होम मत-विमत मोदी-शाह की ‘डर की राजनीति’ अगले आम चुनाव के लिए सही रणनीति...

मोदी-शाह की ‘डर की राजनीति’ अगले आम चुनाव के लिए सही रणनीति क्यों नहीं है?

डर की राजनीति से वे मतदाता भाजपा से छिटक सकते हैं जिन्होंने 2014 में अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वोट किया था.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह (फाइल फोटो: पीटीआई)

नरेंद्र मोदी के 2014 के प्रधानमंत्री पद के लिए किए गए चुनावी अभियान को ‘उम्मीद की राजनीति’ के रूप में देखा गया. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री ने तत्कालीन कमजोर और भ्रष्ट यूपीए शासन से मुक्ति दिलाने के लिए ढेर सारे वादे मतदाताओं से किए थे.

भाजपा ने 2019 में मोदी को दोबारा गद्दी दिलाने के लिए अपनी रणनीति में बदलाव कर दिया है. ऐसा लगता है कि पार्टी की मुख्य रणनीति ‘डर की राजनीति’ पर केंद्रित हो गई है. जैसे बांग्लादेशियों और म्यांमार रोहिंग्याओं को लेकर हिंदुओं में फैलाया गया डर, अयोध्या में राम मंदिर का अधिकार हिंदुओं को नकारने वाले न्यायपालिका का डर, ‘शहरी नक्सलियों’ का डर जिन्हें प्रधानमंत्री कांग्रेस के साथ जोड़ते हैं, राफेल जेट सौदे में राहुल गांधी द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के प्रभाव को खत्म करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साजिश का डर और मोदी की जगह लेने के लिए राजनेताओं के समूह द्वारा घरेलू साजिश का डर. इस प्रकार भाजपा भारत को अंधेरे के युग में ले जा रही है.

पांच साल पहले मोदी द्वारा दिखाए गए सपनों पर बात करने के बजाय लोगों के लिए ये डर ज़बरदस्त हो सकते हैं. यह एक सत्तारूढ़ पार्टी के लिए अर्थव्यवस्था, विदेशी नीति और आंतरिक सुरक्षा पर इतने सारे प्रश्नों का सामना करने की एक अच्छी रणनीति प्रतीत हो सकती है. लेकिन यहां हम उन पांच कारणों पर चर्चा कर रहे हैं जो बतातें है कि यह रणनीति क्यों बेहतर नहीं है:

पहला, राममंदिर के मुद्दे पर वापस लौटने से भाजपा में नए मतदाताओं के जुड़ने की कोई संभावना नहीं है. इसके लिए हम उन आम चुनावों में पार्टी का वोट शेयर देख सकते हैं जब उसमें राममंदिर के मुद्दे पर चुनाव लड़ा.


यह भी पढ़ें: चंद्रबाबू नायडू ने तेलंगाना के हितों के खिलाफ काम किया: चंद्रशेखर राव की बेटी


1989 में जब राममंदिर आंदोलन अपने चरम पर था तब भाजपा ने लोकसभा में अपने सांसदों की संख्या 85 तक पहुंचा ली जबकि इससे पिछले आम चुनाव में यह संख्या 2 थी. इस दौरान उसका कुल वोट शेयर 11.36 प्रतिशत रहा. वहीं 1991 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 20.11 प्रतिशत वोट शेयर लेकर अपने सांसदों की संख्या 120 तक पहुंचा ली. गौरतलब है कि यह चुनाव सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा के बीच लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के चलते वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के गिर जाने के बाद हुआ था.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

उस समय राम मंदिर का मुद्दा देश की राजनीति में चर्चा का विषय होता था. बाद में 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने पर इसका और ध्रुवीकरण हो गया. लेकिन 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में इसका फायदा भाजपा को नहीं मिला. 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 160 सीटें तो हासिल की लेकिन उसका वोट शेयर 20.29 प्रतिशत ही रहा.

अगले दो चुनावों में भी भाजपा ने राममंदिर को केंद्र में रखा लेकिन उसके वोटरों में मामूली इजाफा हुआ. इस दौरान भाजपा सत्ता में भी आ गई. 1998 में उसका वोट शेयर 25.59 प्रतिशत तो 1999 में 23.75 प्रतिशत रहा.

यह आंकड़ें बताते हैं कि भाजपा ने जब भी अयोध्या में राम मंदिर बनाने को केंद्र में रखकर चुनाव लड़ा तो हर पांच में से एक वोटर ने उन्हें वोट किया. भाजपा के वोट शेयर में पहली बार बड़ा इजाफा 2014 में हुआ. पार्टी ने 2009 के 18.80 प्रतिशत वोट के मुकाबले 2014 में 31.34 प्रतिशत मत हासिल किए. लेकिन इस दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने राममंदिर मुद्दे को अपने चुनावी अभियान में शामिल नहीं किया.

