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हैबियस पोर्कस: ‘जेल नहीं बेल’ के सिद्धांत का कैसे हमारी न्यायपालिका गला घोंट रही है

हमारी स्वाधीनता की सुरक्षा करना न्यायपालिका की बड़ी ज़िम्मेदारी है और इसके लिए ‘हैबियस कॉर्पस’ की व्यवस्था का सहारा लिया जाता है लेकिन आज मजिस्ट्रेट इस तरह फैसले कर रहे हैं मानो नियम तो ‘जेल देने का ही है, बेल देना तो उनके ओहदे के दायरे से बाहर है’.

चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

जी नहीं, इस हफ्ते के स्तंभ का जो शीर्षक आप देख रहे हैं वह कोई टाइपिंग की गलती का नतीजा नहीं है. न ही इसे किसी ऐसे निरामिष व्यंजन के संदर्भ में इस्तेमाल किया गया है, जिससे कोई नफरत कर सकता है तो कोई उसका स्वाद ले सकता है. अगर यह फूहड़, सस्ता किस्म का लग रहा है, तो इसे इसी मकसद से दिया गया है. यह असली जिंदगी से लिया गया है ताकि एक ऐसे समय में एक अहम मुद्दा उठाया जाए, जब हमारी न्याय व्यवस्था की इस प्राचीन सूक्ति को उलट दिया गया है— ‘बेल यानी जमानत ही नियम है, जेल अपवाद है’.

आईपीसी के जानकार किसी क्राइम रिपोर्टर से पूछ लीजिए कि पुलिसवाले अपने जिले या राज्य में अपराध नियंत्रण के किस तरीके के बारे में निजी तौर पर बातें करते हैं जिसे दशकों से आजमाकर उसमें महारत हासिल की गई है. इस तरीके का नाम है अपराध की ‘बर्किंग’, क्योंकि अपराध पर काबू पाने के पुराने तरीके— पुलिसिया कार्रवाई, तफ्तीश, मुकदमा आदि उबाऊ हो गए हैं और उनसे मिलने वाले नतीजे अनिश्चित ही होते हैं. सबसे बुद्धिमानी इसी में है कि मामले यथासंभव कम से कम दर्ज किए जाएं. अपराध को काबू में करने का यह सबसे सुरक्षित और पक्का तरीका है. आपकी स्लेट चमकती नज़र आती है और इसके बाद तो आपकी वार्षिक ‘सीआर’ में सब जगह ‘असाधारण’ लिखा नज़र आता है.

इसी तरह, हमारी स्वाधीनता की सुरक्षा करना अगर न्यायपालिका की बड़ी ज़िम्मेदारी है, तो गलत तरीके से गिरफ्तार किया गया व्यक्ति अदालत से न्याय पाने के लिए ‘हैबियस कॉर्पस’ यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की सामान्य व्यवस्था में भरोसा कर सकता है. अगर उसकी अनुपस्थिति में आदेश जारी कर उससे इसे वंचित किया जाता है तो यह इस व्यवस्था को ही नहीं बल्कि अपराध की गिनती न करके उसके कम होने के पुलिस के दावे को भी दूषित करता है.

हाल के दशकों में किस संस्था का पतन हुआ है, पुलिस का या न्यायपालिका का, यह फैसला कर पाना एक चुनौती है. लेकिन आज अगर आप एक ऐसे शख्स हैं जिसे शासक वर्ग नापसंद करता है, तो वह आसानी से ऐसे पुलिस अधिकारी खोज ले सकता है जो आपके ऊपर आईपीसी की गंभीर धाराओं के तहत मामला दायर कर सकता है, भले ही उनके पास लेशमात्र (हमारे न्यायाधीश अपने आदेशों में इसकी जगह रत्ती भर शब्द का इस्तेमाल करते हैं) सबूत भी न हो.

फिर भी आप निश्चित ही यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे आपको मजिस्ट्रेट के सामने तो जरूर पेश करेंगे, जो आसानी से पकड़ लेगा कि पुलिस के मामले में सबूत तो ‘कोरोनिल’ जितना भी बारीक नहीं है. और जब मजिस्ट्रेट यह भांप लेगा तो उसका आदेश दिवंगत दिग्गज न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर की इस अमर सूक्ति के आधार पर ही होगा— ‘नियम तो बेल देना ही है, जेल भेजना नहीं.’

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लेकिन हमारी धारणा के विपरीत आज का सच तो यह है कि कृष्ण अय्यर की यह सूक्ति अमर नहीं है. इसे लगातार कत्ल करके दफन किया जाता रहा है और हाल में ऐसा तीन बार किया जा चुका है. न हो तो मुनव्वर फारूकी, नौदीप कौर, और दिशा रवि के मामले देख लीजिए. हमने इन तीन मुखर युवाओं का उदाहरण सोच-समझकर दिया है.


