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किसान आंदोलन के कारण सुप्रीम कोर्ट अभिव्यक्ति की आज़ादी पर करेगा विचार

सुप्रीम कोर्ट जल्द ही एक ऐसे सवाल पर विचार करने जा रहा है जिसका सीधा संबंध संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार से है

सुप्रीम कोर्ट दशहरा अवकाश के बाद कृषि कानूनों के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण सवाल पर विचार करेगी. सवाल यह है कि क्या कानूनों को चुनौती देने के बावजूद इस मुद्दे पर धरना- प्रदर्शन की अनुमति दी जा सकती है?

सुप्रीम कोर्ट जल्द ही एक ऐसे सवाल पर विचार करने जा रहा है जिसका सीधा संबंध संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार से है. किसानों की हठधर्मी की वजह से कहीं ऐसा नहीं हो कि कृषि कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती दिए जाने के बावजूद उनके धरना प्रदर्शन और बंद आदि के परिप्रेक्ष्य में इस प्रयोजन के लिए न्यायालय अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की लक्ष्मण सीमा खींच दे.

न्यायपालिका, विशेषकर, उच्चतम न्यायालय हमेशा ही अनुच्छेद 19 और 21 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार और वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा का प्रबल समर्थक रहा है लेकिन राजमार्गों और रास्तों को अनिश्चित काल के लिए अवरुद्ध करने की किसान संगठनों की हठधर्मी अब शीर्ष अदालत को इस सवाल पर विचार करने के लिए बाध्य कर रही है.


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जब मामला कोर्ट में विचाराधीन तो प्रदर्शन क्यों

न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति सी टी रविकुमार की बेंच ने हाल ही में Kisan Mahapanchayat v. Union of India प्रकरण पर सुनवाई के दौरान कहा कि वह इस विषय पर विचार करेगा कि क्या किसी कानून की वैधता को चुनौती देने वाले संगठनों या व्यक्तियों को मामला विचाराधीन होने के दौरान उसी मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति है?

न्यायालय जानना चाहता है कि इन कानूनों के अमल पर रोक लगाए जाने के बावजूद किसान संगठन किस लिए विरोध कर रहे हैं. क्या कोई संगठन या व्यक्ति एक ही समय में दो नावों पर सवार हो सकता है? कृषि कानूनों को लेकर किसान महापंचायत संगठन दिल्ली के जंतर मंतर पर ‘सत्याग्रह’ करना चाहता है लेकिन उसे इसकी अनुमति नहीं मिली है. इस मामले में 21 अक्टूबर को सुनवाई होनी है.

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कोर्ट का सवाल है, ‘आपका विरोध किस बात पर है? फिलहाल कोई कानून नहीं है. इस पर इस न्यायालय ने रोक लगा रखी है. सरकार ने भी आश्वासन दे रखा है कि वह इन्हें लागू नहीं करेंगे, फिर किस बात का विरोध करना है.’


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अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल की भी राय है कि इन कानूनों को लेकर विरोध और धरना बंद होना चाहिए. इस संबंध में उन्होंने लखीमपुर खीरी की घटना का भी जिक्र किया जिसमे चार किसानों सहित कम से कम आठ लोगों की मृत्यु हो गई. सॉलिसीटर जनरत तुषार मेहता का भी मानना है कि सर्वोच्च संवैधानिक अदालत में मामला लंबित होने पर इसी मुद्दे को लेकर कोई भी सड़क पर नहीं उतर सकता लेकिन यहां ऐसा हो रहा है.

लखीमपुर की घटना के संदर्भ में न्यायालय का भी कहना था कि ऐसी घटना होने पर इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेता है जबकि इसमें जान-माल का नुकसान होता है.

इस बीच, किसानों के आंदोलन के कारण बाधित दिल्ली-नोएडा मार्ग खुलवाने के लिए MONICCA AGARWAAL VERSUS UNION OF INDIA & ANR की याचिका पर शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने हरियाणा सरकार के एक आवेदन पर राकेश टिकैत, योगेन्द्र यादव, दर्शन पाल और किसान संगठनों सहित 43 लोगों को नोटिस जारी किए हैं. इस विषय पर शीर्ष अदालत 20 अक्टूबर को विचार करेगी.

इससे पहले भी न्यायालय ने कहा था कि चूंकि किसानों ने इन कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती दे रखी है, इसलिए प्रदर्शनकारी किसानों को अपना विरोध जारी रखने के बजाए व्यवस्था और अदालतों पर विश्वास करना चाहिए. न्यायालय का कहना था कि अगर आपको अदालतों पर विश्वास है तो विरोध के बजाए इस मामले में तत्काल सुनवाई के लिए प्रयास करें.

