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SAARC सम्मेलन के लिए पाकिस्तान का न्योता भारत को इन 8 वजहों से कबूल करना चाहिए

मोदी सरकार जानती है कि वह सार्क सम्मेलन को हमेशा के लिए नहीं टाल सकती. एक समय आएगा जब‘सीमा पार से आतंकवाद रोको वरना कोई बातचीत नहीं’ वाली शर्त की रणनीति लाभकारी नहीं रह जाएगी, उलटे नुकसान भी दे सकती है.

फाइल फोटो | पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी पिछले हफ्ते अमेरिका गए थे | ट्विटर @SMQureshiPTI

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने जब पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति की समीक्षा को टाला जिससे उसे 1 अरब डॉलर का ऋण नहीं मिल सका, उससे एक सप्ताह पहले उसके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने दक्षिण एशिया के सभी नेताओं को ‘सार्क’ शिखर सम्मेलन में भाग लेने का औपचारिक निमंत्रण दिया था. 2016 से यह सम्मेलन टलता आ रहा है.

कुरैशी ने प्रेस वार्ता में कहा कि भारत चाहे तो इसमें वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए भी हिस्सा ले सकता है लेकिन वह क्षेत्रीय सहयोग के दक्षिण एशियाई संघ के शिखर सम्मेलन में अड़ंगा न लगाए.

भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने इस अपील पर बयान दिया कि 2014 के बाद से हालात में ‘कोई ठोस बदलाव नहीं आया है’, मूल बात यह है कि पाकिस्तान ने सीमा पार से आतंकवाद पर रोक लगाने के लिए कुछ नहीं किया है. पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता आसिम इफ़्तिखार ने पलटकर फौरन जवाब दिया कि बागची का बयान ‘झूठा, पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रहग्रस्त’ है.

लेकिन इन दोनों देशों से उठने वाले अपेक्षित शोर को अनसुना करके इस निमंत्रण के पीछे की मंशा और समय पर गौर करें तो सहज रूप से जाहिर होता है कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ‘सार्क’ सम्मेलन आयोजित करने पर विचार कर रहे हैं, यानी भारत इसमें भाग लेने पर विचार कर रहा है.

वास्तव में, मैं तो कहूंगी कि दोनों राजधानियों से जो आवाज़ें उठ रही हैं वे दिल्ली में चल रही इस बहस पर पर्दा डालने के लिए जरूरी है कि भारत को इस सम्मेलन में भाग लेना चाहिए या नहीं, या क्यों भाग लेना चाहिए और यह भारत के निर्णयकर्ताओं की मुकम्मल योजनाओं के लिए बड़ा झटका है, जो यह बताता है कि भाग लेने के पक्ष में जो तर्क हैं वे भाग न लेने के तर्कों पर हावी होने लगे हैं.

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आगे मैं इसकी आठ वजहें गिनाऊंगी.


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पाकिस्तान के पास कोई उपाय नहीं है

पहली काबिले गौर बात यह है कि कुरैशी ने सभी क्षेत्रीय नेताओं को प्रेस वार्ता के जरिए दोबारा निमंत्रण दिया और इसके साथ कोई पूर्व शर्त नहीं रखी गई. कश्मीर के बारे में एक शब्द नहीं बोला गया और न इस तरह की कोई बात की गई कि भारत को अनुच्छेद 370 रद्द किए जाने से पहले की स्थिति बहाल करनी चाहिए.

वास्तव में, पाकिस्तान अनुच्छेद 370 रद्द किए जाने पर जिस तरह कुढ़ता रहा है उसके विपरीत कुरैशी इस मसले को लेकर प्रेस वार्ता में खामोश ही रहे. वैसे, विडंबना यह है कि पाकिस्तान इस अनुच्छेद को मान्यता ही नहीं देता क्योंकि उसने 1947 में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के दस्तावेज़ को नामंजूर कर दिया था.

कुरैशी ने कहा कि भारत ‘अगर पाकिस्तान नहीं आना चाहता तो वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए शामिल हो सकता है.’ लेकिन जम्मू-कश्मीर में नरेंद्र मोदी सरकार की कार्रवाइयों पर न तो पाकिस्तान की कथित नाराजगी का संकेत दिया गया और न मोदी सरकार के हिंदुत्ववादी चरित्र की कोई निंदा की गई.

दूसरा, यह सवाल कायम है कि अगस्त 2019 में भारत ने कश्मीर को लेकर जो फैसले किए उनकी ओर से कुरैशी ने आंख फेरने का फैसला क्यों किया. इसका जवाब यह है कि पाकिस्तान में ताकतवर खिलाड़ी, उसकी फौज यह मानने लगी है कि जो हुआ सो हुआ, यह आगे बढ़ने का समय है.

पाकिस्तानी फौज और उसके अध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा- जो इस साल रिटायर हो रहे हैं मगर अपना कार्यकाल बढ़वाने की जुगत में हैं- सभी हालात पर नज़र रख रहे हैं. अंदर का हाल यह है कि पाकिस्तान की आर्थिक हालत डांवाडोल है, उसका चालू घाटा बढ़ता जा रहा है, उसने चीन, यूएई, सऊदी अरब जैसे दोस्त देशों से भारी उधार ले रखा है, और अब उसने आईएमएफ से उस ऋण को टालने का अनुरोध किया है जिसकी उसने मांग की थी, क्योंकि वह यह आश्वासन देने में विफल रहा है कि वह अपने आर्थिक कामकाज को दुरुस्त कर लेगा.

