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140 नदी- तालाबों को रौंद कर बन रहे ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के पांच तथ्य जो शिलान्यास के नीचे दबा दिए गए

एक्सप्रेस वे की योजना में भूमिगत जल स्रोतों पर ध्यान नहीं दिया गया और गंगा में ऑक्सीजन की कमी जैसे मुद्दों पर बात करना तो बेमानी ही है.

प्रतीकात्मक तस्वीर/ स्रोत -पीआईबी

पहली बार 2007 में जब मायावती सरकार ने गंगा एक्सप्रेस वे बनाने का प्रस्ताव रखा था, तब पर्यावरणीय विरोध और संवेदनशीलता को देखते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने परियोजना पर रोक लगा थी.

तो अब ऐसा क्या हो गया कि पर्यावरणीय सवालों को गैर जरूरी मान लिया गया. क्या एक्सप्रेस वे को गंगा से दस किलोमीटर दूर बना लेने से सवाल खत्म हो गए या एक्सप्रेस वे और गंगा के बीच की यह दस किलोमीटर की दूरी कॉरपोरेट की सोची समझी रणनीति के तहत रखी गई है. आगे पांच बिन्दुओं में यह बताने की कोशिश की गई है कि गंगा एक्सप्रेस वे का सीटूसी यानी कास्ट टू कंट्री क्या होने वाला है.

1 – बाढ़ बढ़ेगी, कटाव बढ़ेगा – गंगा की टोपोग्राफी को समझिए, उसके दक्षिणी तट पर बड़ी बसाहट है, जैसे कानपुर कन्नौज, इलाहाबाद जबकि उत्तर यानी ऊपरी भूमि थोड़ी दलदली है. यह इलाका बाढ़ का कैचमेंट एरिया है यह बाढ़ के अधिकतर हिस्से को झेलता है. प्रस्तावित एक्सप्रेस वे इसी उत्तरी हिस्से यानी उन्नाव, रायबरेली की ओर से निकलेगा, जिसका मतलब हुआ, बाढ़ के पानी को फैलने की जगह नहीं मिलेगी क्योंकि एक्सप्रेस वे की ऊंचाई सात से आठ मीटर होने वाली है.

अब स्थिती यह बनेगी कि एक ओर ऊंची बसाहट दूसरी और ऊंची सड़क नतीजतन बाढ़ का पानी निचली बस्तियों में जाएगा और कटाव में तेजी आएगी, सीधी आशंका है कि बाढ़ से सबसे ज्यादा नुकसान वाराणसी को होगा, वहां गंगा चंद्राकार है और शहर उत्तरी तट पर बसा है. घोषित तौर पर कहा जा रहा है कि गंगा एक्सप्रेस वे बाढ़ रोकेगा.

2 – एक लाख एकड़ कृषि भूमि का रकबा कम हो जाएगा – नदी वैज्ञानिक यूके चौधरी ने सरकार को चिट्ठी लिखकर यह आशंका जताई थी, एक्सप्रेस वे बनने के बाद दलदली भूमि बढ़ेगी और खेती का रकबा कम हो जाएगा. वह आशंका आज भी मौजूद है, गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच का इलाका जलभराव के चलते दलदली हो जाएगा. उन्ही की चिट्टी को ध्यान में रखते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने परियोजना पर रोक लगा दी थी.

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पहले के प्रस्ताव में एक्सप्रेस वे गंगा से सट कर बनने वाला था. वैसे घोषित तौर पर गंगा महासभा इस याचिका में पक्षकार थी लेकिन सरकार बदलने के बाद उसके पर्यावरणीय सवाल शांत हो गए. एक्सप्रेस वे के शिलान्यास भाषण में कहा गया है कि यहां औद्योगिक गलियारा विकसित किया जाएगा और शर्तिया तौर पर कॉरपोरेट को गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच की जमीन चाहिए होगी.

वे यहां उद्योग लगाएंगे और उसकी जलनिकासी यानी मलबा गंगा की ओर ही निकलेगा. इसके अलावा नील गाय और छुट्टा पशुओं के आतंक से गंगा पथ के किसान पहले ही खेती से मूंह मोड़ रहे हैं यह स्थिती भी कॉरपोरेट के लिए विन विन वाली है.


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3 – बहते को बांधने की कोशिश घातक होती है – एक नजर आगरा – लखनऊ एक्सप्रेस वे पर डालिए यह उन्नाव के पास गंगा एक्सप्रेस वे से मिलेगा. एक तरह से मैनपुरी, इटावा, कानपुर, कन्नौज का इलाका गंगा सहित काली नदी और दूसरी कई छोटी धाराओं वाला क्षेत्र है. इस क्षेत्र के चारों ओर आठ मीटर की एक दिवार खड़ी कर दी जाएगी तो सोचिए तस्वीर कैसी बनेगी.

उत्तरप्रदेश में बाढ़ क्षेत्र 28 किमी तक दर्ज है. फर्रुखाबाद में रामगंगा और प्रयाग में यमुना मिलने के बाद बाढ़ की स्थिती बिगड़ती है. यह बड़े पर्यावरणीय पलायन का कारण बनेगा. सरकारी पैसे से सीगंगा प्रोजेक्ट चलाने वाला आईआईटी कानपुर इस मामले में चुप्पी साधे हुए है और नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा और नेशनल गंगा अथॉरिटी से किसी भी तरह की अनुमति नही ली गई यहां तक की उन्हे विश्वास में भी नहीं लिया गया.

4 – पौधे और पेड़ में बहुत बड़ा फर्क होता है – एक्सप्रेस वे के किनारे 18,55,000 पौधे रोपे जाएंगे लेकिन कहीं भी यह नहीं बताया गया कि कितने पेड़ काटे जाएगें. यह समझने की जरुरत है कि एक परिपक्व पेड़ की भरपाई दस हजार पौधे मिलकर भी नहीं कर सकते. एक्सप्रेस वे के किनारों पर लगाए जाने वाले पौधों के चयन में खूबसूरती देखने की परंपरा रही है नाकि उनकी मिट्टी पकड़ने की क्षमता क्योंकि पीपल और बरगद जैसे पेड़ आकार लेने में टाइम लगाते हैं जबकि नर्सरी मार्का शोपीस पेड़ एक साल में ही सफलता का तमगा दे देते हैं.

5 – शिव की जटा पर कैंची मत चलाईए – यह समझने की जरूरत है कि गंगा कोई एक धारा नहीं है, कई छोटी धाराएं और जल स्रोत मिलकर गंगा को गंगा बनाते हैं. यह छोटी धाराएं और नदी का फ्लोरा फोना ही विविधता लिए होती है, एक तरह से यह शिव की जटाएं है जो गंगा को बनाती है और भूमि कटाव को रोकती है. एक्सप्रेस वे 140 नदी, तालाबों या जलस्रोतों के ऊपर से गुजरेगा.

इसके अलावा भूमिगत जलस्रोत बड़ी संख्या में है, एक्सप्रेस वे की योजना में भूमिगत जल स्रोतों पर ध्यान नहीं दिया गया और गंगा में ऑक्सीजन की कमी जैसे मुद्दों पर बात करना तो बेमानी ही है. योजना में नदी तालाब को मानवनिर्मित यूनिट माना गया है जिसे नियंत्रित किया जा सकता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनका निजी विचार हैं)


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