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‘खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद’- राजनीतिक सत्ता में बैठे हुक्मरानों को फैज़ से डर क्यों

अभी तीन साल पहले 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून बनाकर देशवासियों का विरोध मोल लिया और उसके खिलाफ जगह-जगह विरोध प्रदर्शन व आन्दोलन शुरू हो गये, तो फैज की प्रसिद्ध नज्म ‘हम देखेंगे’ उनका सबसे प्रिय हथियार बन गई.

चित्रण: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

वर्ष 1947 में भारत का बंटवारा हुआ तो 12 अक्टूूबर, 1938 को दिल्ली में जन्मे निदा, जो बाद में निदा फाजली नाम से भारतीय उपमहाद्वीप के हिन्दी-उर्दू के इंसानियत व प्यार को सबसे ऊपर रखने वाले शायर व गीतकार के तौर पर जाने गये, नौ साल के भी नहीं थे. लेकिन उनके माता-पिता ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया तो उनका देशप्रेम ऐसा उफनाया कि उन्होंने उनसे बगावत कर दी और दिल्ली में ही बने रहे. बाद में खूब मकबूल होने पर एक बुलावे पर पाकिस्तान की यात्रा पर जरूर गये, लेकिन लौटने पर वहां की जो तफसील बयान की, उसमें भी बंटवारे की निरर्थकता ही प्रमाणित की.

यह तफसील उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है:
इन्सान में हैवान यहां भी है वहां भी,
अल्लाह निगहबान यहां भी है वहां भी.
खूंखार दरिंदों के फकत नाम अलग हैं,
शहरों में बयाबान यहां भी है वहां भी.
रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत,
हर खेल का मैदान यहां भी है वहां भी.
हिन्दू भी मजे में है मुसलमां भी मजे में,
इन्सान परेशान यहां भी है वहां भी.
उठता है दिलो-जां से धुआं दोनों तरफ ही,
ये मीर का दीवान यहां भी है वहां भी.

आज की तारीख में उनकी ये पंक्तियां पढ़ें तो वे इंकलाब व रूमान के अद्भुत मेल के लिए पहचाने और निहायत दमघोंटू माहौल में सेना, जेल व निर्वासन में जीते रहे लासानी पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज की इस नियति के साथ सबसे ज्यादा मौजूं लगती है. इस लिहाज से कि जब तक फैज दुनिया में रहे, पाकिस्तान की तानाशाह सत्ताएं उनसे और वे इंसान, शायर व प्रतिरोध के पैरोकार तीनों रूपों में उन सत्ताओं से त्रस्त रहे. अब, जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो भी उनकी रचनाएं न सिर्फ उनके देश बल्कि सीमा के इस पार हमारे लोकतांत्रिक देश की सरकार को भी डराती रहती हैं.

अभी तीन साल पहले 2019 में नरेन्द्र मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून बनाकर देशवासियों का विरोध मोल लिया और उसके खिलाफ जगह-जगह विरोध प्रदर्शन व आंदोलन शुरू हो गये, तो फैज की प्रसिद्ध नज़्म ‘हम देखेंगे’ उनका सबसे प्रिय हथियार बन गई. फिर तो मोदी सरकार की परेशानी इतनी बढ़ गई कि उसका वश चलता तो वह इस नज़्म को प्रतिबंधित ही कर डालती. इस बात को आईआईटी कानपुर में छात्रों द्वारा इसको गाने को लेकर कराई गई ‘जांच’ के नतीजों से भी समझा जा सकता है.

गौरतलब है कि तब ‘जांच’ कर रही छः सदस्यीय समिति के प्रमुख और उक्त आईआईटी के उपनिदेशक मनीन्द्र अग्रवाल ने यह नज़्म गाने वाले छात्रों की काउंसिलिंग तक की सिफारिश कर डाली थी क्योंकि उन्होंने ‘देशकाल’ यानी समय व स्थान का ध्यान रखे बिना उसे गाया था. यह भी कहते हैं कि उक्त छात्रों को इसके लिए इन शब्दों में माफी मांगने को विवश किया गया था कि अगर नज्म से किसी की भावना आहत हुई है तो वे इसके लिए माफी चाहते हैं.

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लेकिन आज तक यह बात रहस्य ही बनी हुई है कि उक्त आईआईटी के छात्रों ने धारा 144 लागू होने के चलते बाहर जाने की इजाजत न मिलने पर परिसर के भीतर शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान ‘हम देखेंगे’ गाकर भला कौन-सा अपराध किया था? खासकर जब दूसरी कई जगहों पर इसके गाने को लेकर एतराज जताने वालों के पास भी अपने एतराज के वाजिब कारण नहीं हैं.

