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वित्तीय हालत बिगड़ रही- Fiscal Deficit के लक्ष्यों को छोड़ ‘अर्थशास्त्र’ को पारदर्शी बनाए सरकार

इस साल के बजट में वित्तीय घाटा जीडीपी के 3.5 प्रतिशत के बराबर रहने का अनुमान लगाया गया था मगर कोरोना महामारी और लॉकडाउन के प्रभावों के चलते यह संभव नहीं दिख रहा है.

रमनदीप कौर | दिप्रिंट

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इस सप्ताह जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सरकार की वित्तीय हालत की चिंताजनक तस्वीर पेश की है. सरकार की वित्तीय स्थिति 2019-20 में भी कमजोर ही थी और चालू वर्ष में भी कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते आर्थिक कारोबार अस्त-व्यस्त होने के कारण यह स्थिति और विकट ही हो जाने की संभावना है. जाहिर है, सरकार को चालू वर्ष में अपने राजस्व और वित्तीय स्थिति का पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत पड़ेगी.

वित्तीय स्थिति

2019-20 में अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती के कारण वित्तीय स्थिति कमजोर हो चुकी थी. अनुमान था कि वित्तीय घाटा जीडीपी के 3.5 प्रतिशत के बराबर रहेगा. फरवरी में बजट पेश करते समय वित्त मंत्री ने वित्तीय घाटे के लक्ष्य में इसके बजटीय अनुमान के मुक़ाबले अंतर आने की घोषणा की थी.

‘एफआरबीएम एक्ट’ की धारा 4(3) में वित्तीय घाटे के लक्ष्य में कुछ परिस्थितियों में जीडीपी के आधे प्रतिशत तक का अंतर करने का प्रावधान किया गया है. ऐसी परिस्थितियों में उन ढांचागत सुधारों को भी शामिल माना गया है जिनके वित्तीय प्रभाव हो सकते हैं. वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार ढांचागत सुधारों के लिए वित्तीय घाटे के लक्ष्य से अलग जा रही है. 2019-20 के लिए वित्तीय घाटे के लक्ष्य में सुधार करके उसे जीडीपी के 3.8 प्रतिशत के बराबर किया गया.

कमजोर आर्थिक वृद्धि के कारण राजस्व का लक्ष्य पूरा नहीं पाया. कंट्रोलर जनरल ऑफ एकाउंट्स (सीजीए) के आंकड़े बताते हैं कि 2019-20 के लिए वित्तीय घाटा जीडीपी के 4.6 प्रतिशत के बराबर हुआ. बजट के लक्ष्य से 1.3 प्रतिशत की जो कमी आई वह मुख्यतः टैक्स से आय में कमी के कारण थी. 2019-20 में आर्थिक वृद्धि की दर गिर कर 4.2 प्रतिशत पर आ गई थी.


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फरवरी 2020 में जब केंद्रीय बजट पेश किया गया तब चालू वर्ष में वित्तीय घाटा जीडीपी के 3.5 प्रतिशत के बराबर निश्चित किया गया. यह भारत में कोरोना महामारी के शुरू होने से पहले की बात है. यह भी ‘एफआरबीएम एक्ट’ के तहत वित्तीय घाटे की जो दिशा निर्धारित की गई थी उससे विचलन ही था. इस दिशा के तहत वित्तीय घाटे को 31 मार्च 2012 तक जीडीपी के 3 प्रतिशत के बराबर होना था.

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इसके लगभग ठीक बाद महामारी ने भारत पर हमला कर दिया और देश में लॉकडाउन हो गया. इसके कारण आर्थिक कारोबार में भारी गिरावट आ गई, जिसके कारण करों में कटौती आनी ही थी और राहत कार्यों के लिए सरकारी खर्चों में वृद्धि आनी ही थी.

इस स्थिति में, 3.5 प्रतिशत के वित्तीय घाटे का लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन है. सरकार ने पहले ही 4 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त उधार लेने की घोषणा कर दी है. इस तरह 2020-21 में उस पर कुल 12 लाख करोड़ का उधार हो जाएगा. उधार में इस बढ़ोत्तरी के कारण ही वित्तीय घाटा जीडीपी के करीब 5.3 प्रतिशत के बराबर पहुंच जाएगा. यह आंकड़ा इस धारणा पर आधारित है कि जीडीपी में 10 प्रतिशत की सांकेतिक वृद्धि होगी, जिसकी संभावना कम ही है. जीडीपी सिकुड़ेगी, तो निम्नस्तरीय डिनोमिनेटर का अर्थ होगा ऊंचा वित्तीय घाटा अनुपात.

