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जनरल रावत केवल सुधारक नहीं बल्कि परिवर्तनकर्ता थे— एक मुखर आलोचक की श्रद्धांजलि

हर एक सैनिक की तरह जनरल रावत भी इस बात को समझते थे कि आलोचना कभी व्यक्तिगत नहीं होती, वह प्रोफेशनल होती है. जब मैंने उनकी आलोचना की तो उन्होंने मुझे पत्र लिखा.

बिपिन रावत/ फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/ दिप्रिंट

आठ दिसंबर 2021 को एक दुखद हेलिकॉप्टर हादसे में भारत ने अपने प्रथम चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत, पीवीएसएसएम, एवीएसएम, वाइएसएम, एसएम, वीएसएम को खो दिया. इस हादसे ने उनकी पत्नी मधुलिका रावत और सेना के 12 अधिकारी/सैनिक/वायुसैनिक की भी जान ले ली. हादसे में जीवित बचे एक मात्र व्यक्ति, बुरी तरह घायल ग्रुप कैप्टन वरुण सिंह, एससी ने 15 दिसंबर को दम तोड़ दिया. यह एक अकथनीय त्रासदी है. हर बार जब कोई सैनिक शहीद होता है तो यह राष्ट्रीय शोक का विषय होने के साथ साथ, सेना में रहे हम जैसे लोगों के लिए, जो उनके साथ एक परिवार की तरह जीते और लड़ते रहे हैं, यह अकल्पनीय दुख का कारण होता है.

जनरल रावत एक परिवर्तनवादी सेना अध्यक्ष थे, जो हमारी सेना को 21वीं सदी की लड़ाइयों और जंग के लिए तैयार करने की कोशिश में जुटे थे. भारत के प्रथम सीडीएस के तौर पर उन्होंने तीनों सेनाओं के एकीकरण और उनमें परिवर्तन लाने के काम को आगे बढ़ाया. आज मैं जनरल रावत के सम्मान में लिख रहा हूं— एक व्यक्ति के प्रति, और परिवर्तन की उनकी विरासत के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए लिख रहा हूं, जिनका मैं पक्का प्रशंसक भी रहा हूं और शायद सबसे मुखर आलोचक भी रहा हूं और खामियों की ओर इशारा करते हुए उन्हें दुरुस्त करने की याद दिलाता रहा हूं. जिन्हें आप निजी तौर पर जानते हैं, जिनका आदर करते हैं, और सबसे बढ़कर जिन्हें आप इस दुनिया से अपने पहले विदा होते नहीं देखना चाहते उनके बारे में लिखना बहुत मुश्किल होता है. इसलिए आपसे अनुरोध है कि मेरे लेखन को बर्दाश्त कीजिए.

रावत, एक शख्सियत

जनरल रावत को मैं 43 वर्षों से यानी 1978 से जानता हूं, जब वे इंडियन मिलिटरी अकादमी में एक कैडेट थे और मैं एक कैप्टन के रूप में उनका इंस्ट्रक्टर था. हम एक ही बटालियन में थे हालांकि वे सीधे मेरी प्लाटून में नहीं थे. फिर भी मुझे थियरी और फील्ड ट्रेनिंग के दौरान हर दिन उन पर करीबी से नज़र रखने का मौका मिला था. उनकी क्षमता और उनका नेतृत्व कौशल जाहिर था. बेस्ट ऑल राउंड कैडेट के रूप में उन्होंने प्रतिष्ठित ‘सोर्ड ऑफ ऑनर’ हासिल किया था. इतने वर्षों में हम अक्सर एक-दूसरे से टकराते रहे और मैं उन्हें एक प्रोफेशनल के रूप में शक्तिशाली से शक्तिशाली होता देख रहा था.

2007-08 में हम नॉर्दर्न कमांड में साथ-साथ थे, जहां वे राष्ट्रीय राइफल्स के सेक्टर कमांडर थे और मैं आर्मी कमांडर था. जनरल (जो उस समय ब्रिगेडियर थे) जटिल अलगाववादी समस्या के प्रति काफी पेशेवर और सूक्ष्म नजरिया रखते थे. प्रथम सीनियर कमांडर की भूमिका में वे मुझे आत्मविश्वास से भरे, चीजों को अपने काबू में रखने वाले, और दिखावा आदि से दूर रहने वाले कमांडर दिखे. उन्हें शिखर पर पहुंचना ही था.