न्यायालय ने सख्त अंदाज में कहा था कि आपने शहर का गला घोंट दिया है ओर अब आप शहर के अंदर आकर विरोध करना चाहते हैं. आपने सभी राजमार्गों और सड़कों को अवरुद्ध कर रखा है. लोगों को आने जाने में परेशानी हो रही है.

संपत्ति के नुकसान की भरपाई

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह से सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाए जाने की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए 16 अप्रैल 2009 को Re:Destruction Of Public & Pvt. vs State Of A.P. & Ors प्रकरण फैसले में दस निर्देश दिए थे.

न्यायालय ने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान से रोकथाम कानून, 1984 में संशोधन करने और इसकी भरपाई आंदोलनकारी राजनीतिक दलों और आयोजक नेताओं की जिम्मेदारी भी तय करने का प्रावधान भी इसमें करने का सुझाव दिया था लेकिन ऐसा लगता है कि इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है.

बहुचर्चित नागरिकता संशोधन कानून, की संवैधानिकता का मसला इस समय सुप्रीम कोर्ट मे लंबित है, के खिलाफ आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश में हुई हिंसक घटनाओं के मामले में प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने इस फैसले और संबंधित कानून पर अमल करके नुकसान की वसूली का अभियान चलाया था.

जहां तक विवादास्पद कृषि कानून का संबंध है तो विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं और संगठनों ने इन कानूनों- कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार, कानून, 2020, कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) कानून, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून की संवैधानिकता को चुनौती दे रखी है.


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न्यायालय ने केन्द्र के विरोध के बावजूद 12 जनवरी को इन कानूनों पर अंतरिम रोक लगा दी थी. न्यायालय ने इस विवाद का हल खोजने के लिए चार सदस्यीय समिति भी गठित की थी. समिति को इन कानूनों के परिप्रेक्ष्य में किसानों की शंकाओं और शिकायतों पर विचार करना था.

समिति में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान और शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घंवत, डा प्रमोद जोशी और कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी को शामिल किया गया था. समिति ने निर्धारित समय सीमा के भीतर ही अपनी रिपोर्ट मार्च में शीर्ष अदालत को सौंप दी थी.

इस मामले में अब सुनवाई शुरू होने का इंतजार है लेकिन इसी बीच अब कानून की संवैधानिकता विचाराधीन होने के बावजूद आंदोलन का नया मुद्दा सामने आ गया है.

इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता कानून में संशोधन के विरोध में धरने प्रदर्शन की वजह से बंद हुई सार्वजनिक सड़क खुलवाने के लिए दायर याचिका पर कहा था कि जनता को अपनी शिकायतों को लेकर धरना प्रदर्शन करने का अधिकार है लेकिन इसके लिए किसी सार्वजनिक सड़क या स्थान को अनिश्चित काल के लिए अवरुद्ध करके दूसरे नागरिकों को आवागमन में असुविधा पैदा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है.

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने सात अक्टूबर, 2020 को AMIT SAHNI Versus COMMISSIONER OF POLICE & ORS. मामले में अपने फैसले से कहा था कि हम यह एकदम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि सार्वजनिक मार्ग और सार्वजनिक स्थानों पर इस तरह और वह भी अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता. लोकतंत्र और असहमति एक साथ चलते हैं लेकिन असहमति प्रकट करने के लिए प्रदर्शन और धरने सिर्फ एक निर्धारित स्थान पर ही होने चाहिए.

न्यायालय ने कहा था कि उसे यह निष्कर्ष निकालने में कोई संकोच नहीं है कि विरोध प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक मार्गो पर कब्जा स्वीकार्य नहीं है और प्रशासन को अतिक्रमण या अवरोधों को हटाकर स्थान साफ करने के लिए कार्रवाई करनी चाहिए.

नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ तो धरना प्रदर्शन खत्म हो गया लेकिन अब किसानों ने दिल्ली के सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर आदि स्थानों को अवरफद्ध कर रखा है.

उम्मीद है कि निकट भविष्य में न्यायालय इन विवादित कानूनों की न्यायिक समीक्षा करके इस समस्या का कोई न कोई समाधान निकाल कर हैरान-परेशान जनता को इससे राहत दिलाने के साथ कुछ ठोस दिशा निर्देश देने में सफल रहेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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