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अमेरिका के ऊपर चीनी गुब्बारा एक चेतावनी- अंतरिक्ष से जासूसी को रेग्युलेट करने का समय आ गया है

ऊपरी अंतरिक्ष में एक-दूसरे की आंखों में आंखे डाले चीन, रूस और अमेरिका वर्चस्व के लिए जबर्दस्त, बेलगाम होड़ में उलझे हैं.

4 फरवरी 2023 को अमेरिका के दक्षिण कैरोलिना में संदिग्ध चीनी गुब्बारा, जिसे मार गिराया गया | ANI

धूप में नहाए फ्लूरस के घास के मैदानों के ऊपर चमकीले लाल रंग के बैलून में उड़ते इंजीनियर ज्यां-जोसफ काउते ने नीचे नज़र डाली तो देखा कि सैनिक अपनी बंदूक के बायनेट से एक-दूसरे को काटने में भिड़े थे. यह युद्ध साक्से-कोबर्ग-गोथा, हनोवर,और हैब्सबर्ग की संयुक्त सेना के ऊपर फ्रांसीसी क्रांतिकारियों की जीत के साथ समाप्त हुआ था. वैसे, कुछ ही फ्रेंच जनरल थे जो इस जीत का श्रेय दुनिया के पहले सैन्य खुफिया बैलून ‘ला’आंत्रेप्रेनां’ को भी देने को राजी थे, जो दिन में दो बार टोही उड़ान भरता रहा था.

मार्शल ज्यां-डि-डियू सोल्ट ने बड़बड़ाते हुए कहा, ‘इस बकवास आविष्कार को इतना महत्वपूर्ण न बताया गया होता तो यह तो नाम लेने लायक भी नहीं है.’

पिछले महीने, मौसम और ऑपरेटर की गलती से गुआम में अपने लक्ष्य से भटके चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के टोही बैलून को तब मार गिराया गया जब वह अमेरिका के इलाके में पहुंच गया. इसके बाद तीखा कूटनीतिक विवाद भड़क गया. वैसे, खुफिया बैलून कम ही नुकसान पहुंचाते हैं. 1794 में ‘ला’आंत्रेप्रेनां’ के रूप में ऐसे बैलून की पहली उड़ान के करीब दो सदी बाद आज धरती का कोना-कोना उपग्रहों की निगरानी में है.

ऊपरी अंतरिक्ष में एक-दूसरे की आंखों में आंखे डाले चीन, रूस और अमेरिका वर्चस्व के लिए जबर्दस्त, बेलगाम होड़ में उलझे हैं. खुफिया बैलून पृथ्वी के करीब के अंतरिक्ष पर अपना दबदबा कायम करने का साधन है, जो प्रतिद्वंद्वी पर नज़र रखने में मदद करता है और उसकी पकड़ से दूर रहने में सक्षम है. ऐसे साधनों में चीन का खुफिया बैलून प्रोग्राम से लेकर अमेरिका का रोबोटिक विमान ‘सुपर-सेक्रेट एक्स-37बी‘ तक शामिल हैं.

इसी तरह के खतरों के मद्देनजर रूस और अमेरिका ने अपने-अपने क्षेत्र के ऊपर से खुफिया उड़ानों की अनुमति देने पर एक संधि की. इसके तहत दोनों सुपर पावर को एक-दूसरे के इरादों और क्षमताओं के बारे में आपसी भरोसा पैदा करने की कोशिश की गई. लेकिन यह ‘ओपन स्काई’ संधि 2020 में तब टूट गई जब रूस ने कालीनिनग्राद में अपने सामरिक अड्डे के ऊपर से खुफिया उड़ान पर रोक लगा दी. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अब समय आ गया है जब अंतरिक्ष से खुफियागीरी के नियमन और उसकी सुविधा देने के मानदंड तय किए जाने चाहिए.

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धरती पर नज़र

विशेषज्ञ मैथ्यू मोथोर्पे और मार्कोस ट्रिकास ने पाया है कि पृथ्वी से 1,000 किलोमीटर से कम की दूरी पर अंतरिक्ष में चक्कर काटने वाले उपग्रह करीब एक दशक से एक-दूसरे को धक्का देते रहे हैं. बड़ी शक्तियां अपने प्रतिद्वंद्वी की क्षमताओं की खुफियागीरी करने और आंकड़ों की निगरानी करने के लिए अपने उपग्रहों को उनके उपग्रहों से 100 मीटर से भी कम की दूरी पर चक्कर लगवाते रहते हैं. भविष्य में युद्ध में दुश्मन की संचार व्यवस्था को नाकाम करने के लिए उपग्रहों को मार गिराने वाली मिसाइलों या रोबो आदि का भी प्रयोग होते हम देख सकते हैं.

