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छात्रों का आक्रोश उनकी महत्वाकांक्षाओं पर पड़ती चोट की अभिव्यक्ति है, बस आंदोलन को नाम और चेहरे की तलाश

अगर हम समझ रहे हैं कि जामिया के परिसर में पुलिस ने छात्रों पर जो बर्बरता की उसकी प्रतिक्रिया में ही देश के कोने-कोने से छात्र विरोध में उठ खड़े हुए तो फिर ऐसा सोचना हमारी भूल है.

पुलिसिया कार्रवाई और नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में बंगलुरू में प्रदर्शन करते और नारे लगाते विद्यार्थी | पीटीआई

क्या हम भारत में नौजवानों के एक नये आंदोलन को उभरता हुआ देख रहे हैं ? कुछ वैसा हीं जैसा कि कभी ‘जेपी’ के वक्त हुआ था और नारा गूंजा था- ‘जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है..’

ऐसी कोई भविष्यवाणी करना तो मुश्किल है लेकिन बीते कुछ दिनों और महीनों की घटनाएं संकेत दे रही हैं कि हमारी आंखों के आगे एक नया मंज़र उठ खड़ा हुआ है और इसके भीतर हमारी राष्ट्रीय राजनीति को बदल देने की ताकत है. विरोध में उठ खड़े हुए युवाओं के इन प्रदर्शनों के पगचिन्ह स्पष्ट दिख रहे हैं और उनमें एक हदतक गहराई भी है. हां, इन विरोध-प्रदर्शनों को अभी जेपी सरीखे किसी आदर्श-चरित्र की तलाश है और वैसे विचारों की भी जो इस नई पीढ़ी की आकांक्षाओं को नये मुहावरे में ढालकर पेश कर सके.

गौर कीजिए कि जामिया मिल्लिया में हुई पुलिस-कार्रवाई पर हुई प्रतिक्रिया का दायरा किस हद तक विस्तृत था. स्वत: स्फूर्त प्रतिक्रिया सिर्फ जामिया, अलीगढ़, देवबंद, मौलाना आजाद नेशनल यूनिवर्सिटी या फिर नदवा कॉलेज सरीखे अल्पसंख्यक- बहुल शिक्षा संस्थाओं तक सीमित ना रही. बात जेएनयू, जादवपुर या फिर टिस्स यानी टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज जैसी संस्थाओं के छात्रों तक ठहरी ना रही जो अक्सर सड़कों पर आंदोलन के लिए निकल आते हैं. इस बार आईआईटी, आईआईएम, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस तथा गैर-राजनीतिक निजी विश्वविद्यालय के छात्रों ने दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, पुणे, चंडीगढ़, लखनऊ और भोपाल में चलने वाले मशहूर सरकारी शिक्षा संस्थाओं के छात्रों के सुर में अपनी आवाज मिलायी. भारत के नगरों-कस्बों में कायम शिक्षा संस्थाओं के छात्रों भी आगे आये और जामिया मिल्लिया के छात्रों के प्रति अपनी एकजुटता की भावना का इजहार किया.

उच्च शिक्षा

अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों से लेकर अबतक मैंने ऐसा मंज़र नहीं देखा जब किसी एक विश्वविद्यालय के छात्रों को इतना व्यापक समर्थन मिला हो और वह भी नागरिकता (संशोधन) अधिनियम सरीखे मसले पर जिससे छात्र-समुदाय के हित सीधे प्रभावित नहीं होते. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया, जेएनयू के विरोध-प्रदर्शन करते छात्रों तक इंडिया गेट पर बड़ी तादाद में जमा छात्रों से मेरी बात हुई. मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी बड़ी तादाद में छात्र विरोध-प्रदर्शन मे हिस्सा ले रहे हैं जबकि इन्हें किसी राजनीतिक दल ने लामबंद भी नहीं किया. इंडिया गेट पर हुये विरोध-प्रदर्शन में ज्यादातर छात्र ना तो मुस्लिम समुदाय के थे और ना ही पूर्वोत्तर के राज्यों के जबकि इन्हीं दो समुदायों पर नागरिकता संसोधन कानून का सीधा असर होना है. फिर गौर करने की एक बात ये भी है कि छात्राओं ने भी बड़ी तादाद में इन विरोध-प्रदर्शनों में हिस्सा लिया है. किसी भी बड़े आंदोलन का एक नाभिक होता है और वह नाभिक ऐसे ही आत्म-तत्पर लोगों से बनता है जो स्वार्थों के अपने निजी घेरे से बाहर जाने के लिए हरचंद तैयार हों.

