होम मत-विमत अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए सरकार को ढांचागत बदलाव करने पड़ेंगे

अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए सरकार को ढांचागत बदलाव करने पड़ेंगे

विविध श्रम क़ानूनों को चार संहिताओं में सीमित करना ही काफी नहीं है. संहिताओं के अंदर बदलाव किए बिना केवल संख्या तय करने या घटाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

चित्रण : अरिन्दम मुख़र्जी / दिप्रिंट

आज जबकि मांग की ऐसी कमी देखी जा रही है, जैसी हमारी अर्थव्यवस्था ने पहले कभी नहीं देखी थी. कई विशेषज्ञ कई तरह की व्याख्याएं और समाधान पेश करेंगे. यहां इस बहस में एक छोटा-सा योगदान देने की कोशिश की जा रही है. भारतीय उपभोक्ता गले तक कर्ज़ में डूबे हैं.(देखें 25 मई का यह स्तम्भ). उन्हें जो ईएमआइ भरना पड़ रहा है. वह उनके घर में पहुंचने वाले वेतन का बड़ा हिस्सा हड़प ले रहा है क्योंकि वे जो कुछ उपभोग कर रहे हैं. उसका बड़ा हिस्सा कर्ज़ के पैसे से आया है. इससे भी बुरी बात यह है कि लोग उन कर्ज़ों के ईएमआइ का भुगतान कर रहे हैं जो वर्षों से अधूरे पड़े लाखों मकानों को खरीदने के लिए लिये गए थे.

दूसरा, नीची मुद्रास्फीति के प्रभावों पर भी विचार कीजिए. वेतनवृद्धि कम हो रही है. इसलिए ईएमआइ का बोझ हल्का होने की जो सुविधा पहले थी वह खत्म हो गई है. फिर, ब्याजदरों में कमी आने के कारण लोग बुढ़ापे की खातिर ज्यादा बचत करने की जुगत में खर्चे कम कर रहे हैं. तीसरी वजह है ऋणात्मक संपदा. जमीन-जायदाद के दाम 25 फीसदी से ज्यादा गिर गए हैं. शेयर बाज़ार सूचकांक भी पिछले साल के मुक़ाबले गिर गया है और कई म्यूचुअल फंड ऋणात्मक नहीं, तो मामूली लाभ दे रहे हैं. जब लोग गरीबी महसूस करने लगते हैं तो खर्चे कम कर देते हैं.


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चौथी बात यह है कि रोजगार का ढांचा बदल गया है, क्योंकि कामगारों में महिलाओं का अनुपात घट गया है. इसके चाहे जो भी कारण हों (महिलाएं अब पढ़ाई पर ज्यादा समय दे रही हैं, कुलीनों का वर्चस्व, आने-जाने के दौरान असुरक्षा, काम की कमी), परिवारों में रोजगार में लगे वयस्कों की संख्या घट गई है. इससे परिवार की आमदनी निश्चित ही घटी है. पांचवीं बात यह है कि लोगों की जीने की उम्र बढ़ने का भी असर हो रहा होगा. 60 से ऊपर की उम्र वालों की आबादी कुल आबादी वृद्धि की दर की दोगुनी दर से बढ़ रही है (एक दशक पहले की 35 प्रतिशत से अब यह ज्यादा हो गई है). इसके चलते परिवार पर बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य को लेकर होने वाले खर्चे बढ़े हैं. जरा गौर कीजिए कि परिवार पर मकान, वाहन, उपभोक्ता सामान, शिक्षा आदि से इतर कारणों से लिये जाने वाले कर्ज़ में कितनी तेजी से वृद्धि हुई है (2017-18 तक के पिछले चार वर्षों में इसमें 154 फीसदी की वृद्धि हुई थी). इनमें से कुछ कर्जे शादियों या दूसरे सामाजिक आयोजनों के लिए लिये गए होंगे. लेकिन कुछ कर्ज़ मेडिकल बिल की वजह से जरूर लिये गए होंगे.

छठी वजह वह है जिसका जिक्र पिछले दिनों रथिन राय ने ने बताया कि सामान और सेवाओं की ज़्यादातर मांग छोटे-से ऊपरी तबके में से ही उठती है. लेकिन वह तबका उतना छोटा भी नहीं है, जितना वे बताते हैं. क्योंकि यह उपभोक्ता तबका कुल आबादी का 30-35 प्रतिशत है. 2011 की जनगणना ने दर्शा दिया है कि 24.6 करोड़ घरों में से 21 फीसदी के पास पावर वाला दोपहिया है. यह प्रतिशत आज और बढ़ ही गया होगा क्योंकि हर साल 6 फीसदी घरों में- 2017-18 में इनकी संख्या 1.7 करोड़ थी. दोपहिया वाहन खरीदा जा रहा है. केवल कुछ ही घरों में पुराने की जगह नया खरीदा जा रहा होगा. फिर भी, रथिन राय का यह कहना सही है कि उपभोक्ता तबका पर्याप्त तेजी से नहीं बढ़ रहा है. इसकी एक वजह यह हो सकती है कि सरकार श्रम-आधारित मैनुफैक्चरिंग (जिसमें केवल न्यूनतम वेतन से ज्यादा स्थायी वेतन मुहैया कराने की क्षमता है) निम्न-मध्यवर्ग में खर्च करने वाला बड़ा तबका नहीं पैदा कर सकी है. नीची उत्पादकता और इस वजह से नीची आय वाली फौरी अर्थव्यवस्था कोई विकल्प नहीं है.

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अंत में, कृषि में बदलाव आ रहा है. किसान घरेलू बाज़ार में होने वाली खपत से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं. अतिरिक्त उत्पादों के लिए निर्यात की गुंजाइश न होने से घरेलू मांग और सप्लाई में आ रहे असंतुलन के कारण कीमतों पर दबाव बढ़ा है और इसके कारण कृषि से आय सीमित हुई है, बावजूद इसके कि उत्पादन बढ़ा है (इसके साथ ऊंची लागत और कीमतों में ज्यादा अंतर के कारण बढ़ती अनिश्चितता भी पैदा होती है). अगर श्रम-आधारित मैनुफैक्चरिंग कामयाब होती और वह लोगों को खेतों से कारखानों की तरफ खींचती तो कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या कम होती.


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इसलिए बात उन परिवर्तनों पर आकर टिकती है, जिनसे मजदूरी-आधारित मैनुफैक्चरिंग (श्रम कानूनों में सुधार, रुपये की प्रतिस्पर्धी कीमत, कुशल बुनियादी ढांचा, सप्लाइ-चेन का विकास आदि) को बढ़ावा मिले. सरकार ने इनमें से कुछ के बारे में अपना एजेंडा तय किया है. लेकिन, अगर एक उदाहरण लें- विविध श्रम क़ानूनों को चार संहिताओं में सीमित करना ही काफी नहीं है. संहिताओं के अंदर बदलाव किए बिना केवल संख्या तय करने या घटाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के दबाव में सरकार फौरी उपायों का सहारा ले सकती है. यह समझ में तो आता है, लेकिन किसी मुगालते में काम करने की जरूरत नहीं है. ढांचागत बदलाव के बिना टिकाऊ आर्थिक वृद्धि की रफ्तार ढीली ही रहेगी.

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