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लोकतंत्र एक फिल्मी ट्रैजडी है जहां सरकार लाइट और कैमरे के लिए एक्शन लेती है

कई नामी-गिरामी अखबार इस सरकार की नीतियों का विश्लेषण प्रताप भानु मेहता और रामचंद्र गुहा जैसे राजनीतिशास्त्र के जानकारों से करवाते हैं. यह अनुपयोगी है. अगर इस सरकार की नीतियों को समझना चाहते हैं तो इस पर करण जौहर से लेख लिखवाइए.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फ़ोटो । पीटीआई

दीपिका पादुकोन का जेएनयू आना कोई आकस्मिक घटना नहीं है. यह केंद्र सरकार के पिछले छह सालों के अथक परिश्रम का नतीजा है.

पहले फिल्मों में नकली मारपीट होती थी और छात्र उसको देखने जाते थे. अब जामिया और जे.एन.यू. में असली मारपीट हो रही है और अभिनेता उसको देखने आ रहे हैं. हमारा राष्ट्रीय जीवन बॉलीवुड का एक फिल्मी तमाशा बन गया है. हर महीने फिल्म की कहानी में एक नया मोड़ आ जाता है. शायद यही कारण है कि हिंदी फिल्में फ्लॉप हो जाती हैं और ‘हाउडी-मोदी’ हिट हो जाता है.

पहले की सरकारों के राज में बड़े साक्षात्कार नामी-गिरामी संपादक किया करते थे. इस सरकार में सबसे बड़ा इंटरव्यू इंटरनेशनल खिलाड़ी अक्षय कुमार ने किया है.

‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’, ‘मिशन मंगल’ और ‘ऊरी’ देखने के बाद यह समझ में नहीं आता कि यह फिल्में इस सरकार के कारनामों पर बनी है या यह सरकार अपने कार्यक्रम ऐसे बनाती है ताकि उसके ऊपर कोई फिल्म बनाई जा सके. यह सरकार पहले सरकारी कार्यक्रमों की रूपरेखा तय करती है या फिल्म की पटकथा?

हमारे जीवन को फिल्मी तमाशा बना देने का सम्मोहन इतना प्रबल है कि विपक्ष पर भी ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ बना दिया जाता है. वर्ना किसने सोचा होगा की मनमोहन सिंह जैसे उबाऊ आदमी के जीवन पर सनीमा बन जायेगा! इनके बाद प्रमुख विपक्षी नेता खलनायक के पात्र में जंचते नहीं तो उनके ऊपर सोशल मीडिया की डॉयलागबाजी के द्वारा कॉमेडियन का रोल थोप दिया गया है. इस सब में अब आशंका होने लगी है कि 2024 चुनाव के लिए सरकार चुनावी घोषणा-पत्र के बदले कहीं फिल्मी ट्रेलर न जारी कर दे.

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सरकार केवल सिनेमा जगत का ख्याल रखती हो, ऐसा नहीं है. टेलीविजन चैनलों के काम का भी ध्यान रखा जाता है. वहां के लिए भी पुख्ता इंतजाम है. हमारे प्रधानमंत्री का जीवन संघर्ष से भरा रहा है और नेहरू जैसे अमीर लोगों की तरह उन्हें डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया लिखने का मौका नहीं मिला. इसीलिए ‘डिस्कवरी चैनल’ पर तो खुद प्रधानमंत्री चले जाते हैं, कॉमेडी के लिए संबित पात्रा हैं.

प्रख्यात व्यंगकार शरद जोशी एक बार बिहार जाकर ‘नरभसा’ गये थे. इस सरकार के सामने बड़े-बड़े आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषक ‘कंफ्यूजीआ’ जाते हैं. उन्हें समझ ही नहीं आता कि सरकार की नीतियों का विश्लेषण कैसे करें!

नोटबंदी के बारे में बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों ने लिखा कि अर्थव्यवस्था को इसकी कोई जरूरत नहीं थी. किंतु नोटबंदी का विश्लेषण आप अर्थव्यवस्था के रास्ते नहीं कर सकते. यह तो अर्थव्यवस्था के लिए ‘नसबंदी’ थी. इसने अर्थव्यवस्था को आठ-दस साल के लिए बांझ बना दिया.

सरकार के लिए नोटबंदी प्राइम टाइम शो ही था. 8 नवंबर 2016 की रात को 8:00 बजे (यानी प्राइम टाइम) जब नोटबंदी की घोषणा हुई तो इसका नाटकीय प्रभाव जबरदस्त और गहरा था. इसने दो महीने तक सारे सास-बहू-साज़िश सीरियलों को पछाड़ दिया था. नोटबंदी के आर्थिक दुष्प्रभाओं की चर्चा बेमानी है.

करण जौहर का सनीमा देखने से पहले अपना दिमाग उतार सीट पर रख कर उसके ऊपर पालथी लगा कर बैठा जाता है. आप शाहरुख़ खान को स्वर्ग जैसे दिव्य विदेशी लोकशन पर देखते हैं जो डोनाल्ड ट्रम्प जैसे दिखने वाले गोरों को हाथ पकड़ कर नचा देता है, बराक ओबामा जैसे ताकतवर व्यक्तियों से तू -तड़ाक में बात करता है.

