होम मत-विमत एयरफोर्स में महिलाओं के पहले बैच को मैंने ट्रेंड किया, ‘गुंजन सक्सेना’...

एयरफोर्स में महिलाओं के पहले बैच को मैंने ट्रेंड किया, ‘गुंजन सक्सेना’ में काफी कुछ गलत दिखाया गया

महिला पायलटों का पहला बैच 1994 में जब येलहंका के एयरफोर्स स्टेशन पर पहुंचा, तो भारतीय वायुसेना ने उनके साथ कोई अलग व्यवहार नहीं किया था. जैसा कि 'गुंजन सक्सेना' में दर्शाया गया है.

फाइल फोटो: ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट(1994) में महिला पायलटों का पहला बैच/ फोटो: आई के खन्ना

वर्ष 1979 की बात है. एक मैं नवविवाहित युवा ‘पायलट ऑफिसर’ के रूप में अपनी पत्नी के स्वागत में आयोजित समारोह में शामिल होने जा रहा था. जैसा कि हमने अधिकारियों की मेस में प्रवेश किया, कमांडिंग ऑफिसर सहित सभी अधिकारी खड़े हो गए और तब तक खड़े रहे जब तक कमरे में सबसे जूनियर-ऑफिसर के साथ मौजूद मेरी पत्नी नहीं बैठी. यह सिर्फ मेरी पत्नी के स्वागत का तरीका नहीं था. मैं पहली बार एक ऐसी संस्कृति से रू-ब-रू हो रहा था जो महिलाओं का सम्मान करती है. भारतीय वायु सेना—आईएएफ–की यह परंपरा आज भी कायम है. और यह विश्वास करने का सवाल ही नहीं उठता कि गुंजन सक्सेना, या कोई अन्य महिला पायलट जोरआजमाइश का शिकार बनी, जैसा उन पर बनी फिल्म में दिखाया गया है.

गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल पर सोशल और प्रिंट मीडिया पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है. इसमें अधिकांश फिल्म की आलोचना कर रहे हैं. यह काफी हद तक सही है. इसका उद्देश्य फिल्म को और बदनाम करना नहीं है, जो नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो चुकी है, बल्कि भारत के लोगों को सैन्य सेवाओं में वर्दी या बिना वर्दी वाली महिलाओं को लेकर कायम मूल्यों के बारे में बताना जरूरी है.


यह भी पढ़ें: सीधी लड़ाई बीती सदी की बात, भारत के खिलाफ चीन ड्रोन, पीजीएम और हाई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करेगा


जमीन और हवा में बराबरी का दर्जा

जुलाई 1994 में मैं कुछ प्रशिक्षकों में से एक था, जब सात महिला पायलटों का पहला बैच प्रशिक्षण की शुरुआत के लिए आईएएफ के परिवहन विमान से येलहंका, बेंगलुरु स्थित वायु सेना स्टेशन पर पहुंचा. मीडिया में वैसा ही उत्साह था, जैसा अब है. लेकिन स्टेशन इन महिलाओं का उसी तरह स्वागत करने की तैयारी कर रहा था जिस तरह से वह प्रशिक्षु पुरुषों के एक बैच का करता. हां, चेंजिंग कम रेस्ट रूम जैसे कुछ छोटे-मोटे बदलाव किए गए थे. किसी को चेंज करने के लिए अपने कमरे में नहीं भागना पड़ा था जैसा गुंजन सक्सेना में दिखाया गया है. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं था कि पेशे के लिहाज से काम के दौरान महिलाओं के साथ उसी तरह व्यवहार होगा जैसा आईएएफ ट्रेनी पायलट के साथ होता है, सामाजिक स्तर पर एक महिला के रूप में, और बाकी हर जगह एक समान होने के भाव से. न तो उन्हें कोई सहूलियत दी गई और न ही किसी तरह की अपेक्षा ही की गई.

कुछ समय बाद, मेरी एक ट्रेनी कैडेट हरिता कौर देओल (बाद में फ्लाइट लेफ्टिनेंट हरिता देओल) अकेले उड़ान भरने वाली पहली महिला बनीं. मुझे आज भी वह दिन याद है. उसकी सोलो चेक वाली परफॉर्मेंस के बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा के जवाब में परीक्षक ने मेरी तरफ मुस्कुराकर देखा और एक बड़ा-सा थम्सअप किया. फ्लाइट लेफ्टिनेंट हरिता देओल ने 25 दिसंबर 1996 को एक दुखद और त्रासद हादसे में अपना जीवन राष्ट्र सेवा में कुर्बान कर दिया. मुझे उस पर हमेशा गर्व रहेगा. कोर्स के दौरान उसके तीन साथी अभी वाणिज्यिक पायलट हैं और एक नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) में फ्लाइट ऑपरेशंस इंस्पेक्टर है. उनमें से किसी से भी पूछ लीजिए, और वे आपको बताएंगे कि गुंजन सक्सेना सच्चाई से कितनी दूर है.