यही वजह रही जो जामिया के छात्रों ने तमाम बाधाओं के बावजूद अपने प्रति धारणा और नजरिया बनाने की लड़ाई कामयाबी से लड़ी और जीती. मीडिया के सहारे सत्तापक्ष ने कहानी रची कि मामला तो तोड़फोड़, आगजनी, पत्थरबाजी और दंगा फैलाने का चल रहा है लेकिन जल्दी ही ये कथा दम तोड़ गई और बात ये चलने लगी कि पुलिस छात्रों पर अत्याचार कर रही है. मोबाइल कैमरा की चहुंतरफा मौजूदगी, सोशल मीडिया की पहुंच और मीडिया में जामिया के पूर्व-छात्रों की भरपूर मौजूदगी से भी निश्चित ही मदद मिली. कलाकारों और अभिनेताओं का समर्थन भी मददगार साबित हुआ. यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी, हॉस्टल तथा रिहाइशी कॉलोनियों में छात्रों पर डंडें फटकारती पुलिस का वीडियो इतना ताकतवर था कि उसकी अनदेखी करना मुमकिन ना था. लेकिन, छात्र जो कुछ कह रहे थे उसमें सच्चाई का अंश ना होता तो फिर ये चीजें मददगार ना हो पातीं.

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लेकिन अगर हम समझ रहे हैं कि जामिया के परिसर में पुलिस ने छात्रों पर जो बर्बरता की उसकी प्रतिक्रिया में ही देश के कोने-कोने से छात्र विरोध में उठ खड़े हुए तो फिर ऐसा सोचना हमारी भूल है. देश के विश्वविद्यालय-परिसरों में एक लंबे वक्त से भीतर ही भीतर कुछ उबल रहा है. सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, विश्वविद्यालय धीरे-धीरे केंद्र और राज्य सरकारों का हिस्सा बनते जा रहे हैं. अक्सर देखने को यही मिलता है कि उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रमुख नौकरशाहों सरीखा बरताव कर रहे हैं, उनका आचरण तुच्छ और बदले की भावना से भरा हुआ है और वे पहला मौका हाथ लगते हीं सत्ता के सम्मुख सर नवाने के लिए तत्पर दिखते हैं- ये भी ख्याल पालते हैं कि उनके मातहत व्यक्ति भी सत्ता की कदमबोशी करते नज़र आयें. ये अधिकारी छात्रों, कर्मचारियों और शिक्षक-समुदाय में भरोसे का भाव नहीं जगा पाते, कोई प्रेरणा नहीं भर पाते. ऐसे अधिकारियों के प्रति छात्रों में सम्मान की भावना क्या जगेगी भला, ऐसे अधिकारियों को लेकर छात्रों में धिक्कार का भाव पनपता है नतीज़तन, विश्वविद्यालय-परिसर का जीवन निहायत दमघोंटू हो चला है.

छात्रों को भान होता है कि उनपर तमाम किस्म की बंदिशें लगायी जा रही हैं- छात्र-संघ की गतिविधियों पर नकेल कसी जाती है, कोई सेमिनार या टॉक करवाना हो तो कहा जाता है कि इसकी इज़ाजत लेनी होती, छात्रों की सोशल मीडिया की गतिविधियों पर निगरानी रखी जाती है और उनके फेसबुक-पोस्ट को आपत्तिजनक बताकर दंडित किया जाता है. छात्राओं के हॉस्टल में पहुंचने के समय को लेकर हास्यास्पद नियम बनाये जाते हैं और उनके पालन को लेकर सख्ती बरती जाती है. इसके अलावे ‘नैतिकता-सिखावन’ भाइयों की भी जमात है और ये जमात अपना लाठी-डंडा थामे देखते रहती है कि छात्र-छात्राएं आपस में रिश्ता किस तरह का बना रहे हैं. जाहिर है, जामिया में छात्रों पर हुई बर्बर पुलिसिया कार्रवाई को लेकर उमड़ा आक्रोश उन दमघोंटू अधिकारियों के खिलाफ भी विरोध का इज़हार है जो विश्वविद्यालय को बच्चों का पालनाघर बनाने पर तुले हुए हैं. अपने परिवार से पहली पीढ़ी के तौर पर उच्च शिक्षा के लिए निकले और ज्यादातर ग्रामीण और वंचित समुदाय से आये इन छात्रों ने ये महसूस कर लिया है कि आज़ादी की फिजां कैसी होती है और वे आज़ादी के अहसास को हर चंद बचाना चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि आज के नौजवानों का पसंदीदा नारा ‘आज़ादी’ है.