लेकिन अब लगता है कि उनकी यह अकेली नज़्म ही परेशानी का वायस नहीं है. केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद के उस फैसले से भी जाहिर होता है कि ‘और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा’, जिसके तहत उसने हाल ही में शैक्षणिक सत्र 2022-2023 के दसवीं कक्षा की एनसीईआरटी की पुस्तक से फैज की दो नज्मों के अंश हटा दिये हैं.


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ये अंश बीते एक दशक से ज्यादा से पढ़ाये जा रहे थे. इनमें से एक अंश है: हम तो ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद, खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद, जबकि दूसरा है: आज, जंजीरों में जकड़े सार्वजनिक चैक में चलो.

जानकार बताते हैं कि पहला अंश 1974 में फैज द्वारा ढाका से लौटते में रची गई नज्म का है, जबकि दूसरा उनकी उस नज्म का हिंदी अनुवाद, जो उन्होंने तब रची थी, जब उन्हें लाहौर की जेल से जंजीरों में बांधकर तांगे से एक दंत चिकित्सक के पास ले जाया जा रहा था. इस नज्म के उनके लिखे बोल इस प्रकार हैं.

आज बाजार में पा-ब-जौलां चलो,
दस्त-अफ्शां चलो मस्त-ओ-रक्सां चलो.
खाक-बर-सर चलो खूं-ब-दामां चलो,
राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो.

इस सिलसिले में यह समझना तो कठिन है ही कि पाठ्यक्रम का निर्धारण करने वालों को इन अंशों की मूल भावना को लेकर एतराज हैं या इससे कि उन्हें फैज ने रचा है, इस सवाल का भी ठीक-ठाक जवाब नहीं मिलता कि क्या मोदी सरकार ने उन अटल बिहारी वाजपेयी का रास्ता भी छोड़ दिया है अज्ञेर उसकी विपरीत दिशा में चली गई है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन्हें अपना राजनीतिक आराध्य बताते रहे हैं और जिनके मुंह से उनके लिए प्रायः फूल झड़ा करते हैं? अगर नहीं तो क्या इस सरकार को यह भी मालूम नहीं कि फैज अटल बिहारी वाजपेयी के बेहद प्रिय शायर थे?

प्रसंगवश, 1977-78 में अटल देश की पहली गैरकांग्रेसी जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री बने और पाकिस्तान के आधिकारिक दौरे पर गये, तो प्रोटोकॉल तोड़कर फैज से मिलने उनके घर गये थे. उनके इस अप्रत्याशित कदम से और तो और खुद फैज भी चकित रह गये थे. तब अटल ने उनसे कहा था, ‘मैं आनके सिर्फ एक शेर के लिए आप से मिलने आया हूं: मकाम फैज कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले.

कहते हैं कि यह सुनकर फैज बहुत भावुक हो गए थे. होते भी क्यों नहीं, यह शेर उनकी प्रसिद्ध गजल ‘गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौ-बहार चले’ का है, जिसे उन्होंने अपने मांटगुमरी जेल के सीखचों के पीछे रचा था.

इस प्रसंग से साफ है कि फैज की लोकप्रियता उनके वक्त में भी भारत-पाकिस्तान की सरहदों की मोहताज नहीं थी और उसे पार करती रहती थी. इसीलिए अपने प्रगतिशील व लोकतांत्रिक विचारों के कारण फैज भले ही पाकिस्तान की तानाशाह हुकूमतों की आंखों में खटकते रहते थे और बागी तेवर व झूठ को झूठ कहने की आदत के कारण उन्हें कई-कई बरस जेलों में गुजारने पड़े थे, दुनिया भर की परिवर्तनकामी व लोकतंत्रकामी शक्तियों का नैतिक समर्थन उनके साथ हुआ करता था. हां, भारत का भी, क्योंकि तब भारत की सत्ताएं, वे कैसी भी क्यों न रही हों, बकौल राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’, मानते थे:

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है.
जहां कहीं एकता अखंडित, जहां प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहां खड़ा भारत जीवित भास्वर है.

लेकिन आज भारत की सत्ता को भी फैज के शब्दों से डर महसूस हो रहा है तो वह कैसे कह सकती है कि उसका यह डर उन तानाशाहों के डरों से किंचित भी अलग है, जो कई बार इस कदर असुरक्षित महसूस करने लगते हैं कि उन्हें अपने आस-पास की पदचापों तक से खतरा महसूस होता है? क्या यह संयोग भर है कि फैज की नज्म के अंश हटाने वालों ने उक्त पाठ्यक्रम से ‘लोकतंत्र और विविधता’ संबंधी अध्याय भी हटा दिये हैं? जहां लोकतंत्र ही नहीं होगा, वहां फैज जैसे सर्जक क्योंकर होंगे? खासकर ऐसे सर्जक, जिनको लेकर सरहदों का बंटवारा अब तक दुनिया में कभी भी और कहीं भी संभव नहीं हुआ है.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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