साफ है कि अगर यह अपने बही-खाते को दुरुस्त करना चाहता है तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था को विदेश व्यापार और निवेश के लिए ही नहीं बल्कि अपने बड़े पड़ोसी भारत के लिए भी खोलने की जरूरत है. इसका अर्थ यह है कि फिलहाल के लिए तो कश्मीर मसले को ठंडे बस्ते में डालना होगा.

तीसरे, पाकिस्तान के सत्तातंत्र को यह एहसास कम-से-कम एक साल से ही हो रहा है. याद रहे कि दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और मोईद यूसुफ ने परोक्ष वार्ता जारी रखी जिसके कारण सीमा पर शांति रही.

पाकिस्तान भारत के साथ फिर से व्यापार शुरू करने पर राजी हो गया था मगर अंतिम समय में कोई अड़चन आने से यह शुरू न हो पाया.

इस सबके बाद एक साल बीत चुका है, पाकिस्तान की आर्थिक हालत और खराब हुई है, दोस्त देशों के कर्जे सिर पर लदे हुए हैं. पाकिस्तान चीन के हाथों में ज्यादा से ज्यादा बंधक बनता जा रहा है. पाकिस्तानी सत्तातंत्र को समझ में आ गया है कि उसे अपने दुश्मन भारत के साथ अब जल्द से जल्द संबंध सुधार लेने की जरूरत है.


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भारत मजबूत स्थिति में

चौथी बात यह है कि मोदी सरकार के लिए भी यह पाकिस्तान के सद्भाव को उदारता से स्वीकार करने और उसका अनुकूल जवाब देने का उपयुक्त समय है. उसने जो चाहा था उसे पूरा कर लिया है, जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ में शामिल कर लिया है, पाकिस्तान अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने के खिलाफ ज्यादा अंतरराष्ट्रीय शोर पैदा करने में विफल रहा है, भले ही उसके संरक्षक चीन ने 2019 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कुछ आवाज़ उठाई.

पांचवीं बात, भारत ने सार्क सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए पाकिस्तान आने की कई शर्तें रखीं— सीमा पार से आतंकवाद को रोके, घुसपैठ बंद करवाए, एलओसी पर शांति रखे, 2008 में मुंबई में हुए हमलों के मामले में कार्रवाई करे. आज भारत मजबूत स्थिति में है और उसे इसका लाभ उठाना चाहिए.

छठे, मोदी सरकार जानती है कि वह सार्क सम्मेलन को हमेशा के लिए नहीं टाल सकती. एक समय आएगा जब ‘सीमा पार से आतंकवाद रोको वरना कोई बातचीत नहीं’ वाली शर्त की रणनीति लाभकारी नहीं रह जाएगी बल्कि नुकसान भी दे सकती है. इसलिए बेहतर यही होगा कि नैतिकता के सिंहासन से उतरकर अपनी जीत की घोषणा कीजिए और पाकिस्तान से बातचीत शुरू कीजिए.

इसके अलावा, नेपाल पाकिस्तान को सार्क की अध्यक्षता सौंपने को नापसंद करता है. इसलिए उसे तथा भारत जिन क्षेत्रों का नेतृत्व करने का दावा करता है उन्हें नाराज करने की कोई वजह नहीं है.

सातवीं बात, प्रधानमंत्री मोदी पहले भी पाकिस्तान जा चुके हैं, दिसंबर 2015 में भारत-पाकिस्तान और पूरी दुनिया को हैरत में डालते हुए वे तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की पोती की शादी में शरीक होने के लिए वहां पहुंच गए थे. इसलिए, मोदी आसानी से वहां फिर जा सकते हैं, बेशक इसके लिए माहौल माकूल होना चाहिए, जो कि दोनों देशों के लिए काफी आसान है क्योंकि वे मोहब्बत और जंग, दोनों की कला में माहिर हैं.

इमरान खान जानते हैं कि बागडोर उनके हाथ में शायद ही है क्योंकि, उदाहरण के लिए, वे अपने आदमी को फौज और आईएसआई का प्रवक्ता तक नहीं बनाए रख सकते.

और आठवीं बात, भारत को यह एहसास है कि अपने पड़ोस में चीन के दबदबे का जवाब देने के लिए उसे द्विपक्षीय और क्षेत्रीय स्तर पर भी अपनी ताकत जतानी पड़ेगी. क्षेत्रीय स्तर पर यह तभी मुमकिन होगा जब सभी नेता शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे.

अब मैं अंतिम मुद्दे पर आती हूं- अगर पाकिस्तानी फौज ही वहां सबसे ताकतवर है, तो क्या भारत के लिए उससे सीधे बात करने का समय नहीं आ गया है?

तथाकथित सामान्य स्थिति तभी संभव है जब भारत और पाकिस्तान, दोनों अपनी-अपनी राजधानी में अपने उच्चायुक्त फिर से नियुक्त करेंगे. याद रहे, 2019 में अनुच्छेद 370 रद्द किए जाने के बाद पाकिस्तान ने भारत के उच्चायुक्त को निष्कासित कर दिया था और अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया था.

इसलिए इस स्थान पर नज़र बनाए रखिए. भारत के महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में चुनाव खत्म होने के बाद भारत अपने पड़ोस को लेकर इस अति महत्वपूर्ण फैसले के बारे में सोचेगी. तब यह भविष्य के बारे में भी फैसला करने का समय होगा.

(लेखिका दिप्रिंट में वरिष्ठ कंसल्टिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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