उच्च सिद्धांत

गौर करें कि जामिया मिल्लिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को पुलिसिया-कार्रवाई की बर्बरता के खिलाफ समर्थन देने तक सीमित ना रहते हुए देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों के छात्रों ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के मसले पर भी समर्थन दिया है. सियासी तौर पर ये बात बड़ी महत्वपूर्ण है. छात्र-समुदाय (और इसमें बड़ी तादाद में गैर-मुस्लिम छात्र शामिल हैं) नागरिकता संशोधन अधिनियम का सिद्धांतों के आधार पर विरोध कर रहे हैं. छात्र कह रहे हैं कि ये अधिनियम गैर-सेक्युलर और भेदभावकारी है. पूर्वोत्तर की जनता तो विरोध कर ही रही है और मुस्लिम-समुदाय के लोग भी विरोध कर रहे हैं, साथ ही नागरिकता (संशोधन) कानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों में युवाओं के विरोध-प्रदर्शनों ने अपनी तरफ से एक तीसरा आयाम जोड़ा है और उसे मजबूत किया है. सो, गौर करें कि यहां मुद्दा सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) या राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) का नहीं है. दरअसल युवाजन बीते जमाने की गलतियों को दुरुस्त करने की जो रवायत निकल पड़ी है उसे लेकर अब अधीर हो चुके हैं. मुस्लिम शासन या फिर विभाजन की गलतियों को दुरुस्त करने की चली इस नई रिवायत से तंग आ चुके हैं. आक्रोश का इज़हार करता देश का युवाजन वर्तमान में रहना और भविष्य को उम्मीद भरी आंखों से देखना चाहता है.

ऊंची आकांक्षाएं

इसके अतिरिक्त शिक्षा और रोजगार के मामले में अवसरों की असमानता का भी मामला है. जेएनयू में हॉस्टल की फीस बढ़ाने को लेकर उमड़ा विरोध-प्रदर्शन दरअसल इसी बुनियादी मुद्दे से जुड़ा था. क्रमागत रुप से सरकारों ने इस मोर्चे पर बस किसी तरह फीस का बढ़ना रोके रखा और यह भी छात्रों के विरोध-प्रदर्शन के डर कर किया गया जबकि यह उच्च शिक्षा पर होने वाले खर्चे का बस छोटा सा हिस्सा है. इसे भी अब दुभर बना दिया गया है. छात्रों को वित्तीय मदद देने के जो प्रोग्राम चलाये गये हैं उन्हें राष्ट्रीय स्तर का स्कैंडल कहना ज्यादा उचित है. अगर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सार्वजनिक तौर पर निहायत गिरी-पड़ी नजर नहीं आ रही तो इसलिए कि किसी ने इस मामले में अभी तक व्यवस्थित रीति से सूचनाएं नहीं जुटायी हैं.


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उच्च शिक्षा के संस्थानों में दाखिला लेने वाली छात्रों की नई पीढ़ी सिर्फ इतने भर से संतुष्ट नहीं कि चलो दाखिला तो आखिर मिल गया ! छात्र अपने महत्वाकांक्षाओं की नई पौध लाये हैं. उन्हें साफ दिख रहा है कि विश्वविद्यालयों की शिक्षा से उन्हें सम्मानजनक नौकरी बमुश्किल ही मिल पायेगी. बेरोज़गारी की दर हद दर्जे तक ऊंची बनी चली आ रही है. स्नातक स्तर की शिक्षा-प्राप्त युवाजन में बेरोज़गारी दर बहुत ज्यादा है और सबसे ज्यादा तो 19-24 साल के स्नातकों के बीच है.

चौबीस साल से ज्यादा के आयुवर्ग में बेरोज़गारी दर अगर कम है तो इसकी वजह ये नहीं कि युवाओं को मनपसंद नौकरी मिल रही है बल्कि इसकी वजह है मज़बूरी कि अब मनोवांछित नौकरी नहीं मिल रही तो जो कुछ मिल रहा है उसी से संतोष कर लिया जाये. छात्र-समुदाय का अचानक और स्वत:स्फूर्त ढंग से उमड़ा आक्रोश दरअसल उनकी महत्वाकांक्षाओं पर पड़ती चोट की भी अभिव्यक्ति है.

हम बदलाव के एक अहम मुकाम पर खड़े हैं लेकिन अभी हमारी यात्रा सुनिश्चित दिशा में शुरु नहीं हो पायी है. आंदोलन सरीखा जान पड़ते ये विरोध प्रदर्शन स्वत:स्फूर्त हैं और हैरतअंगेज़ तेजी के साथ खत्म भी हो सकते हैं. इन विरोध-प्रदर्शनों को अभी तक ऐसा कोई सांगठनिक ढांचा नहीं मिल पाया है जो इन्हें विस्तार दे और इनके असर को धार बख्शे. युवाओं के बीच बहुत से चेहरे खास होकर उभरे हैं लेकिन इन चेहरों में ऐसा कोई नहीं जो पूरे आंदोलन को एकजुट कर सके- उसे एक में बांध सके. इस आंदोलन को नये विचारों की जरुरत है. अगर युवाजन के बीच पनपते आक्रोश की इस अभिव्यक्ति को हम बंधनों से आजादी का इज़हार मानें और उदारवाद की तरफ युवाजन के रुझान के रुप देखें या फिर ये समझें कि युवाजन अगर सम्मानजनक जीविका हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं तो यह लड़ाई समाजवादी क्रांति का कोई दूत साबित होगी तो फिर दरअसल हम इन विरोध-प्रदर्शनों की गलत समझ बना रहे होंगे. बेशक, ये एक आंदोलन है लेकिन इस आंदोलन को एक नाम की तलाश है.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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