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एक के खिलाफ आरोप यह है कि वह ‘अंततः’ आपत्तिजनक चुटकुले सुनाने जा रहा था. इसलिए उसे ऐसा अपराध करने के इरादे के लिए जेल भेज दिया गया, जिसे कानूनदां ‘मेंस रिया’ (आपराधिक मनोवृत्ति) कहते हैं जिसमें अपराध वास्तव में किया नहीं गया. दूसरा मामला नौदीप का है, जिसके ऊपर हत्या की कोशिश करने के आरोप में आईपीसी की भयानक धारा 307 के तहत मामला दर्ज किया गया है. और तीसरा मामला तो और भी संगीन है, देशद्रोह का.

तीनों मामले में प्रथम मजिस्ट्रेट ने, जिससे एक नागरिक न्याय और अपनी स्वाधीनता की सुरक्षा की सबसे ज्यादा उम्मीद रखता है, मानो इस सिद्धांत पर कार्रवाई की कि नियम तो जेल भेजने का ही है, बेल यानी जमानत देना तो उसके ओहदे के दायरे से ऊपर की बात है.

नौदीप कौर को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने मूलतः इस आधार पर जमानत दी कि उसे धारा 307 लगाए जाने का कोई वास्तविक कारण नहीं नज़र आया. इससे पहले नौदीप ने जिले में जिन दो अदालतों का दरवाजा खटखटाया, उन्हें यह समझ में नहीं आया. इसलिए नौदीप को बेवजह 45 दिन जेल में रहना पड़ा. जाहिर है, कोई भी उन जजों से जवाब तलब नहीं करेगा, हाई कोर्ट भी नहीं.

फारूकी को जमानत देने से तीन बार मना कर दिया गया. यहां तक कि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने उसे उपदेश सुनाकर फिर जेल भेज दिया. गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट ने उसे मुक्ति दी. फिर भी उसे जेल में 36 दिन गुजारने पड़े. जेल में एक दिन भी गुज़ारना या आपकी स्वतंत्रता का हनन आपके ऊपर गहरा असर डालता है. फारूकी ने हमारे रिपोर्टर बिस्मी तस्कीन से जो कुछ कहा उसे पढ़िए तो पता चलेगा.

उसके साथ गिरफ्तार किए गए प्रभाकर व्यास और एडविन एंथनी को भी फारूकी के बराबर ‘न्याय’ देने के लिए अंतरिम जमानत देने से इनकार कर दिया गया. लेकिन दो अन्य, नलिन यादव और सदाकत को जमानत देने से कई बार मना कर दिया गया. हाई कोर्ट ने फारूकी के साथ नलिन की अर्जी को तीन बार खारिज किया, जबकि सदाकत की दूसरी अर्जी सुनवाई अदालत ने खारिज की. उसने कहा कि चूंकि फारूकी को अंतरिम जमानत मिली है इसलिए सदाकत को बराबरी की खातिर नियमित जमानत नहीं दी जा सकती. शुक्र है कि हाई कोर्ट ने शुक्रवार को इन दोनों को अंतरिम जमानत दे दी.

दिशा रवि को दिल्ली पुलिस ने शनिवार को बेंगलूरू में गिरफ्तार किया. उसे विमान से दिल्ली लाकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, जिन्होंने उसे पहले पांच दिन के लिए पुलिस हिरासत में भेज दिया और बाद में इसे दो दिन और बढ़ा दिया. उन्हें उसके खिलाफ लगाए गए देशद्रोह के आरोप के लिए पेश किया गया था. उन्हें सबूत ‘अधूरा और नाकाफी’ नहीं लगा, जो बाद में अतिरिक्त सेशन जज को लगा. उसके जमानत के आदेश में जज धर्मेंद्र राणा ने जो प्रेरक पंक्तियां लिखीं उनका हम स्वागत करते हैं और हमें जरूर करना चाहिए. लेकिन क्रूर सच्चाई यही है कि एक नागरिक को 10 दिनों तक स्वतंत्रता से वंचित रखा गया, सात व्यक्ति को पुलिस की कालकोठरी में और तीन को तिहाड़ जेल में रखा गया.

दिशा की राजनीति के बारे में अपने विचारों को आप भूल जाइए. एक नागरिक होने के नाते उसे भी कानून और संविधान से वही सुरक्षा पाने का अधिकार है, जो आपको-हमको है. दिल्ली पुलिस का दावा है कि उसकी गिरफ्तारी में उसने पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन किया, वह ठीक ही कह रही है. उसने स्थानीय पुलिस की मदद ली, कानून का पालन करते हुए 24 घंटे के अंदर दिशा को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया.

