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भट्टा-पारसौल आंदोलन के बाद से ही ढलान पर कांग्रेस, राहुल गांधी को मार्क्सवाद से बचना चाहिए

मेरा मानना है कि भट्टा-पारसौल आंदोलन में शामिल होना राहुल गांधी की एक बड़ी भूल थी, जिसकी कीमत कांग्रेस को लंबे समय तक चुकानी पड़ रही है.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी, फाइल फोटो | ट्विटर

अगर आप 100 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से यमुना एक्सप्रेस-वे पर दिल्ली से आगरा या आगरा से दिल्ली का सफर कर रहे हैं तो आपकी पलक झपकते ही भट्टा और पारसौल गांव गुजर जाएंगे. इन दो गांवों का महत्व उनका भूगोल में होना नहीं, बल्कि राजनीति में होना है. ये वो दो गांव हैं, जहां से 2011 में राहुल गांधी ने यूपी विजय का अभियान शुरू किया था. यहां उन्होंने एक्सप्रेस-वे के लिए होने वाले जमीन अधिग्रहण और मुआवजे की कम रकम के विरोध में आंदोलन किया था. ये राहुल गांधी ही नहीं, कांग्रेस के लिए एक निर्णायक क्षण था.

मेरा मानना है कि इस आंदोलन में शामिल होना राहुल गांधी की एक बड़ी भूल थी, जिसकी कीमत कांग्रेस को लंबे समय तक चुकानी पड़ रही है. उस समय यूपी में मायावती और केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी. राहुल गांधी यूं तो सिर्फ सांसद थे लेकिन सरकार और सत्ता में उनका कद बहुत ऊंचा था. इस वजह से जब वे भट्टा-पारसौल गए तो उस समय की वो देश की सबसे बड़ी खबर बनी और हफ्तों तक इसकी चर्चा हुई. बहरहाल, भट्टा-पारसौल ही नहीं, इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन अधिग्रहण हुआ और जैसा राज्य सरकार चाहती थी, वैसा ही हुआ और एक्सप्रेस-वे भी बन कर तैयार हुआ.

आज 11 साल बाद यमुना एक्सप्रेस-वे पर गाड़ियां फर्राटे से दौड़ रही हैं. अनुमान है कि हर दिन 32,000 से ज्यादा गाड़ियां इस एक्सप्रेस-वे का इस्तेमाल करती हैं. इसने दिल्ली और आगरा के बीच की दूरी दो से ढाई घंटे कम कर दी है. बचने वाले समय और पर्यावरण को होने वाले फायदे का अंदाजा लगाइए. यमुना एक्सप्रेस-वे से गाड़ियां आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे पर पहुंचती हैं और वहां से गाजीपुर यानी यूपी के पूर्वी छोर तक जाने वाले पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे पर पहुंचती हैं. यमुना एक्सप्रेस-वे और इसके कारण आगे बने दो एक्सप्रेस-वे के कारण दिल्ली के लोग बसों से बिहार और नेपाल तक जा रहे हैं. ये पहले संभव नहीं था.

इस रास्ते के दोनों ओर बड़े पैमाने पर विकास हो रहा है. सैकड़ों हाउसिंग और कमर्शियल प्रोजेक्ट यहां चल रहे हैं, जिसमें लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इस सड़क के कारण जेवर में दिल्ली-एनसीआर का दूसरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बन रहा है. यहां फिल्म सिटी और इलेक्ट्रॉनिक सिटी बन रही है. इस विकास को आप सड़क के किनारे होता हुआ देख सकते हैं. आस पास के गांवों की जमीन महंगी हो चुकी है और किसान भी इससे समृद्ध हो रहे हैं.

राहुल गांधी को ये लग सकता है कि भट्टा-पारसौल जाकर और वहां भूमि अधिग्रहण का विरोध करके उन्होंने कोई क्रांतिकारी काम किया है और इस वजह से ही उद्योग घराने उनसे नाराज हो गए. उन्हें ऐसा लग सकता है कि किसानों को ऊंचा मुआवजा दिलाने का उनका संघर्ष एक महान काम था और इसके लिए उन्हें उद्योगपतियों का समर्थन खोना पड़ा. लेकिन मेरा तर्क है, जिसके तीन आधार हैं कि राहुल गांधी का इस आंदोलन में शामिल होना न सिर्फ राजनीतिक भूल थी और बल्कि यह कांग्रेस की विचारधारा के भी खिलाफ था.

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राजनीतिक और चुनावी कारण: राहुल गांधी के भट्टा-पारसौल अभियान का कांग्रेस को राज्य या देश के स्तर पर कोई लाभ नहीं हुआ. ये अभियान 2012 में यूपी के विधानसभा चुनाव की तैयारी के दौरान हुआ था. इस चुनाव में कांग्रेस यूपी में 355 सीटों पर लड़ी और उसे सिर्फ 28 सीटें मिलीं. जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपी में कांग्रेस ने 22 सीटें जीती थीं. लोकसभा चुनाव में उसे 95 विधानसभा सीटों पर बढ़त थी. उनमें से 2012 में वह सिर्फ 9 विधानसभा सीटों पर ही जीत पाई. इसके बाद 2014 का लोकसभा चुनाव आया. इसमें कांग्रेस की जीत का आंकड़ा 2009 की संख्या 22 से घटकर शून्य पर आ गया. मेरे कहने का ये मतलब नहीं है कि कांग्रेस भट्टा-पारसौल आंदोलन के कारण हारी या उसकी हार में भट्टा-पारसौल की महत्वपूर्ण भूमिका थी. मैं सिर्फ ये कह रहा हूं कि भट्टा-पारसौल से चुनाव अभियान शुरू करना कांग्रेस के लिए फायदेमंद नहीं रहा.

