुई है. उन्हें अब पंजाब में जीत की सख्त जरूरत है, कुछ और नहीं तो, उसे स्वीकार्यता मिलने के लिए जिसे आज व्यापक स्तर पर उनका नाराजगीपूर्ण, तर्कशून्य दखल माना जाता है.

लेकिन कांग्रेस अगर पंजाब को खो देने के अपने अथक और साहसिक प्रयास में सफल हो जाती है, और इसी तरह बिखरना जारी रखती है, तो वो पार्टी को पूरी तरह खत्म कर सकती है. क्योंकि मध्य प्रदेश में तो यह पहले से काफी कमजोर है, वहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी अपने ही मोल लिए खतरों के भंवर में फंसी है. 2022 के मुकाबले के निर्णायक चरण में भाजपा के लिए यह प्रतिद्वंद्वी की तरफ से 46वें ओवर में दो कैच छोड़ दिए जाने की तरह ही होगा.

अगर आपको लगता है कि मैं क्रिकेट और राजनीति को मिलाने में अति कर रहा हूं, तो आप इसके लिए इस तथ्य को दोष दे सकते हैं कि जब मैं यह सब लिख रहा हूं तब साथ में आईपीएल मैच भी देख रहा हूं. इसीलिए तो मैं इससे भी आगे जा सकता हूं. क्या होगा अगर कोई राजनीतिक दल एक स्पोर्ट फ्रेंचाइजी हो?

जैसा कि हम जानते हैं कि सबसे अधिक पैसे वाली फ्रैंचाइची को बेस्ट खिलाड़ी, कोच, प्रशिक्षक मिलते हैं. मैं सिर्फ मुंबई इंडियंस कह सकता था. लेकिन क्या होगा अगर कोई फ्रैंचाइज़ी हारती रहे, गुटबाजी में डूबी रहे और अपने प्रशंसकों को निराश और प्रायोजकों को हताश करती रहे?

फिर होता यह है कि खिलाड़ी, प्रशंसक और प्रायोजक तीनों कहीं और ही ध्यान देने लगते हैं. फ्रैंचाइजी या तो खरीद ली जाती है, या खुद ही खत्म हो जाती है. एक टीम अभी उसी स्थिति में नजर आ रही है, लेकिन मैं उसके नाम का उल्लेख नहीं करना चाहूंगा क्योंकि लीग अभी जारी है. मुझे तो बस उसकी पोशाक का गुलाबी रंग बहुत पसंद है.

वास्तव में अभी जो कुछ पक रहा है, वो है विपक्ष की राजनीति. राजनीतिक महत्वाकांक्षा कभी खत्म नहीं होती. भाजपा को भूल जाइए, उसके कट्टर विरोधी भी अब कांग्रेस को आसानी से अपने हाथ आ जाने वाली कमजोर फ्रेंचाइजी मानने लगे हैं. आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपना पूरा वोट सोख लिया है और अब पंजाब पर नजरें टिकाए है. मोदी की सबसे सफल और प्रतिबद्ध विरोधी ममता बनर्जी एक के बाद एक हर छोटे राज्य में अपनी पुरानी पार्टी के बचे-खुचे अवशेष जमा कर रही हैं. कल त्रिपुरा, आज गोवा, कल मेघालय. अब देखते हैं कि इस सबके बीच अमरिंदर और धीरे-धीरे बढ़ते समूह-23 के लिए कैसे जगह बनती है.

यह अविश्वसनीय है जिस तरह विपक्ष भाजपा के बजाये खुद को ही इतना ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है. एक-दूसरे को खत्म कर देने की इस उल्लेखनीय कवायद में वामपंथी (केरल में) और कांग्रेस (कन्हैया कुमार) भी एक-दूसरे के नेताओं को अपने खेमे में ला रहे हैं. चूंकि मैं अभी भी क्रिकेट की भाषा में तर्क के साथ यह लेख पूरा करना चाहता हूं, तो उस शानदार लाइन पर लौटता हूं (वह जॉन अरलॉट थे या राम गुहा?) जब अजीत वाडेकर की टीम इंडिया ने 1974 में लॉर्ड्स में 42 रन पर आलआउट होकर अपनी दूसरी पारी समेट दी थी. उन्होंने कहा था कि जब तीस के करीब स्कोर पर सात विकेट गिर चुके थे तब संकट की इस घड़ी में ‘एकनाथ सोलकर का अपना छक्का क्रिस ओल्ड के हाथों में थमा देना, सबसे ज्यादा बेतुका काम था.’

(इस लेख को अंग्रेजी को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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