बराबर वालों में से योग्यता के आधार पर जब उन्हें सेना अध्यक्ष के पद के लिए चुना गया था तब हमें उनसे बड़ी उम्मीदें थीं. जब वे सेनाध्यक्ष का पदभार संभालने वाले थे उससे दस दिन पहले, 21 दिसंबर 2016 को मैंने ‘न्यूजलाउंड्री’ में लिखा था— ‘सर वाल्टर स्कॉट ने ‘द लेडी ऑफ द लेक’ में लिखा है, ‘उस चीफ की जय-जयकार करो, जो जीत के बूते आगे बढ़ता है.’ ले.जनरल बिपिन रावत के लिए भी हम यही कहते हैं… हम उनकी जय-जयकार करते हैं, उन्हें सलाम ठोकते हैं और उनका समर्थन करते है कि अगले तीन साल वे भारतीय सेना का नेतृत्व करें और भारत की बाहरी तथा आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करें; बेहद जरूरी संरचनात्मक, सांगठनिक, नैतिक तथा मानव संसाधन विकास संबंधी सुधारों को लागू करें; सरकार को उच्च स्तरीय रक्षा प्रबंधन में सुधार के लिए प्रेरित करें; वह राष्ट्रीय सुरक्षा की औपचारिक रणनीति तैयार करें और फोर्स डेवलपमेंट स्ट्रेटेजी तैयार करे. ये सब बहुत ऊंची बातें हैं लेकिन हमें उम्मीद है कि वे संकल्पबद्ध रहेंगे और कामयाब होंगे.’

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वे संकल्पबद्ध बने रहे और मेरी अपेक्षा से ज्यादा उन्होंने पहले थलसेना को और फिर सीडीएस के रूप में तीनों सेनाओं को बदलने पर एकाग्रचित्त होकर काम करते रहे. जब बागडोर उनके हाथ में थी, तब मैं सैन्य मामलों के एक विश्लेषक के रूप में खास तौर से बदलाव को लेकर कड़ी आलोचना कर रहा था. लेकिन इससे हमारा आपसी आदर भाव प्रभावित नहीं हुआ. सेनाध्यक्ष के रूप में उन्होंने मुझे पूरा ब्योरा लिखकर दिया कि वे क्या सुधार कर रहे हैं और इसके साथ मेरी शंकाओं को दूर करने के लिए अपने हाथ से लिखा दो पेज का व्यक्तिगत नोट भी लिखा और मुझे मेरे इन शब्दों की याद दिलाई कि ‘परिवर्तन लाने वाले नेताओं को अंदर और बाहर से घोर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है इसलिए उन्हें अथक प्रयास करते रहना चाहिए.’

सभी सैनिकों की तरह जनरल रावत भी इस बात को समझते थे कि आलोचना कभी व्यक्तिगत नहीं होती, वह प्रोफेशनल होती है; क्योंकि जिसने काम किया है, काम कर रहा है, झटकों को झेला है और अपने साथियों को जंग में परास्त होते देखा है, बदलाव के लिए उससे ज्यादा प्रतिबद्ध और कौन हो सकता है. सैन्य मामलों में बदलाव के पीछे दोहरी प्रेरणा काम करती है—राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने की और हताहतों की संख्या कम करने की— इसलिए हर बात को नकारने वाले और बदलाव को चुनौती देने वाले अथवा इसकी आलोचना करने वाले इस बुनियादी बात को बड़ी आसानी से भूल जाते हैं.


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परिवर्तनकर्ता

जनरल रावत एक परिवर्तनकर्ता थे, केवल सुधारक नहीं. परिवर्तन सेना को भविष्य की लड़ाई/जंग के लिए तैयार करता है, जबकि सुधार उसे चालू युद्ध को बेहतर तरीके से लड़ने के लिए तैयार करता है. जनरल कृष्णस्वामी ‘सुंदरजी’ सुंदरराजन ने 1980 के दशक में सेना में सुधार किया ताकि वह 20वीं सदी के संपूर्ण पेंचीदा लड़ाई को कुशलता से लड़ सकें. हमारी सेना 20वीं सदी के अंत तक इस युद्ध कला में पारंगत हो चुकी थी लेकिन इसके बाद वह त्रिशंकु की तरह अटक गई जबकि दुनिया भर की सेनाएं 21वीं सदी की बेहद अल्पकालिक, सघन, और परमाणु युद्ध की छाया से ग्रस्त अत्याधुनिक तकनीक वाली लड़ाई/जंग की तैयारी में जुट गई थीं.

जनरल रावत के ही शब्दों में उनकी कल्पना यह थी— ‘मैं साफ कर दूं अगला युद्ध हम उस तरह से नहीं लड़ सकते जिस तरह पिछला युद्ध लड़ा था… युद्धकला का स्वरूप बदल रहा है इसलिए हमें भी बदलना ही होगा. आधुनिक टेक्नॉलजी का उपयोग करके नये ढांचे तैयार करने होंगे. आगे का रास्ता यही है. ये बदलाव, सुधार रातों-रात नहीं हो जाएंगे मगर वे होकर रहेंगे.’ सार यह कि वे ‘सैन्य मामलों में क्रांति’ लाने की कोशिश में जुटे थे, जो चीनी सेना समेत सभी आधुनिक सेनाएं ला चुकी हैं.