कई नामी-गिरामी अखबार इस सरकार की नीतियों का विश्लेषण प्रताप भानु मेहता और रामचंद्र गुहा जैसे राजनीतिशास्त्र के जानकारों से करवाते हैं. यह अनुपयोगी है. अगर इस सरकार की नीतियों को समझना चाहते हैं तो इस पर करण जौहर से लेख लिखवाइए.

इस सरकार की नीतियों का आर्थिक-राजनैतिक विश्लेषण करना हर किसी के बूते की बात नहीं है. लिखने वाले को इन नीतियों को ‘प्लाट डीवाइस’ यानी पटकथा में घुमाव के रूप में देखना पड़ेगा. ये समझना पड़ेगा की सरकार सनीमा से कहानी को क्या मोड़ देना चाहती है. आपको करण जौहर जैसी समझ चाहिए कि दर्शक को नचायें कैसे. निर्मला सीतारमण से सीखिए और अर्थवयवस्था के बारे में परेशान मत होइए. क्योंकि कितना भी अच्छा निर्देशक क्यों न हो, एक कहानी को दो साल से ज्यादा चला नहीं सकता.

सन् 2014 में फिल्म विकासोन्मुखी थी. विकास तो होना नहीं था तो नोटबंदी से 2016 में हमारे नायक ने भ्रष्टाचार विरोधी शक्तिमान वाला लिबास अरविंद केजरीवाल से छीन लिया और विकास की चटाई केजरीवाल को पकड़ा दी जिसको केजरीवाल सरकारी स्कूलों और हस्पतालों में बिछाने का प्रयास कर रहे हैं.

फिर सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान के ऊपर हवाई हमला कर जन-जन को वीर रस से ओत-प्रोत कर दिया. यह सब हुए एक साल होने वाला था कि नागरिकता कानून और एनआरसी में जेएनयू के छात्रों की पिटाई से हम रौद्र रस में भीग गये.

लोग कहते हैं कि एनआरसी. लाएंगे या नहीं इसके बारे में सरकार विरोधाभाषी बयान दे रही है. अरे बुरबक, बिना सस्पेंस के किसी फिल्म में मजा आता है क्या ?

जब फिल्म 10 साल या उससे ज्यादा चलानी हो तब उसमें कुछ खलनायकों की जरूरत तो पड़ती ही है. अगर नायक उन्हें पीटेगा नहीं तो जनता हीरो के लिए सीटी कैसे बजाएगी? इस ढिशुम-ढिशुम की चिंता हमें नहीं करनी चाहिए. हमें यह देखना चाहिए कि इस मार-पिटाई से हमारे हीरो की इमेज़ और निखरती है या नहीं, उनका सीना और चौड़ा होता है या नहीं.


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वैसे इस सरकार का पसंदीदा फिल्मी विधा ‘हॉरर’ है, यानी भयानक रस. इसमें दर्शक के लिए तरह-तरह के भूत खड़े किए जाते हैं. कभी जेहादी भूत, तो कभी अर्बन नक्सल का भूत. नायक अपने दोस्तों के साथ भूत को पीटता रहता है. यह तो जगजाहिर है की भूत अमूर्त होते हैं. इसका नतीजा यह होता है कि पिटाई जनता की हो जाती है.

अगर दर्शक कॉमेडी या रोमांस देखेंगे तो हो सकता है कि उनके भीतर पॉपकॉर्न की इच्छा जाग जाए. अगर ऐसा होता है, तो फिर दर्शक रोजगार या अर्थवयवस्था या वायु प्रदूषण पर सवाल पूछ सकता है. परंतु ‘हॉरर’ आपकी सांस की गति को इतना तेज़ कर देता है कि आपको किसी और बात का ख्याल आ ही नहीं सकता!

एक बात है हमारी सरकार की जो हिंदी फिल्मों से अलग है. इस फिल्म में प्यार और उसके अफ़साने नहीं हैं. इस फिल्म में ‘लव’ भी जेहादी भूत के रूप में आता है.

गुज़रे जमाने के नेता राजनीति के लिए थोड़ा-बहुत नाटक कर लेते थे. यह सरकार संभवतः विश्व स्तर पर बनी सबसे लंबी फीचर फिल्म है. इस महा-फिल्मी यज्ञ में कई सारे न्यूज चैनलों ने अपने स्क्रीन की आहूति दे कर एक विशालकाय पर्दा बना दिया है, ‘स्क्रीन’ बना दी है. सोशल मीडिया इस फिल्म का साऊंड सिस्टम है, जिसमें तरह-तरह के झूठे-सच्चे वाद-विवाद फैलाये जाते हैं.

इस फिल्म में इमोशन है, ड्रामा है…और जो ट्रेजेडी है वह हमारी जिंदगी की है.

(लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं. यह लेखक के निजी विचार है)

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