धारणाओं पर पुनर्विचार जरूरी

2020-21 के लिए वित्तीय घाटे का लक्ष्य जिस धारणा के तहत तय किया गया था उस धारणा पर पुनर्विचार की जरूरत है. एक प्रमुख लक्ष्य यह भी था कि विनिवेश से 2.1 लाख करोड़ रु. जुटाए जाएंगे, जो कि 2019-20 में जुटाई गई रकम से चार गुना थी. विनिवेश योजना का एक तत्व यह है कि जीवन बीमा निगम के आईपीओ से 90.000 करोड़ रु. की रकम जुटाई जाएगी. मौजूदा हालात में यह चुनौतीपूर्ण लगता है, हालांकि इस आईपीओ के लिए प्रक्रिया शुरू हो गई है.

इसके अतिरिक्त टैक्स से राजस्व में कमी आएगी. पहली तिमाही के आंकड़े पहले ही राजस्व में भारी कमी दर्शा रहे हैं. सरकार ने अतिरिक्त राजस्व के लिए पेट्रोल, डीजल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी है.

खर्चे घटाने के उपाय (मसलन सरकारी कर्मचारियों के अतिरिक्त डीए पर 18 महीने की रोक) कुछ वित्तीय राहत दे सकते हैं. फिर भी, निश्चित है कि बजट में घोषित वित्तीय घाटे का लक्ष्य काफी दूर रह जाएगा.

ऊंचे वित्तीय घाटे का अर्थ यह है जीडीपी के मुक़ाबले सरकार के उधार का अनुपात बढ़ेगा. ‘एफआरबीएम एक्ट’ के मुताबिक, यह अनुपात 2024-25 तक जीडीपी के 40 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए और केंद्र तथा राज्य सरकारों का यह संयुक्त अनुपात 60 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए. अनुमान है कि चालू वर्ष में जीडीपी-उधार अनुपात 10 से 12 प्रतिशत के बीच रहेगा.

उधार का बोझ भारी होगा तो अतिरिक्त खर्च करके आर्थिक मजबूती लाने की सरकार क्षमता कमजोर होगी. ऐसे में ‘एफआरबीएम’ के लक्ष्यों को आगे के लिए टालना पड़ेगा.

विश्वव्यापी समस्या

महामारी के अप्रत्याशित हमले के कारण दुनिया के तमाम देशों की सरकारें अपनी वित्तीय स्थिति को लेकर ऐसे ही झटके झेल रही हैं. उभरते बाज़ारों में वित्तीय घाटा एक तरह से बढ़ता जा रहा है. ब्राज़ील, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका, और कोलम्बिया जैसे देश कोरोना महामारी के पहले से ही उधार को लेकर मुश्किलों का सामना कर रहे थे. अब वित्तीय घाटे और उधार के बोझ का और भी बुरा नतीजा सामने आएगा और नयी समस्याएं पैदा होंगी. उदाहरण के लिए, अनुमान है कि कोरोना के कारण उभरीं वित्तीय चुनौतियां ब्राज़ील के लिए उधार के मोर्चे पर समस्याएं पैदा करेंगी, तुर्की को भुगतान संतुलन के मोर्चे पर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, कोलम्बिया और दक्षिण अफ्रीका को रेटिंग में गिरावट के कारण दबाव झेलना पड़ेगा.

ऐसा लगता है कि भारत में अगले राहत पैकेज की घोषणा तभी की जाएगी जब इस महामारी के घटने के संकेत उभरेंगे. इसके साथ ही, सरकार को चालू वर्ष में अपनी कमाई और खर्चों का यथार्थपरक आकलन करना होगा. वैसे, स्थिति में अगर सुधार होता है तो उसके मुताबिक आकलन में भी परिवर्तन तो होना ही चाहिए लेकिन हर कदम पर पारदर्शिता रहेगी तो भारत सरकार के बॉन्ड मार्केट में ज्यादा भरोसा पैदा होगा.

(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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