जनरल रावत को सेना में परिवर्तन लाने में मुश्किल और जटिल माहौल का सामना करना पड़ा. हमारी सरकार कभी औपचारिक रणनीतिक समीक्षा नहीं करती, और उसने कभी एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, परिवर्तन की रणनीति और सैन्य बल विकास की रणनीति को ठोस स्वरूप नहीं दिया. सरकार शायद ही कोई राजनीतिक दिशा देती है; और परिवर्तन अथवा सुधार की प्रक्रिया को न तो अपनाती है, न उसका समन्वय करती है और न उसमें भाग लेती है. ‘आधुनिकीकरण’ शब्द का ढीलाढाला इस्तेमाल पिछली जंग लड़ने के लिए तैयार की गई मौजूदा सेना के धीरे-धीरे तकनीकी सुधार के लिए किया जाता है. घटता रक्षा बजट, जो जीडीपी में प्रतिशत के लिहाज से 1962 के बाद का न्यूनतम बजट है, किसी विशेष काम के लिए फंड देने की गुंजाइश नहीं छोड़ता. सेना स्वभाव से ही यथास्थितिवादी होती है और बदलाव का प्रतिरोध करती है. इस व्यवस्थागत दलदल में पहले भी बड़े सुधार फंस चुके हैं या कमजोर किए जा चुके हैं.

जनरल रावत ने इस माहौल को समझा और काम करने वाला होने के नाते व्यावहारिक रुख अपनाया. सेनाध्यक्ष के रूप में भी और सीडीएस के रूप में भी उन्होंने वह सपना देखा जो सरकार को देखनी चाहिए थी, और उस सपने को नियति बनाने की उम्मीद की, जिसे वह कबूल कर ले और परिवर्तन को अपना ले. इसलिए कभी-कभी ऐसा लगता था कि वे राजनीतिक नीति निर्माण के दायरे में दखल दे रहे हैं, इसलिए आलोचना को बुलावा भी देते थे.

वे एक ऐसे अगुआ थे जो जल्दी से जल्दी दुनिया की बराबरी करना चाहते थे. अपनी नेतृत्व शैली के कारण और व्यवस्थागत जड़ता को तोड़ने के लिए जनरल रावत ने सेना में सुधारों को लागू करने के लिए ‘आक्रामकता’ का रुख अपनाया. इसके कारण बड़े सुधारों में युद्ध के सिद्धान्त, सरकारी नीति और कानून के लिहाज से अवधारणात्मक खामियां छूट गईं. चूंकि परिवर्तन की उनकी कल्पना का समग्र परिप्रेक्ष्य सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं हुआ था इसलिए उनके सुधार मीडिया में टुकड़ों-टुकड़ों में प्रकट होते रहे और अनावश्यक आलोचना को बुलावा देते रहे.

सूक्ष्मदर्शी दृष्टि को उनके सुधार हमारी सेनाओं के हर पहलू को छूते नज़र आते थे. लेकिन उपरोक्त वजहों से, उनके अधिकतर सुधार अभी लागू होने की प्रक्रिया में ही हैं.

रावत की विरासत

सेना को परिवर्तित करने के महती प्रयास ने एक ऐसा फ्रेमवर्क छोड़ा है जिसके आधार पर बहुत कुछ किया जा सकता है. जनरल को सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यह होगी कि सरकार और उसके उत्तराधिकारी परिवर्तन की उस प्रक्रिया को ठोस स्वरूप दें जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है, और उसे अंतिम लक्ष्य—2030 तक भारतीय सेना का बदलाव—तक पहुंचाएं.

राजनीतिक किस्म के मामलों में खेल करना जनरल रावत के व्यक्तित्व का अबूझ पहलू था. यह सेना के अ-राजनीतिक चरित्र पर सवालिया चिह्न खड़ा करता था. उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी निर्दोष थी और मेरे ख्याल से उनमें कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा या सेवानिवृत्ति के बाद किसी पद की लालसा नहीं थी. इसलिए, ‘ऐसा क्यों’ सवाल का जवाब देना मुश्किल है. यही बात उनके सार्वजनिक बयानों के बारे में लागू होती है, जिनमें उन्होंने आतंकवादियों और जनता के बीच के फर्क की अनदेखी की, बावजूद इसके कि उन्हें उग्रवाद विरोधी युद्ध की बारीक समझ और व्यापक अनुभव हासिल था.

हमारी सेना के लिए परिवर्तन का रास्ता खोलने के लिए आपको सलाम करता हूं जनरल रावत! मुझे कोई संदेह नहीं है कि हमारी सरकार और आपके उत्तराधिकारी आपकी विरासत के लिए आपको स्वर्ग में भी गौरव का अनुभव कराएंगे.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

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