भट्टा-पारसौल में राहुल गांधी उन किसानों के पक्ष में खड़े थे, जिनके पास जमीन थी और जिनकी जमीन राज्य सरकार एक्सप्रेस-वे के लिए ले रही थी. लेकिन चुनाव में ये सामाजिक आर्थिक समूह कांग्रेस के पास नहीं आया. इस आंदोलन से दलितों को खास लेना-देना नहीं था, क्योंकि इस इलाके में दलितों के पास ज्यादा जमीन नहीं है. जाहिर है कि इस आंदोलन में कांग्रेस की नजर यहां दलितों की ओर नहीं थी. कुल मिलाकर कांग्रेस को इस आंदोलन से यूपी में कुछ हासिल नहीं हुआ.

आर्थिक कारण: ये आंदोलन आर्थिक विकास और प्रगति के खिलाफ खड़ा नजर आया. ये सही है कि औद्योगिक या इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में जमीन अधिग्रहण होता है और अक्सर ये प्रक्रिया जमीन के मालिकों के लिए तकलीफदेह होती है. लेकिन ये विकास की बुनियादी शर्त भी है कि जमीन ली जाए. 2022 में कल्पना करके देखिए कि यमुना के पूर्वी तट पर अगर यमुना एक्सप्रेस-वे न होता तो ये इलाका कैसा नजर आता. यहां अगर सिर्फ खेती हो रही होती, तो क्या यहां के किसान खुश होते? आज यहां जमीन के दाम चढ़ गए हैं और इसके लाभार्थी भी किसान ही हैं. हर दिन चलने वाली 32000 से ज्यादा गाड़ियों का मतलब रोजगार भी है. इस सड़क के आसपास दर्जनों शिक्षा संस्थान खुले हैं और एयरपोर्ट बनने के बाद यहां विकास की एक और लहर आएगी. बढ़ती आबादी का बोझ उठाने में खेती असमर्थ है. इसलिए विकास तो होना है. इस बात को नेताओं को समझना होगा.

छवि और विचारधारा के प्रश्न: राहुल गांधी को ये समझना होगा कि कांग्रेस न तो एनजीओ है और न ही कोई वामपंथी पार्टी. न ही ये कोई जनांदोलन है. आंदोलन तो 1947 में खत्म हो चुका है. उसके बाद से ये शासक पार्टी है, शासक वर्गों की पार्टी है. इसे वोट बेशक विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समूहों के मिलते हैं, लेकिन ये मार्क्सवादी पार्टी नहीं है.

आजादी से पहले, जब ये लगने लगा कि अंग्रेज अब लंबे समय तक यहां नहीं रहेंगे, तो भारतीय पूंजीपतियों ने कांग्रेस में अपना ठिकाना बना लिया. स्वदेशी आंदोलन भी भारतीय पूंजीपतियों के हित में ही चलाया गया था. आजादी आते-आते बिड़ला, टाटा, बजाज, वालचंद हीराचंद, सेकसरिया समेत लगभग सभी उद्योगपति गांधी और कांग्रेस के साथ आ चुके थे. आजादी के बाद भी ये सिलसिला कायम रहा. नेहरू ने बेशक राजकीय समाजवाद और सरकारी उद्यमों को मजबूत करने की नीति बनाई, लेकिन उन्होंने निजी उद्यमियों के लिए कोई मुश्किल खड़ी नहीं की. एक खास स्थिति में इंदिरा गांधी की सरकार ने बैंक, कोयला खादान और बीमा आदि क्षेत्र में सरकारीकरण किया, लेकिन 1980 में दूसरी बार आने के बाद वे निजी उद्यम की समर्थक बन गईं. बाद के दौर में राजीव गांधी-नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की तिकड़ी तो पूरे तौर पर निजी उद्यम को समर्थन में रही और वे ही भारत में उदारवाद और वैश्वीकरण लेकर आए. ऐसी पार्टी की विरासत के साथ अगर राहुल गांधी औद्योगिक विकास के खिलाफ खड़े नजर आए, तो ये एक त्रासदी ही है. ऐसा करके राहुल गांधी बेशक राजनीति कर सकते हैं, वे चुनाव भी जीत सकते हैं. लेकिन फिर वह पार्टी कांग्रेस नहीं रह जाएगी. ऐसा करके सबसे अच्छी स्थिति में वे कांग्रेस को एनजीओ बना देंगे और बुरी स्थिति में कांग्रेस देश की एक और वामपंथी पार्टी बन जाएगी.

सबसे आश्चर्यजनक तो ये है कि जिस समय राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में जमीन अधिग्रहण और कम मुआवजे को लेकर मायावती सरकार के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे, उसी समय केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम छत्तीसगढ़ में बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह के साथ मिलकर, जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले चरम वामपंथियों के खिलाफ, ऑपरेशन ग्रीन हंट चला रहे थे. वहां आदिवासियों की बीच सलवा जुडुम संगठन भी कांग्रेस के ही एक सांसद चला रहे थे. ये सब जमीन अधिग्रहण को सुगम बनाने के लिए था.

जाहिर है कि यूपी के भट्टा-पारसौल का राहुल गांधी का आंदोलन दरअसल मायावती के खिलाफ था. जमीन अधिग्रहण तो सिर्फ मुद्दा था. ये महान उद्देश्यों के लिए छेड़ा गया आंदोलन नहीं था. इस आंदोलन से मायावती बेशक कमजोर हुई होंगी, लेकिन उनकी जगह पहले समाजवादी पार्टी और फिर बीजेपी आ गई. कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं आया. उसे इस आंदोलन से औद्योगिक विकास विरोधी पार्टी की छवि मिली, जिससे छुटकारा पाना उसके लिए बेहद जरूरी है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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