यह भी पढ़ें: नेटफ्लिक्स पर ‘गुंजन सक्सेना’ ने मेरी बेटियों की नज़र में मुझे एक मज़बूत महिला की छवि से बेचारी बना दिया


गलत समय पर गलत विषय चुना

किसी भी फिल्म के निर्माताओं के लिए व्यावसायिक सफलता हमेशा उनका प्राथमिक लक्ष्य होती है. ऐसा करने के लिए कुछ हद तक नाटकीयता, शायद, आवश्यक है. लेकिन क्या भारतीय वायुसेना जैसी संस्था की साख गिराने, यहां तक कि बदतर ढंग से पेश करने का अधिकार है? निश्चित रूप से नहीं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

ऐसे और भी कई सवाल हैं जो दिमाग में आते हैं. क्या फिल्म की स्क्रिप्ट भारतीय वायुसेना के साथ साझा की गई थी? यदि हां, तो क्या इसे मौजूदा स्वरूप में मंजूर किया गया और किसने स्वीकृति दी? खासकर ऐसे समय में जब भारतीय वायुसेना महिला पायलटों को युद्धक भूमिका में शामिल करने की दिशा में कदम बढ़ा रही है, इस तरह की फिल्म रिलीज होना गलत समय पर गलत विषय चुनने जैसा है.

येलहंका में महिला पायलटों के पहले बैच के प्रशिक्षण के दौरान एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता था जब मीडिया महिलाओं का साक्षात्कार करने और उन्हें प्रशिक्षण लेते देखने न पहुंचता हो.

उन्हीं दिनों की बात है जब हरिता की एक प्रशिक्षण उड़ान के दौरान मीडिया का कोई व्यक्ति हमारे साथ विमान में मौजूद था. जैसे ही मैं और हरिता विमान में पहुंचे, मैंने उससे कहा कि वह पत्रकार की अनदेखी करे और अपनी उड़ान पर ध्यान केंद्रित करे. उस दिन वह इंजन को उड़ान के दौरान ही बंद करने और इसे फिर चालू करना सीखने वाली थी. जैसे-जैसे प्रशिक्षक द्वारा प्रदर्शन के बाद अभ्यास आगे बढ़ा और उसने अपना अभ्यास दोहराया, मैं देख सकता था कि हरिता से ज्यादा पसीना तो पत्रकार को आ रहा था.


यह भी पढ़ें: पीएलए का अधिक ज़ोर साइबर एवं इलेक्ट्रॉनिक युद्ध होगा, भारत को इससे निपटने के लिए इनोवेशन का सहारा लेना होगा


भारतीय वायुसेना में नहीं

लिंगभेद सदियों से भारतीय समाज का हिस्सा रहा है, लेकिन पिछले कई दशकों से महिलाएं रक्षा सेवाओं में कई क्षेत्रों का हिस्सा रही हैं. विमानन, जैसा कहा जाता है, और खासकर भारतीय वायुसेना व्यापक स्तर पर लोगों के लिए एक पहेली है. लुईस थाडेन ने 1938 में लिखा था, ‘किसी महिला को पायलट बनाए जाने के खिलाफ आम जनता द्वारा निश्चित तौर पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया जाता है, यही वजह है कि इस मामले में उन कंपनियों के अधिकारियों का रुख अपेक्षाकृत कम भेदभाव वाला कहा जा सकता है, जिनकी गतिविधियों के लिए पायलटों की आवश्यकता होती है.’

बाकी निश्चिंत रहें, भारतीय वायुसेना कभी वैसा पूर्वाग्रह नहीं रखती थी जैसा गुंजन सक्सेना आप को दिखाना चाहती है.

(लेखक चार दशक तक उड़ान का अनुभव रखने वाले पूर्व वायु सैनिक हैं. वह वर्तमान में ब्लू डार्ट एविएशन लिमिटेड के फ्लाइट ऑपरेशंस प्रमुख हैं. विचार निजी है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

Exit mobile version