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अर्थव्यवस्था में सुधार के आसार तो बन रहे हैं मगर घरेलू चुनौतियों से निपटे बिना उद्धार नहीं हो सकता

आम राय यही है कि बदतर दौर खत्म हो चुका है और गिरावट थम गई है. लेकिन मुख्यतः घरेलू कारकों के अधकचरे विश्लेषण के प्रति सावधानी बरतने की जरूरत है.

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चित्रण : अरिन्दम मुख़र्जी /दिप्रिंट

सरकार शायद ठीक ही कह रही है कि अर्थव्यवस्था अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच चुकी है. इस तिमाही के लिए आर्थिक वृद्धि के जो आंकड़े शुक्रवार को जारी किए गए हैं वे भी इसकी पुष्टि करते हैं. निवेश बैंकों से जुड़े अर्थशास्त्रीगण भी मोटे तौर पर इसका समर्थन कर रहे हैं. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन भविष्यवाणी कर रहे हैं कि अगले साल भारतीय अर्थव्यवस्था में थोड़ा सुधार आ सकता है. आम राय यही है कि बदतर दौर खत्म हो चुका है और गिरावट थम गई है. इसने सरकारी प्रवक्ता को यह कहने को प्रोत्साहित किया कि अर्थव्यवस्था वित्तीय क्षेत्र में परेशानियों के कारण एक चक्रीय गिरावट में फंस गई थी लेकिन अब वे परेशानियां खत्म हो रही हैं.

मुख्यतः घरेलू कारकों के इस अधकचरे विश्लेषण के प्रति हमें सावधानी बरतने की जरूरत है. बाकी दुनिया के साथ भारत के आर्थिक संबंध चाहे कितने भी कमजोर क्यों न हों, आर्थिक मोर्चे पर उसका प्रदर्शन वैश्विक रुझानों के अनुरूप ही रहता है, भले ही वह उससे एकदम कदम से कदम मिलाकर न चलती हो. इसलिए, नयी सदी के पहले दशक में भारत की तीव्र आर्थिक वृद्धि ने असाधारण वैश्विक वृद्धि को प्रतिबिम्बित किया, जो कि औसतन 4.2 प्रतिशत (विश्व बैंक के मुताबिक) रही. इसकी तुलना में, 2019 से पहले के पांच वर्षों में वैश्विक वृद्धि घट कर 2.8 प्रतिशत पर पहुंच गई. हाल के अधिकतर वर्षों में भारत की वृद्धि दर में भी तेज गिरावट आई है.

‘ब्रिक्स’ की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं की भी यही कहानी है, भले ही यह समान वर्षों की नहीं हो. रूस में ऊंची वृद्धि वाले वर्षों में वृद्धि 7 प्रतिशत रही लेकिन एकदम हाल के वर्षों में घटकर 1 प्रतिशत से भी कम हो गई. ब्राज़ील में काफी ऊपर-नीचे होता रहा है और वहां 2013 से पहले के चार वर्षों में वृद्धि दर 4 प्रतिशत रही लेकिन बाद में शून्य से भी नीचे चली गई. पिछले तीन वर्षों में वह महज 1 प्रतिशत के आसपास थी. चीन भी मंदी के कारण अपने सर्वोत्तम वर्षों वाली दर का आधा ही बनाए रख सका है और कोरोनावायरस के कारण यह दर और गिर सकती है.


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दूसरे उभरते बाज़ार भी ऐसी ही कहानी सुना रहे हैं. तुर्की सर्वश्रेष्ठ 8 प्रतिशत की दर से 5.5 प्रतिशत पर और पिछले दो वर्षों में 3 प्रतिशत पर आ गिरा है. जब अलग-अलग तरह की अर्थव्यवस्थाओं का यह हाल है कि वे ऊंचाई पर पहुंचने के बाद मामूली स्तर पर पहुंच गईं, तो हमें अंतरराष्ट्रीय खासकर उभरते बाज़ारों के रुझानों पर विशेष ध्यान देना होगा.

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चार बातें गौर करने की हैं. पहली यह कि कोरोनावायरस महामारी का खतरा पैदा कर रहा है, जिसका डर हर बाज़ार की चेतना में समा गया है. दूसरी बात यह है कि व्यापार की वैश्विक वृद्धि में मंदी आई है. विश्व व्यापार संगठन का कहना है कि वैश्विक व्यापार में वृद्धि उसी दर से होगी जिस दर से आर्थिक वृद्धि होगी, जबकि दो दशकों से व्यापार में वृद्धि विश्व अर्थव्यवस्था में वृद्धि की 40 प्रतिशत से ज्यादा की दर से हो रही थी. यह फर्क कुछ तो विभिन्न देशों के बीच टकराव और इसके फलस्वरूप संरक्षणवाद की वजह से तो आया ही है, कुछ दूसरी वजहों से भी आया है. व्यापार में जल्दी तेजी आने की कोई उम्मीद नहीं दिखती है.

तीसरी बात यह है कि विश्व बैंक ने उभरते बाज़ारों में उत्पादकता की वृद्धि दर में मंदी की ओर ध्यान दिलाया है. यह भारत में ज्यादा स्पष्ट रूप से दिखता है क्योंकि आर्थिक वृद्धि में गिरावट निवेश की दरों में गिरावट के मुक़ाबले ज्यादा आई है. दूसरे शब्दों में, भारत को आज वही वृद्धि दर हासिल करने के लिए पहले के मुक़ाबले ज्यादा निवेश की जरूरत है. एक पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार ने सुझाव दिया है कि भारत उन देशों में शामिल है जिसे संभावित झटकों से ज्यादा चोट पहुंच सकती है.


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इन सबके अलावा घरेलू स्तर पर बचत और निवेश की दरों को बढ़ाने, मानव संसाधन को सुधारने, कृषि में उत्पादकता (जो अंतरराष्ट्रीय स्तरों के बमुश्किल आधे पर है) को बढ़ाने, बिगड़ते वित्तीय दबाव का समाधान ढूंढने, सही नीतियों के द्वारा रोजगार के अवसर बढ़ाने, बाज़ार में सरकारी दखल को कम करने जैसी कई चुनौतियां हैं. चक्रीय कारकों के बावजूद सुधार की गति और गुणवत्ता इन भूले-बिसरे कामों को पूरा करने पर निर्भर करेगा. इसके बिना वृद्धि दर मौजूदा 5 प्रतिशत से नीचे के स्तर से ऊपर तो आ जाएगी लेकिन वह 6.6 प्रतिशत के दीर्घकालिक औसत से, जो कि अपने आप में अपर्याप्त है, नीचे ही रहेगी. यह बेशक असंतोषजनक हो, लेकिन मौजूदा वैश्विक संदर्भ में इसे भी एक नेमत ही माना जाएगा.

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