यहां पर यह मान लेना सुरक्षित रहेगा कि भाजपा के ऐसे मतदाता जो उसके हिंदुत्व के कारण उसे वोट देते हैं वो 2014 में पार्टी के साथ बने रहे. क्योंकि मोदी ने 2002 में हुए गुजरात दंगों के बाद आडवाणी को हटाकर हिंदू हृदय सम्राट की जगह हासिल कर ली थी. लेकिन इसके अलावा वह जातियों और समुदाओं से भी कुछ जोड़ने की क्षमता रखते थे. मोदीत्व में हिंदुत्व की राजनीति बैकग्राउंड में थी और आकांक्षाओं की राजनीति आगे थी. और बहुत से लोग जो हिंदुत्व की राजनीति को पसंद नहीं करते थे, उन्होंने मोदी को वोट किया. भाजपा की 2019 की चुनावी रणनीति से हिंदुत्व से अलग मतदाताओं के बिछड़ने का खतरा है.

दूसरा, ‘डर की राजनीति’ विपक्षी पार्टियों के लिए ज़्यादा प्रभावी तरीके से कारगर है. विपक्षी पार्टी यह बता सकती है कि सत्ता में बैठी पार्टी कमज़ोर, अनिश्चित और निरंकुश है. मनमोहन सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए मोदी ने इस रणनीति का सहारा लिया था. जब एक सत्तारूढ़ दल इस तरह की निराशा की राजनीति करता है, तो यह सिर्फ खोखला ही नहीं होता है बल्कि उसके कमज़ोर होने का भी खुलासा करता है. साथ ही वह अपनी यूएसपी भी समाप्त कर देता है-जोकि मोदी हैं.

तीसरा, तीन दशक पहले आडवाणी की रथ यात्रा के दौर से भारत बहुत आगे निकल आया है. वो दिन बीत गए जब रामानंद सागर का रामायण टीवी सेट पर दिखता था और लोग आरती करने लगते थे. अब बहुत सारे लोगों को तब सीटी मारते हुए देखा जा सकता है जब अक्षय कुमार अभिनीत ‘ओह माई गॉड’ फिल्म में परेश रावल भगवान पर मुकदमा करते हैं.


यह भी पढ़ें: ‘मौनमोहन’ पर तंज करने वाले मोदी खुद अकबर पर मौन हैं


मोदी अक्सर अपने भाषणों में भारत के जनसांख्यिकीय विभाजन की चर्चा करते हैं और बताते हैं कि देश की 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से नीचे की है. इस युवा आबादी में से बड़ी संख्या ने 2014 में भाजपा को इसलिए वोट किया था कि मोदी गुजरात के विकास मॉडल को देश के स्तर पर लागू करेंगे.

अभी की परिस्थितियों से पहले से ही असहज ऐसे मतदाता भाजपा की नई प्राथमिकताओं और दृढ़ संकल्पों को अन्यथा नहीं ले सकते हैं जो उनके सपने से बहुत दूर हैं.

चौथा, सवर्ण तबका राम मंदिर का सबसे मुखर समर्थक रहा है. भाजपा दोबारा मंदिर आंदोलन का राग आलाप कर इन्हें लुभा सकती हैं लेकिन इससे ओबीसी और अनुसूचित जातियों के वो मतदाता छिटक सकते हैं जो जो मोदी के व्यक्तित्व से प्रभावित थे और 2014 में पहली बार भाजपा को वोट किए थे.

उदारवादी बुद्धिजीवियों और मध्यम वर्ग के एक वर्ग से भी इसी तरह की प्रतिक्रिया होगी, जिसने मनमोहन सिंह सरकार से परेशान होकर मोदी को वोट किया था.

पांचवां, अभी तक नरेंद्र मोदी ने कथित विघटनकारी तत्वों बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार से जुड़े अन्य संगठनों, भाजपा के कट्टरपंथी तत्वों को एक हद तक नियंत्रित कर रखा है और अपना ध्यान शासन पर केंद्रित रखा है. लेकिन अगर राम मंदिर पर ध्रुवीकरण और असम से 40 लाख अवैध बांग्लादेशियों को बाहर निकालने के नाम पर एकबार इन्हें छूट मिल गई तो इन पर लगाम लगाना मुश्किल हो जाएगा.

डर की राजनीति मोदी और उनकी सरकार को परेशान करेगी, भले ही वह उसे फिर से सत्ता में पहुंचा दे. लेकिन क्या वह इस कीमत पर दूसरा कार्यकाल सुरक्षित करने के लिए तैयार हैं?

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

Exit mobile version