उपग्रहों के कारण हादसे या नुकसान के खतरों की कल्पना की जा सकती है. पिछली गर्मियों में, चीनी खुफिया उपग्रह शियान-12-01 व 12-02 अमेरिकी टोही उपग्रह 270 द्वारा जांच से बचने की कोशिश करता और खेल को पलटने की कोशिश करता पाया गया. संकट के दौरान किसी हादसे को दुश्मन को अंधा कर देने के लिए किया गया पहला हमला मान लेने की भूल की जा सकती है.

19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में, सबसे रूढ़िपंथी जनरलों को भी हवाई निगरानी के फायदे समझ में आने लगे थे. बैलून, पतंग, कबूतरों तक पर कैमरा लगा कर खुफियागीरी करना आम हो गया. फोटो की व्याख्या करने करने के नये विज्ञान ने प्रथम विश्व युद्ध में सेनाओं को दुश्मन की खंदकों और तोपों की तैनाती की अहम जानकारी मुहैया कराना शुरू कर दिया था.

लॉकहीड की ‘यू2’ ‘ड्रैगन लेडी’, जिसे पोटैशियम सायनाइड से लैस पाइलट 21,000 मीटर की ऊंचाई पर उड़ा सकते थे, उस सदी के चरम विकास का उदाहरण थी. उसे पहली बार 1956 में पोलैंड और पूर्वी जर्मनी के ऊपर उड़ाया गया था. यू2 के सेंसर और चीजों के अलावा अहम खुफिया जानकारी उपलब्ध कराते थे, और परमाणु मिसाइलों के अपने भंडार के बारे में सोवियत संघ के बड़बोले दावों पर सवाल उठाने का मसाला उपलब्ध कराते थे.

सोवियत संघ को उनकी उड़ानों के बारे में पता था लेकिन शर्मसार होने के डर से वह अपने वायु क्षेत्र में उनके अतिक्रमणों का जिक्र नहीं करता था. लेकिन अंततः 1 मई 1960 को सोवियत मिसाइल एसए2 ने एक यू2 को नुकसान पहुंचा दिया और पाइलट को उससे बाहर निकलने को मजबूर कर दिया. इसके बाद जो कूटनीतिक संकट पैदा हुआ उसने शीत युद्ध के तनावों को कम करने की ड्वाइट आइजनआवर की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. सोवियत वायु क्षेत्र में यू2 के मिशन तो खत्म हो गए लेकिन आइजनआवर को पता था कि एक नयी तकनीक कहीं ज्यादा तीखी खुफिया नज़र मुहैया करा सकती है.

खुदा की नज़र से नीचे

सोवियत संघ द्वारा पहला कृत्रिम उपग्रह ‘स्पुत्निक’ छोड़े जाने और लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइल का परीक्षण किए जाने के 10 साल बाद बड़े देश बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग के सिद्धांतों पर सहमत हुए. ‘स्पुत्निक’ और इसके बाद आए उपग्रहों ने सिद्ध कर दिया कि वायु क्षेत्र के विपरीत, अंतरिक्ष पर कोई भौगोलिक किस्म का नियंत्रण नहीं रखा जा सकता. इस संधि में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि अंतरिक्ष ‘सभी देशों के उपयोग और अनुसंधान के लिए उपलब्ध होगा.’ कानूनविद जोसफ सोरोघन ने लिखा है कि इस बात पर कोई सर्वसम्मति नहीं थी कि ‘शांतिपूर्ण’ उपयोग का क्या अर्थ है.

आइजनआवर ने 1955 में ही सोवियत संघ को पेशकश की थी कि आसमान को सबके लिए खुला रखा जाए, जिसे सीधे खारिज कर दिया गया. लेकिन नये उपग्रहों ने संसाधनों को सीधे खुदा की नज़र के नीचे ला दिया.