अब आप इसे दिशा के पक्ष से देखिए. उसे अचानक विमान में बैठा दिया जाता है, वकील की मदद नहीं लेने दी जाती, अदालत में पेश किया जाता है जहां वह अपनी पसंद का वकील नहीं रख सकती और अंततः उसे हिरासत में डाल दिया जाता है. मानो वह कोई दाऊद इब्राहिम हो. अब जरा सोचिए कि इस मजिस्ट्रेट ने वह किया होता, जो जज राणा ने 10 दिन बाद किया और उसे जमानत दे दी? दूर के किसी शहर की लड़की यहां अपनी जमानत लेने के लिए किसी आदमी को कैसे खड़ा कर सकती थी? और इस बात की व्यवस्था कौन करता कि वह उसी दिन बेंगलूरू लौट सके? ये सवाल न तो कोई दिल्ली पुलिस से पूछने वाला है, न मजिस्ट्रेट से.


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जिस सप्ताह हम इन तीनों को देर से मिली जमानत का स्वागत कर रहे थे उसी सप्ताह इलाहाबाद हाई कोर्ट से भी एक टिप्पणी आई. अमेज़न प्राइम वीडियो की इंडिया कंटेंट चीफ अपर्णा पुरोहित उस टीम की अगुआ भी हैं जिसने सैफ अली खान अभिनीत ओटीटी सीरीज़ ‘तांडव ’ प्रोड्यूस की है. उसे अब हिंदू देवी-देवताओं का कथित अपमान करने के आरोप में कई एफआईआर का सामना करना पड़ रहा है.

पुरोहित को जमानत देने से इनकार करते हुए हाई कोर्ट जज ने दिल दहलाने वाली टिप्पणी की कि ‘अर्जी देने वाली के काम बहुसंख्य नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, उसके जीवन तथा स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उसे जमानत नहीं दी जा सकती.’ अब आप अगर जमानत की अर्जी देने जा रहे हों तो अपनी सांसें रोक लीजिएगा.

यह सब हमें एक लोकतांत्रिक, संवैधानिक गणतंत्र में सिखाया जा रहा है जहां पहला सिद्धांत यही है कि हरेक व्यक्ति के अधिकार सर्वोपरि हैं. किसी समूह के दावों या अधिकारों के नाम पर नागरिक के नाते हमारे अधिकारों को खत्म नहीं किया जा सकता. लोकतंत्र में आपको संख्याबल के बूते सत्ता मिलती है. अगर न्याय भी संख्याबल के आधार पर मिलने लगा तो यह भीड़तंत्र होगा, जिसमें किसी को भी पकड़कर उसका गला घोंटा जा सकता है.

संभव है, अपर्णा पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल जाए. यह न्याय भी होगा और न्याय का उपहास भी होगा. क्योंकि, 2014 के अर्णेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों में गिरफ्तारी को लेकर सख्त कसौटी तय की थी जिनमें सात साल से कम की जेल की सज़ा देने का प्रावधान है.

अर्णेश कुमार पर आईपीसी की धारा 498-ए (दहेज उत्पीड़न आदि) लगाई गई थी और उन्हें गिरफ्तार किए जाने का डर था. उन्हें अंतरिम जमानत नहीं दी गई तो वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, जिसने उन्हें राहत दी और यह व्यवस्था भी दी कि जिस मामले में सात साल की जेल से कम की सजा का प्रावधान हो उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस अधिकारी को यह आश्वस्त होना पड़ेगा कि यह गिरफ्तारी दूसरा अपराध रोकने, सबूत को नष्ट किए जाने से बचाने या गवाहों को दबाव से बचाने के लिए की जा रही है.

इसके अलावा, गिरफ्तारी के लिए एक ‘चेक लिस्ट’ भी भरना पड़ेगा जिसमें गिरफ्तारी की वजह साफ-साफ लिखनी पड़ेगी और उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना पड़ेगा. ऊपर मैंने जिन मामलों का जिक्र किया है उनमें से मुनव्वर के मामले में तो इसका खुला उल्लंघन ही किया गया.

इसे उपहास ही माना जाएगा क्योंकि हर कोई, वास्तव में न्याय से इस तरह वंचित अधिकतर लोगों के पास ऊंची अदालत तक पहुंच पाने के साधन नहीं होंगे. अगर वे पहुंच भी पाए तो जेल में पहले ही कई हफ्ते बिता चुके होंगे. वास्तव में, अदालत अगर अर्णेश कुमार के मामले में बनाई गई सात साल की जेल वाली कसौटी पर ज़ोर भी दे तो पुलिस-राजनीति मिलीभगत इसकी परवाह नहीं करेगी. जिन्हें वे जेल में देखना चाहते हैं, भले ही कुछ सप्ताह के लिए हो, उनके लिए पसंदीदा हथियार है देशद्रोह का आरोप जिसके लिए उम्रकैद की सजा मुकर्रर है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. निष्पक्ष लेख और सटीक वर्तमान परिस्थितियों का ईमानदार विवेचन

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