1959 के बाद, अमेरिका ने अपने ‘कीहोल’ उपग्रहों की सीरीज जारी की जिसमें कैप्सूल में फिल्म भरी होती थी और जिसे चार दिन के मिशन के बाद प्रशांत क्षेत्र के ऊपर निष्कासित कर दिया जाता था और उसे एक विमान की मदद से हासिल किया जाता था. लेकिन इस तकनीक की अपनी समस्या भी थी, एक कैप्सूल गलती से वेनेजुएला के एक व्यावसायिक फोटोग्राफर के हाथ लग गई जिसने इस पर फिरौती वसूलने की कोशिश की. लेकिन इससे प्रभावशाली नतीजे मिले. इस परियोजना के अवर्गीकृत इतिहास में ऐसी तस्वीरें हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि किसी सोवियत बैलिस्टिक मिसाइल को लांच केरने के लिए नहीं रखा गया था.

1960 तक भी विशेषज्ञों को यह यकीन नहीं था कि उपग्रह पारंपरिक ‘इमेज इंटेलिजेंस’ की जगह ले सकते हैं. एक अति गोपनीय रिपोर्ट के मुताबिक, समस्याओं में एक यह थी कि टोही तस्वीरें ‘सूचनाओं की काफी बड़ी संख्या से बनी होनी चाहिए, इतनी बड़ी संख्या में कि उपग्रह से धरती पर भेजी गई सूचनाओं को जारी करने का पर्याप्त समय नहीं है.’

1976 में जारी केएच-1 उपग्रह सीरीज ने ‘रियल टाइम‘ में चार्ज-कपल्ड उपकरणों द्वारा दर्ज की गई तस्वीरों को वापस भेजने में समस्या को दूर कर दिया. सोवियत संघ ऐसा प्लेटफॉर्म 6 साल बाद लांच कर पाया. चीन ने अपने फानहुई शी वाइसिंग टोही उपग्रह 1974 में लांच किए.

इलेक्ट्रॉनिक पैनोप्टीकॉन

तकनीक ने टोही मुहिम को जिस पैमाने पर ताकत दी है उसे इस धरती के कुछ ही निवासी समझ पाए हैं. यूरोपीय संघ की रिपोर्ट के मुताबिक, 2001 में ही एकलन टोही सिस्टम– जिसे अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा का कथित ‘फाइव-आइज़ अलायंस’ चलाता है– उपग्रहों के ग्लोबल नेटवर्क का इस्तेमाल करके विशाल पैमाने पर इलेक्ट्रोनिक सूचनाएं दे रहा था. विशेषज्ञ बताते हैं कि इस तकनीक के पैमाने और बारीकी में भारी इजाफा हुआ है.

देशों द्वारा तकनीक के दुरुपयोग की चिंता तो है लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि इसने ग्लोबल सिस्टम को काफी सुरक्षा प्रदान की है. बड़ी ताक़तों द्वारा परोक्ष रूप से, या गुप्त सैन्य क्षमताएं विकसित करके युद्ध शुरू करने की संभावना काफी कम हुई है. तकनीक देशों को औचक खतरों से बचाती हैं और संकट के दौरान जानकार आकलन करने की क्षमता प्रदान करती है.

देशों ने पाया है कि प्रभावी टोही उपग्रहों की कमी घातक हो सकती है. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण काफी कमजोर इसलिए हुआ है क्योंकि उसके पास केवल दो ऑप्टिकल टोही उपग्रह हैं जिनकी रिजॉल्यूसन प्रति पिक्सेल केवल 50 सेंटीमीटर है जबकि अमेरिकी सिस्टम की केवल प्रति पिक्सेल मात्र 5 सेंटीमीटर है.

हालांकि चीन ज्यादा आधुनिक टोही क्षमता बनाने में निवेश कर रहा है और उसके नये गाओफ़ेन सीरीज पश्चिमी देशों के व्यावसायिक उपग्रहों के ऑप्टिकल रिजॉल्यूसन की बराबरी पर आ रहे हैं लेकिन तकनीक के मामले में खाई कायम है. विद्वान ब्रायन वीडेन ने लिखा है की चीन भी अंतरिक्ष में जवाबी तकनीक हासिल करने में काफी निवेश कर रहा है और ऐसे हथियार बनाने में लगा है जो युद्ध में दुश्मन के उपग्रहों को मार गिरा सकते हैं.

विशेषज्ञ जॉन मेकलिन ने कहा है की अंतरिक्ष से जुड़े नियमों पर सहमति न होने से देशों का ही नुकसान होगा और या हथियारों को होड़ को बढ़ाएगा. दुनिया को यह व्यवस्था करनी होगी कि ‘मानवता का अंतिम मोर्चा उसका अंतिम रणक्षेत्र न बन जाए’.

(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami हैंडल से ट्वीट करते हैं, व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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